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लोकतंत्र को दबोचता बर्बर भीड़तंत्र-- उर्मिलेश

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से महज 35 किमी की दूरी पर ग्रेटर नोएडा के एक गांव बिसायरा में सोमवार की रात कुछ लोगों ने संगठित ढंग से 50 वर्षीय अखलाक अहमद के घर पर हमला कर उसको मार डाला. अखलाक का 22 वर्षीय बेटा भी अस्पताल में जीवन-मृत्यु के बीच झूल रहा है. 

एकाएक हुए इस हमले, तोड़फोड़, लूटमार और हत्या की वजह क्या थी? एक अफवाह कि अखलाक गोमांस खाता है और इस वक्त भी उसके घर में गोमांस बन रहा है या कि रखा हुआ है! अखलाक की बेटी ने हमलावरों को समझाने की कोशिश की थी कि उसके घर बकरे का मांस रखा है, गोमांस नहीं. पर भीड़ तो मानो खूनी मंसूबे लेकर आयी थी. ‘इंडियन एक्सप्रेस' की रिपोर्ट के मुताबिक, हमले से कुछ घंटे पहले गांव में अखलाक के गोमांस खाने की अफवाह उड़ायी गयी. फिर यही बात मंदिर में लगे लाउडस्पीकर से प्रचारित की गयी. कुछ लोगों ने तो ह्वाट्सएप्प पर भी एक संदेश अपने परिचितों को भेजे, जिसमें अखलाक के घर कूच करने की अपील थी. 
कुछ दिन पहले यूपी के ही कानपुर में हिंसक भीड़ ने एक मुसलिम युवक को पाक-आतंकी होने के शक में पीट-पीट कर मार डाला. वह महराजपुर थाना के अंतर्गत किसी गांव के पास घूमते पाया गया था. 

पुलिस को उक्त युवक के पाकिस्तानी या आतंकी होने का अब तक एक भी सबूत नहीं मिला. सितंबर के पहले सप्ताह में दिल्ली के मुंडका इलाके में कुछ लोगों ने बिजनौर के किसानों के कई बैलों को इस शक पर जब्त कर लिया कि वे काटने के लिए बेच चुके हैं या कि बेचने के लिए कहीं ले जाये जा रहे हैं! किसानों ने बार-बार बताया कि राजस्थान के नागौर के मशहूर पशु मेले से इन बैलों को खरीदा गया है और इन्हें अपने गांव ले जा रहे हैं. 

इनका उपयोग वे खेतीबाड़ी के लिए करेंगे. किसानों की बात नहीं सुनी गयी और एक संगठन विशेष से जुड़े लोगों की भीड़ ने बैलों को ट्रक सहित एक खास संस्था द्वारा संचालित गोशाला भिजवा दिया. प्रशासनिक और न्यायिक हस्तक्षेप के बावजूद अभी तक किसानों को उनके बैल नहीं मिले हैं. 

इस तरह की घटनाओं का एक पैटर्न नजर आ रहा है. अखलाक की भीड़ द्वारा पीट-पीट कर हत्या हो या कानपुर में एक अज्ञात मुसलिम युवक के बर्बर ढंग से मारे जाने का मामला हो, दोनों में हत्या का आधार महज शक है, और निशाने पर हैं अल्पसंख्यक. संभव है, कानपुर के मामले में उक्त युवक की पृष्ठभूमि संदिग्ध रही हो, पर अब तो कोई सबूत नहीं बचा, जिसके आधार पर छानबीन होती! क्या ऐसे मामलों में स्थानीय शासकीय इकाइयों की भूमिका संदिग्ध नहीं है? अखलाक के परिवार पर हमले से पहले कई घंटे तक योजना बनी होगी. मंदिर परिसर में लगे लाउडस्पीकर से घोषणा की गयी. बिसायरा गांव ग्रेटर नोएडा जैसे इलाके से लगा हुआ है.

पुलिस और शासन की अन्य एजेंसियां क्या कर रही थीं? इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात है, वे कौन लोग हैं, जो ग्रामीणों के बीच हिंसा का यह पाठ प्रचारित कर रहे हैं? मुजफ्फरनगर दंगे की जांच रिपोर्ट कुछ ही दिनों पहले आयी है. जस्टिस विष्णु सहाय आयोग ने अपनी रिपोर्ट यूपी के राज्यपाल को सौंपी. राज्यपाल ने मुख्यमंत्री को. मुख्यमंत्री ने अफसरों को सौंप दी. रिपोर्ट अभी तक सार्वजनिक नहीं हुई, कार्रवाई कहां से होगी?

