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लोकतंत्र की जड़ में राजनीति का मट्ठा - सुभाष कश्‍यप

अब जाकर उम्मीद जगी है कि आज से तीन दिन संसद के शीतकालीन सत्र में थोड़ा-बहुत विधायी कामकाज हो सकेगा। लेकिन क्या पहले ही बहुत देर नहीं हो चुकी है? पहले समूचे मानसूत्र सत्र और अब शीतकालीन सत्र के एक बड़े हिस्से के दौरान लोकतंत्र का मंदिर कही जाने वाली संसद में जो कुछ देखने को मिला है, वह बेहद दु:खद और अप्रत्याशित रहा है। संसद के दोनों ही सदनों में निरंतर हंगामे और गतिरोध के चलते कार्यवाही को स्थगित करना पड़ा है। यदि ऐसा एकाध बार हो तो भी ठीक है, लेकिन देखने में यही आता है अब तो एक ही दिन में कई-कई बार ऐसा होने लगा है, जो पहले शायद ही कभी होता था। इसके लिए कौन दोषी अथवा जिम्मेदार है, यह इतना महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि जो बात महत्वपूर्ण है वह यह कि संसद में कामकाज नहीं हो पा रहा है और आम लोगों के लिए कानून बनाने की सांसदों की जो जिम्मेदारी है, उसे वे नहीं निभा रहे हैं।

संसद के पिछले दो सत्र राजनीतिक गतिरोध के चलते लगभग ठप ही रहे और कोई कामकाज नहीं हो सका। इस क्रम में हमें समझना होगा कि राजनीतिक दोषारोपण और वाद-विवाद एक बात है, लेकिन इसके लिए संसद को बंधक बना देना या कहें निरंतर गतिरोध की स्थिति बनाए रखना एक ऐसी समस्या है, जिसका समाधान यदि समय रहते नहीं किया जाता है तो यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को पंगु बना सकता है। वास्तव में आज भी यह हमारे लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा बन गया है। इस संदर्भ में यह भी कहा जा रहा है कि विपक्षी दल जानबूझकर ऐसी स्थिति पैदा कर रहे हैं, ताकि सरकार कामकाज न कर सके और नीतियों व कानून का निर्माण प्रभावित होता रहे।

इस बारे में मेरा यही मानना है संसद के कामकाज को कोई अनंतकाल के लिए प्रभावित नहीं कर सकता। यदि कोई दल ऐसा करने का प्रयास करेगा तो सबसे पहले देश की जनता ही उसे ठुकरा देगी और आगे के चुनावों में ऐसे किसी भी दल को राजनीतिक नुकसान हो सकता है। इसलिए शायद ही कोई दल लंबे समय तक ऐसा करना चाहे। फिर भी ऐसा कुछ होने पर संविधान निर्माताओं ने संसद को पर्याप्त शक्तियां दी हैं, जिनका इस्तेमाल किया जा सकता है। वित्तीय मामलों में राज्यसभा से अधिक शक्ति लोकसभा के पास है। ऐसा इसलिए किया गया है ताकि गतिरोध की किसी भी स्थिति में सरकार प्रशासनिक कामकाज को सुचारु रूप से चला सके और उसमें कोई बाधा न पड़े।

संवैधानिक बदलाव वाले किसी महत्वपूर्ण विधेयक को पारित कराने के संदर्भ में भी सरकार के पास संसद का संयुक्त सत्र आहूत करने का अधिकार है, जिसका वह सहारा ले सकती है। वर्तमान में राज्यसभा में कांग्रेस के सदस्यों का संख्याबल सत्तापक्ष से अधिक है, जिस कारण बार-बार यह कहा जाता है कि विपक्ष जानबूझकर सरकार के कामकाज में बाधा पैदा करने का काम कर रहा है और उसे नीचा दिखाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन मेरा विचार यही है कि किसी सदन विशेष में किसी पक्ष के पास यदि संख्याबल अधिक है तो इसका यह मतलब नहीं है कि उसे मनमानी करने का अथवा संसद में गतिरोध पैदा करने का अधिकार मिल जाता है।

