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लोकतांत्रिक राजशाही का नया दौर - प्रदीप सिंह

लोकतंत्र दुनिया की सर्वोत्तम व्यवस्था नहीं है, लेकिन यह भी सच है कि शासन व्यवस्था का इससे बेहतर कोई विकल्प भी नहीं है। इसलिए यह व्यवस्था अपनी तमाम खामियों के बावजूद ज्यादातर देशों में चल रही है। भारत ने भी आजादी के बाद संसदीय लोकतंत्र के रास्ते पर चलने का फैसला किया। पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बने। संसदीय जनतंत्र के प्रति पंडित नेहरू की प्रतिबद्धता पर शायद ही किसी को शक हो। प्रधानमंत्री के तौर पर लगभग दो दशक के कार्यकाल में उन्होंने देश में जनतांत्रिक संस्थाओं को न केवल स्थापित किया, बल्कि उन्हें मजबूत भी बनाया। यह बात और है कि उन्होंने अपने जीवनकाल में ही जनतांत्रिक व्यवस्था को लोकतांत्रिक राजशाही में बदलने का रास्ता भी खोल दिया। प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने अपनी बेटी इंदिरा को कांग्रेस का अध्यक्ष अगर बनवाया नहीं तो बनने से रोका भी नहीं। सार्वजनिक जीवन में सक्रिय लोगों के आचरण को लोग आदर्श के रूप में देखते हैं और उसका अनुसरण भी करते हैं। यह भी सही है कि लोग उन बातों को ज्यादा सहजता से अंगीकार कर लेते हैं जो उनके अपने निहित स्वार्थ की पूर्ति करती हो। किसी ने इस बात को आदर्श रूप में ग्रहण नहीं किया कि महात्मा गांधी, डॉ.भीमराव आंबेडकर, सरदार वल्लभ भाई पटेल, सुभाष चंद्र बोस, सी. राजगोपालाचारी, राजेंद्र प्रसाद, राधाकृष्णन, मौलाना अबुल कलाम आजाद, रफी अहमद किदवई और मदन मोहन मालवीय जैसे नेताओं ने अपने परिवार के लोगों को अपने रसूख का फायदा उठाकर कभी आगे नहीं बढ़ाया।

भारत में लोकतांत्रिक राजशाही के बीज 1959 में दरअसल तब पड़े, जब कांग्रेस के तमाम दिग्गज और स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका निभाने वाले नेताओं को दरकिनार कर इंदिरा को पार्टी का अध्यक्ष बना दिया गया। इससे भी बुरी बात यह हुई कि कांग्रेस में सबने इसे स्वीकार भी कर लिया। वास्तव में कांग्रेस के भीतर जी-हुजूरी की शुरुआत भी इसी समय से हुई। प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा गांधी ने अपने पिता की परंपरा को आगे बढ़ाया। इसका परिणाम एक विडंबना के रूप में भारतीय राजनीति में पसर चुका है।

जिन लोगों ने अपनी राजनीति का ककहरा वंशवादी राजनीति के विरोध का नारा बुलंद करके पढ़ा, वे इस मामले में कांग्रेस से आगे निकल गए। समाजवादियों ने परिवारवाद की राजनीति को इस तरह आत्मसात कर लिया है जैसे यही राजनीति का मूलमंत्र हो। किसी नेता का बेटा, बेटी या परिवार का अन्य कोई सदस्य राजनीति में आए, इसमें कोई बुराई नहीं है। किसी भी जनतांत्रिक व्यवस्था में इसे रोका भी नहीं जा सकता। समस्या उस स्थिति से है जिसमें जन्म या शादी के प्रमाण-पत्र से पद तय हो जाता है। ऐसा न होता तो राजीव गांधी प्रधानमंत्री न बन पाते और राबड़ी देवी, अखिलेश यादव, नवीन पटनायक, चंद्रबाबू नायडू, पेमा खांडू जैसे तमाम नेता मुख्यमंत्री न बन पाते। लोकतांत्रिक राजशाही में सिर्फ एक नियम तय है और वह यह कि जब परिवार के पास सत्ता आएगी तो वह परिवार में ही रहेगी। इसका अपवाद 2004 में हुआ, जब डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने। उसके दो कारण थे। एक तो सोनिया गांधी को त्याग की मूर्ति के रूप में स्थापित करना था और दूसरे, राहुल जिम्मेदारी के लिए तैयार नहीं थे। मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद तभी मिला, जब सोनिया ने उसे ठुकरा दिया।