खबरों के मुताबिक, दंगे के लिए भाजपा-विहिप नेताओं और यूपी शासन की लापरवाही को जिम्मेवार ठहराया गया है. इन खबरों का यूपी सरकार ने खंडन नहीं किया, मतलब साफ है कि खबरें लगभग सही हैं. सवाल उठना लाजिमी है, हमारी शासकीय एजेंसियों ने पहले के सांप्रदायिक दंगों और सहाय आयोग की रिपोर्ट से क्या सबक लिया? सियासी समीकरणों को अनुकूल बनाये रखने के लिए क्या यथास्थिति बनाये रखना श्रेयस्कर समझा जा रहा है! 

बिसायरा कांड के संदर्भ में प्रशासनिक पड़ताल की औपचारिकता पूरी होनी बाकी है. लेकिन पशुओं के मांस को लेकर आये-दिन अपने देश में विभिन्न क्षेत्रों और समुदायों में विवाद और टकराव पैदा करने की कोशिशें होती रही हैं. पिछले दिनों कर्नाटक, महाराष्ट्र और झारखंड में भी ऐसे मामले सामने आये. हमारी सरकारें हमेशा के लिए उस पर ठोस फैसला क्यों नहीं करतीं? 

सरकार या देश की शीर्ष अदालत निर्णायक तौर पर क्यों नहीं तय कर देती कि इस महादेश के लोग क्या खायें और क्या नहीं! क्या पहनें और क्या न पहनें? अगर इन मामलों में भी नागरिक स्वातंत्र्य नहीं रखना है, तो सरकारें आचार संहिता क्यों नहीं लातीं? लोकतंत्र का माला जपने के क्या मायने हैं? दिलचस्प है कि ‘बीफ' श्रेणी में आनेवाले भैंस-भैंसे आदि के मांस व्यापार में भारत इस वक्त दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है. पहले ब्राजील था, अब भारत है. अनेक धर्म-जाति के लोग इस व्यापार में लगे हैं. 

खानेवाले भी अनेक धर्मों के लोग हैं. फिर मांसाहार या व्यापार के नाम पर कुछ खास धर्मावलंबियों को ही क्यों निशाना बनाया जा रहा है? आखिर वे भी उतने ही भारतीय हैं, फिर उनका शक के आधार पर कत्ल क्यों किया जा रहा है? 

इन सवालों पर गौर किया जाना आज जरूरी है, क्योंकि हाल के घटनाक्रमों से हमारे समाज की एक खौफनाक तसवीर उभर रही है. यह संविधान-प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता और समानता का चीरहरण है. उन्मादी भीड़ द्वारा कानून और शासन को अपने हाथ में लेने की प्रवृत्ति निरंकुश और आततायी समाज की निशानी है. कानून लागू करनेवाली एजेंसियों पर भी ऐसे तत्वों का असर साफ दिख रहा है. 
आजादी के बाद देश ने बहुत कुछ हासिल किया, लेकिन हमारा लोकतंत्र अभी भी अपरिपक्व सामाजिक संरचना पर टिका है. देश को नया संविधान सौंपने के बाद डॉ भीमराव आंबेडकर ने चेताया था, ‘देश में असमानता और अन्याय जैसी बड़ी चुनौतियों को सही ढंग से और शीघ्रता से संबोधित नहीं किया गया, तो हमारा लोकतंत्र खतरे में पड़ जायेगा.' क्या बर्बरता और लोकतंत्र, दोनों साथ-साथ चल सकते हैं?

अगर बर्बरता की इन प्रवृत्तियों और इन्हें पैदा करनेवाली सियासी-सोच पर तत्काल अंकुश नहीं लगा, तो हमारी व्यवस्था भले ही कायम रहे, भारत भले ही ‘डिजिटल इंडिया' बन जाये, लेकिन उसे लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता, क्योंकि बर्बर भीड़तंत्र और लोकतंत्र, दोनों विरोधाभासी हैं.