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लोकतंत्र और पूंजी के रिश्ते-- मृणाल पांडे

यह कोई राज नहीं कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपने चुनाव प्रचार के दिनों से ही अपने धुर दक्षिणपंथी विचारों और उग्र समर्थकों की भीड़ को लेकर विवादों से घिरे रहे हैं. उनकी बेलगाम बयानबाजी को लेकर देश के उदारवादी लोगों और खुद व्हाॅइट हाउस के स्टाफ की बेचैनी अब बढ़ती जा रही है. हाल में वर्जीनिया प्रांत के शारलौट्सविल शहर में (गुलामी प्रथा तथा नस्लवाद के पक्षधरों के प्रतीक) जनरल ली की मूर्ति सार्वजनिक स्थल से हटाने के इच्छुक उदारवादियों ने मुहिम चलायी, तो राष्ट्रपति तथा ली के अश्वेत विरोधी विचारों के धुर दक्षिणपंथी गोरे समर्थकों के साथ उनकी हिंसक झड़प हो गयी, जिसमें एक युवती जान से हाथ धो बैठी. तब से निजता और मानवाधिकारों के पक्ष में मानदंड स्थापित कर चुके अमेरिका में नव नात्सीवाद का यह उभार लगातार देश-दुनिया में चर्चा का विषय बना हुआ है.

 

साथ ही राष्ट्रपति ट्रंप का उस खूनी नस्ली घृणा को देश के उदारवादियों की निंदनीय अतिउदारता की सहज प्रतिक्रिया बता कर मामला रफा-दफा करने की कोशिश की भी चौतरफा निंदा हो रही है. उसके बाद से ट्रंप चाहते-अनचाहते नस्लवाद और लिंगभेद पर राज समाज के दो विपरीत धड़ों में बांटने का जरिया बनते जा रहे हैं. उनकी बयानबाजी और रोकटोक से नाखुश होकर ट्रंप के कई दक्षिणपंथी रिपब्लिकन सलाहकार भी अब व्हाॅइट हाउस के पदों को त्याग रहे हैं.

 

बीते 16 अगस्त को ट्रंप को दो शीर्षस्तरीय औद्योगिक सलाहकार समितियों को इन्ही वजहों से भंग करना पडा. 14 अगस्त को विश्व विख्यात कंपनी ‘मर्क' के प्रमुख ने साफ कहकर अपना इस्तीफा दिया कि वर्जीनिया के दंगे के बाद बढ़ती जा रही नस्ली असहिष्णुता के विरोध में वे यह कदम उठाने को बाध्य हैं. ट्रंप ने आदतानुसार तुरंत ट्विटर पर उनके खिलाफ बहुत हल्के शब्दों में मोर्चा खोल दिया. इसके बाद अगले दो दिनों में लगभग सभी दूसरे सदस्यों ने भी अपने-अपने इस्तीफे भेज दिये, जिसके बाद ट्रंप को उद्योग जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र की दोनों सलाहकार समितियां बंद करनी पड़ीं.

 

अमेरिका के नागरिक बने भारतवंशियों ही नहीं, खुद भारत के नागरिकों के लोगों के लिए भी अमेरिका में लगातार हिंसा की तरफ बढ़ती जा रही ऐसी नस्ली और सांप्रदायिक दरारें चिंता का विषय होनी चाहिए. अपने यहां भी ये दरारें मौजूद हैं और राज-समाज को वे कई धड़ों में बांट रहे हैं. अमेरिका के विपरीत हमारे यहां इस प्रवृत्ति के विरोधी संगठित मोर्चे नहीं बना पा रहे हैं.

 

अमेरिका से पाकिस्तान और उत्तरी कोरिया तक जब इक्कीसवीं सदी के कुछ निरंकुश शासक मानवीयता और लोकतंत्र की बुनियादी परंपराओं को ही रद्द करने पर आमादा दिखें, तो उस समय किसी भी देश के उद्योग जगत का उत्तराधिकार या अहं के झगड़ों में फंस कर अपनी-अपनी सोचना बहुत भारी पड़ता है.

 

और वे मुखर विरोध करें, तो महाबली अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को भी अपनी शीर्षस्तरीय औद्योगिक सलाहकार समितियों को भंग करना पडता है. भारत में हाल के दिनों में काॅरपोरेट जगत या तो अपने घरेलू झगड़ों में लिपटा है या शासकों की चरणवंदना में. धर्मांतरण पर रोक, दलित उत्पीडन, गोकशी पर हिंसा, या लव जिहाद, वंदे मातरम गायन जैसे क्षुद्र मुद्दों को तरजीह मिलती गयी है.

 

इससे देश की शीर्ष संस्थाओं और संसद से सड़क तक सरकारी बैंकिंग की तथा चुनावी फंडिंग की पारदर्शिता, देश की सीमा- सुरक्षा और विकास के लगातार दरकते ढांचे(गोरखपुर और मुजफ्फरपुर ट्रेन हादसे जिसके प्रमाण हैं) जैसे जीवन-मरण के प्रकरणों पर न के बराबर गंभीर चर्चा हुई है. देश के तमाम बडे उद्योगपतियों, अलग-अलग उच्च समितियों के सदस्यों, मीडिया तथा बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों से जुडे विशेषज्ञों-सलाहकारों की यह निष्क्रियता व्यावहारिक और नैतिक दोनों दृष्टियों से गलत है.

 

क्या यह तकलीफदेह बात नहीं है, कि आज भारत में आयातित पूंजीवाद में पश्चिम की कुछ कमजोरियां और बीमारियां, संघर्ष और टूट तो दिखती हैं, पर शीर्ष गलतियों को लेकर राज समाज का उनका जैसा दो-टूक कड़क विरोध नहीं दिखता.

 

राजनीति या उद्योग जगत में एकछत्रता की कामना अपनी जगह सही है. शीर्ष सत्ता में आकर कौन अपने सिंहासन का स्थायित्व नहीं चाहता ? और जब तक वह एकछत्रता देश को स्थायी शांति-समृद्धि की तरफ ले जाये, तब तक वह देश की जनता को भी अस्वीकार्य नहीं होती.

 

पर मुख्य चुनाव आयुक्त की एक हालिया गंभीर टिप्पणी ने रेखांकित किया है, कि चुनावी माहौल में पूंजी और राजनीतिक दलों के बीच संविधान निर्मित नियमों और लक्ष्मणरेखाओं का अपारदर्शी तरह से उल्लंघन खतरनाक है. राज्यसभा चुनावों के बाद 2019 में अभूतपूर्व बहुमत हर कीमत पर हासिल करने की घोषणा करनेवालों का मनचाहा राज्य बना, तो वह लोकतंत्र पर आधारित होगा या सामंतवादी मूल्यों पर?