जब लालू यादव के जेल जाने की नौबत आई तो उन्हें पूरी पार्टी में पत्नी के अलावा और कोई नहीं दिखा। बिहार विधानसभा के हालिया चुनाव के दौरान उनसे यही सवाल पूछा गया तो उनका दो-टूक उत्तर था - तो क्या पार्टी टूट जाने देते? लालू राजनीति की बारीकियों को समझने वाले नेताओं में हैं। उनकी इस बात से लोकतांत्रिक राजशाही व्यवस्था का दूसरा नियम यह स्थापित होता है कि सत्ता परिवार से बाहर गई तो पार्टी टूट जाएगी। नीतीश कुमार ने यह जोखिम (अपनी छवि की खातिर ही सही) मोल लिया था। उन्होंने जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया। उसके बाद जो हुआ, उसने लोकतांत्रिक राजशाही के दूसरे नियम को पुष्ट किया। एक नेता वाली पार्टी के सामने नेता की अस्वस्थता या न रहने पर अस्तित्व का संकट आ जाता है। तमिलनाडु की अन्न्ा द्रविड़ मुनेत्र कषगम ऐसे ही दौर से गुजर रही है। ओडिशा में भी जल्दी ही ऐसा स्थिति आ सकती है। फिर नीतीश की जद(यू) हो, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस हो या मायावती की बसपा, सबके सामने देरसबेर यह संकट आने वाला है, क्योंकि इन पार्टियों ने नेतृत्व की दूसरी पंक्ति तैयार नहीं की है। इसका सबसे बड़ा कारण शीर्ष नेतृत्व की असुरक्षा की भावना है। इसी वजह से इस व्यवस्था में समय के साथ एक और बदलाव आया है। अब नेता पार्टी में परिवार के एक सदस्य के आने भर से संतुष्ट नहीं होता। जितने ज्यादा से ज्यादा सदस्य आ जाएं, उतना अच्छा। इसके पीछे सोच यह है कि एक नेता वाली पार्टी की तुलना में एक परिवार वाली पार्टी के लिए सत्ता संभालना आसान होता है, लेकिन उत्तर प्रदेश में सपा यानी मुलायम परिवार में चल रही उठापटक से यह धारणा खंडित होती है।

मुलायम सिंह यादव ने बेटे अखिलेश को सत्ता सौंपकर परिवार में राजनीतिक विरासत तय कर दी थी, लेकिन इससे बात बनी नहीं। बेटे को सत्ता सौंपकर भी मुलायम सिंह उसकी चाभी अपने ही पास रखना चाहते थे। यहीं से बात बिगड़ गई। स्थिति यह हो गई कि मुलायम यह बताने लगे कि अखिलेश मुख्यमंत्री होकर भी मुख्यमंत्री नहीं हैं और वह मुख्यमंत्री नहीं होते हुए भी मुख्यमंत्री हैं। यह वैसा ही है कि पिता बेटे को नई कार खरीदकर दे, पर कहे कि चलाएंगे हम। कौन बेटा ऐसी कार चाहेगा। अखिलेश भी वही कह रहे हैं।

सपा में हालात कुछ-कुछ 1969 की कांग्रेस जैसे हो गए हैं। पार्टी सिंडीकेट और इंडीकेट में बंट चुकी है, केवल औपचारिक घोषणा बाकी है। 1969 की ही तरह सत्ता इंडीकेट (अखिलेश) के पास है और संगठन सिंडीकेट (मुलायम) के हाथ में। अब सवाल इतना ही है कि क्या अखिलेश के पास इंदिरा जैसा साहस और दूरदृष्टि है? यह अखिलेश के राजनीतिक कौशल और जोखिम लेने की क्षमता की अग्निपरीक्षा है। मुलायम हारेंगे तो बेटे से और अगर अखिलेश हारे तो राजनीतिक विरासत के लिए उन्हें जंग लड़नी पड़ेगी। मुलायम सिंह कुछ भी बोल सकते हैं। उन्हें अब किसी के सामने कुछ साबित नहीं करना है। अखिलेश को बोलने से पहले शब्दों को तौलना पड़ेगा। मुलायम के सामने उनका अतीत और वर्तमान है। अखिलेश के सामने वर्तमान और भविष्य है। उन्हें ही तय करना है कि वह अपनी नई लीक बनाएंगे या पिता की बनाई लीक पर लौट जाएंगे, क्योंकि कहावत है कि 'लीक लीक चींटी चले, लीकहिं चलें कपूत। लीक छाड़ि तीनों चलें - शायर, सिंह, सपूत।"

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक व वरिष्ठ स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं