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लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करने वाले- तवलीन सिंह

राहुल गांधी के कहने पर सरकार ने अपना अध्यादेश वापस ले लिया पिछले सप्ताह। जिस दिन से राहुल जी ने अध्यादेश के खिलाफ आवाज उठाई, उस दिन से ही तय हो गया कि ऐसा होना ही था, लेकिन ऐसा लगने लगा है मुझे कि दिल्ली में बैठे कई वरिष्ठ राजनीतिक पंडितों को अपनी 'बकवास' पर विश्वास होने लगा है। सो अध्यादेश के वापस लिए जाने के अगले दिन अखबारों की सुर्खियों में आश्चर्य जताया गया कि सरकार ने राहुल गांधी की मर्जी के मुताबिक काम करना शुरू किया है। मेरे कुछ वामपंथी सोच वाले पत्रकार साथियों ने तो यहां तक कहा कि राहुल अपनी माताजी के खिलाफ, उनकी नीतियों के खिलाफ क्रांति शुरू कर रहे हैं। ऐसी बातें बकवास नहीं, तो क्या हैं?

देश के गांवों में आप अनपढ़ मतदाताओं से भी पूछिएगा कि भारत के सबसे बड़े राजनेता कौन हैं, तो पहले लेंगे सोनिया गांधी का नाम, उसके बाद उनके सुपुत्र का नाम और उसके बाद ही डॉक्टर साहिब का नाम लिया जाएगा।

प्रधानमंत्री ने खुद कहा है कि वह राहुल गांधी की सरकार में काम करने के लिए तैयार हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि दिल्ली के राजनीतिक पंडितों ने अपने कान बंद कर लिए थे उस समय। यह भी लगता है कि उन्होंने पिछले दस वर्षों से अपनी आंखें भी बंद कर रखी थीं, ताकि वे इस बकवास को फैला सकें कि सरकार के मुखिया बेचारे डॉक्टर साहिब हैं। ऐसा करते-करते आज हाल यह है कि उनको विश्वास हो गया है कि जो आर्थिक और राजनीतिक नुकसान हुआ है इस सरकार के शासनकाल में, उसका सारा दोष प्रधानमंत्री को दिया जाना चाहिए।

सच्चाई दोस्तो, कुछ और है। आज अगर अर्थव्यवस्था में गहरी मंदी छाई हुई है, तो उसका मुख्य कारण है, सरकार ने सोनिया जी के हुक्म के मुताबिक महंगी गरीबी हटाओ योजना में निवेश किया, जिनसे न गरीबी कम हुई, न बेरोजगारी और न ही देश में खुशहाली आई। साथ ही सरकार ने देसी-विदेशी निवेशकों के लिए माहौल खराब किया गलत टैक्स लगाकर और लाइसेंस राज के नियम वापस लाकर। नतीजा यह कि अर्थव्यवस्था में पैसा कम होता गया और सरकार के खर्च बढ़ते गए।

राजनीतिक नुकसान जो सबसे ज्यादा हुआ है पिछले दशक में, वह हुआ लोकतांत्रिक संस्थानों को कमजोर करने के कारण। अति महत्वपूर्ण संस्था संसदीय लोकतंत्र में होती है प्रधानमंत्री पद की। इस संस्था को कमजोर किया सोनिया जी ने प्रधानमंत्री को नियुक्त करके, और उनसे नियम-नीतियां बनाने की जिम्मेदारी छीनकर। प्रधानमंत्री और उनके मंत्रियों से ज्यादा नीतियां बनाने के अधिकार दिए सोनिया जी ने अपनी सलाहकार समिति (एनएसी) को। ऐसा करके बहुत बड़ी गलती की उन्होंने, लेकिन हम राजनीतिक पंडितों ने जब आवाज उठाई, तो इतनी धीमी कि कोई सुन ही नहीं पाया। उतनी ही धीमी रही हमारी आवाज, जब इस साल के शुरू में राहुल को कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनाया गया। राहुल जी ने जिम्मेदारी संभालते हुए कहा कि उनकी अम्मा आधी रात को आईं रोती हुईं, और समझाया उन्हें कि 'जहर' होती है राजनीतिक जिम्मेदारी।

हमको कहना चाहिए था उस समय कि जनता की सेवा अगर 'जहर' है, तो भागो भैया जी, कुछ और करो, लेकिन हम चुप रहे। क्यों? इसलिए कि इस देश के अधिकतर राजनीतिक पंडित गांधी परिवार का सम्मान इतना करते हैं कि उनको एक खास दर्जा दिया गया है, जो अन्य राजनेताओं से कहीं ऊंचा है। उनकी वे गलतियां भी हम माफ करने को तैयार हैं, जो हम अन्य राजनेताओं में बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करते। सो राजीव गांधी को 1984 वाली हिंसा के लिए हमने माफ किया आसानी से, बावजूद इसके कि उन्होंने बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती हिलती है वाली बात कही थी हिंसा को जायज बताते हुए। लेकिन नरेंद्र मोदी को हम प्रधानमंत्री बनने के लायक आज भी नहीं समझते हैं 2002 वाले दंगे के कारण।

मैंने बहुत कोशिश की है मेरे पत्रकार साथियों का गांधी परिवार से इस प्यार और इस सम्मान को समझने की, जो हमें अंधा और बहरा बना देती है बार-बार। तमाम कोशिशों के बावजूद समझ नहीं पाई हूं बिल्कुल भी। मेरी आपसे यही अनुरोध है कि आप जब अगली बार कोई लेख पढ़िएगा गांधी परिवार की तारीफ में, तो बहुत ध्यान से पढ़िएगा, ताकि बकवास को परखने का काम खुद कर सकें।