इसके मद्देनजर संविधान में पर्याप्त प्रावधान किए गए हैं कि संसद में यदि कोई सदस्य अथवा पक्ष मनमानी करता है, स्पीकर के बार-बार मना करने के बावजूद हंगामा करता है, नारेबाजी करता है अथवा वेल में आ जाता है तो स्पीकर संबंधित सदस्य की सदस्यता को निलंबित अथवा समाप्त कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त भी और कई अन्य उपाय एवं प्रावधान हैं, जिसके तहत यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि संसद के दोनों सदनों का कामकाज सुचारु रूप से चलता रहे।

कुछ लोगों का यह भी कहना है कि संसद को हंगामे और अनिर्णय की स्थिति से बचाने के लिए उच्च सदन यानी राज्यसभा की शक्तियों को कम कर दिया जाना चाहिए ताकि विपक्ष सरकार के कामकाज में अनावश्यक बाधा न पैदा कर सके और विधायी कामकाज ठीक तरह से चल सके। इसके लिए ब्रिटेन और इटली का उदाहरण हमारे सामने है। ब्रिटेन में कालांतर में वहां की संसद के उच्च सदन यानी हाउस ऑफ लॉर्ड्स की शक्तियों को कम किया गया है, जिससे वहां के उच्च सदन की भूमिका विधेयकों को अंतिम रूप से पारित करने के संदर्भ में निर्णायक नहीं रह गई है। इस तरह ब्रिटेन में निचले सदन को अधिक महत्व हासिल हुआ है और सरकारी विधेयकों पर उच्च सदन वीटो करने की स्थिति में नहीं है। इस व्यवस्था को भारत में भी अपनाया जा सकता है अथवा

नहीं, इस पर विचार किया जा सकता है और संसद के साथ साथ राष्ट्रीय स्तर पर भी इस पर एक

बहस छेड़ी जा सकती है। मेरे विचार से तो फिलहाल ऐसी कोई संभावना नहीं दिखती है।

बेहतर यही होगा कि संविधान के तहत निर्धारित प्रावधानों के तहत संसद का संचालन किया जाए। भारत में संसद के दोनों सदनों लोकसभा व राज्यसभा के लिए शक्तियों का निर्धारण करते समय काफी विचार-विमर्श और बहस के बाद ही संविधान निर्माता इस नतीजे पर पहुंचे थे कि लोकसभा और राज्यसभा को परस्पर पूरक के रूप में और एक-दूसरे की कमियों-खामियों को दूर करने के लिए मिल-जुलकर काम करना चाहिए। उच्च सदन से अपेक्षा यही थी कि वह किसी कानून को अंतिम रूप देने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा और सरकार को कमियों के संदर्भ में आगाह करेगा व चेतावनी देगा, लेकिन आज स्थिति कुछ इस प्रकार की बन गई है कि राज्यसभा को राजनीतिक कटुता का मंच बना दिया गया है, जिसे किसी भी लिहाज से उचित नहीं कहा जा सकता है।

सांसदों और राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे संविधान की मूल भावना का सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर काम करें और संसद को अपने अहं का अखाड़ा बनाने के बजाय वाद-विवाद और संवाद-सहमति के माध्यम से राजनीतिक व राष्ट्रीय मसलों का समाधान खोजने की कोशिश करें। इस संदर्भ में सरकार की भूमिका भी काफी अहम है और यह देखना उसकी जिम्मेदारी है कि संसद के दोनों सदनों को सुचारु रूप से चलाने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है। ऐसा नहीं है कि पहले विवाद नहीं होते थे, लेकिन गतिरोध की ऐसी स्थिति नहीं बनने पाती थी। इसके लिए सभी को मिल-जुलकर कोई रास्ता तलाशना होगा और इस पर विचार करना होगा कि संसद को किस तरह गतिरोध और हंगामे का शिकार होने से बचाया जा सके। यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे संविधान निर्माताओं ने शुरुआत में ही कह दिया था कि कोई भी व्यवस्था तभी कारगर होगी, जब हमारे जनप्रतिनिधि अच्छी भावना से काम करेंगे। हमारे संविधान में चेक एंड बैलेंस के सिद्धांत को आधार बनाया गया है और इसी रूप में लोकसभा और राज्यसभा को भी काम करना चाहिए।

(लेखक संवैधानिक मामलों के जानकार और लोकसभा के पूर्व महासचिव हैं