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लोकपाल कानून : अभी दूर की कौड़ी है लोकपाल कानून

भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे की मुहिम के बाद सरकार लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने के लिए एक समिति के गठन और इसे मानसून सत्र में सदन में पेश करने के लिए शनिवार को राजी हो गई। इससे सरकारी तंत्र में शीर्ष स्तर पर फैले भ्रष्टाचार पर नकेल कसने में मदद मिल सकती है, लेकिन यह तो शुरुआत है। इस बिल के कानून बनने का सफर काफी लंबा हो सकता है। ऐसे कई बिलों के उदाहरण हैं जो सालों पहले संसद में पेश किए गए, लेकिन अब तक कानून नहीं बन पाए। आइए जानते हैं देश के संविधान में कानून बनने की प्रक्रिया और लंबे समय से अटके कुछ बिलों के बारे में..


लोकपाल बिल को पहली बार १९६८ में संसद में पेश किया गया था। मगर, इसके मसौदे को लेकर राजनीतिक दलों के बीच एकमत नहीं होने के कारण यह आज तक कानून नहीं बन पाया है। अन्ना हजारे के शांतिपूर्ण आंदोलन के बाद सरकार ने इस ओर फिर से कदम बढ़ाने का फैसला किया है। लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने के लिए एक समिति बनाई गई है। फिर इसे संसद में पेश किया जाएगा, लेकिन कानून बनने से पहले इसे कई पड़ावों से गुजरना होगा।

संविधान के अनुच्छेद १क्७ (१) के मुताबिक वित्त विधेयक के अलावा अन्य किसी भी विधेयक को संसद के दोनों सदनों में से किसी में भी पेश किया जा सकता है।

बिल का प्रस्तुतीकरण

संसद के दोनों सदनों में से किसी भी सदन में सबसे पहले अधिनियम को पेश किया जाता है। इसके बाद राष्ट्रपति की मंजूरी लेने से पूर्व उसे दोनों सदनों में परित किया जाता है। सरकार का कोई मंत्री या संसद का कोई सदस्य बिल को पेश कर सकता है। यदि संसद का कोई सदस्य बिल को पेश करना चाहता है तो उसे इससे पहले स्पीकर के सामने उसे अपनी मंशा रखकर स्पीकर से अनुमति लेनी पड़ती है। यदि किसी अधिनियम को सदन में प्रस्तुत करने से पूर्व आधिकारिक राजपत्र में प्रकाशित कर दिया गया है तो उसे पेश करने से पहले कोई विशेष अनुमति लेने की जरूरत नहीं होती है।

प्रस्तुतीकरण के बाद की प्रक्रिया

बिल को सदन में पेश किए जाने के बाद उस पर सीधे ही विचार किया जा सकता है या फिर उसे विचार के लिए संसद की स्थाई समिति अथवा संयुक्त संसदीय समिति के पास भेजा जा सकता है इसके अलावा बिल के मसौदे को लेकर आम लोगों से भी विचार आमंत्रित किए जा सकते हैं।

स्थाई समिति की रिपोर्ट

प्रस्ताव को यदि स्थाई समिति के विचारार्थ भेजा जाता है तो समिति प्रस्ताव के प्रावधानों में बदलाव की अनुशंसा कर सकती है, लेकिन उसके आधारभूत सिद्धांतों में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता। स्थाई समिति की रिपोर्ट मिलने के बाद उसकी अनुशंसाओं के साथ प्रस्ताव पर सदन में विचार-विमर्श किया जाता है।

संसद की मंजूरी

स्थाई समिति द्वारा बिल के मसौदे में संशोधन के बाद उसे पहले उसी सदन में पेश किया जाता है जहां वह पहली बार पेश किया गया था। वहां मंजूरी मिलने के बाद उसे दूसरे सदन में पेश किया जाता है, जहां उसे एक बार फिर पहले की सभी प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। संसद का दूसरा सदन बिल को लेकर निम्न तीन में से कोई एक रास्ता अपना सकता है:

१. वह बिल को सिरे से नामंजूर कर सकता है। ऐसा होने पर राष्ट्रपति प्रस्ताव पर विचार के लिए संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुला सकते हैं।

२. वह बिल को कुछ संशोधनों के साथ पारित कर सकता है। ऐसी हालत में बिल को फिर से पहले सदन में भेजा जाता है जो या तो उन संशोधनों को मान सकता है। संशोधन मान्य न होने पर राष्ट्रपति दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाने को बाध्य होते हैं।

३. दूसरा सदन बिल पर कोई कार्रवाई नहीं कर सकता है। यदि दूसरे सदन में बिल को पेश हुए छह महीने का समय बीत जाता है तो राष्ट्रपति दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुला सकते हैं।




राष्ट्रपति की मंजूरी

दोनों सदनों से पारित होने के बाद बिल को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेजा जाता है। राष्ट्रपति के पास तीन विकल्प होते हैं। वह या तो बिल को अपनी मंजूरी दे सकते हैं या उस पर कोई कार्रवाई नहीं करने का फैसला ले सकते हैं। राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने पर बिल उसी तारीख से कानून बन जाता है, लेकिन वह उस पर कोई कार्रवाई नहीं करें तो बिल का वहीं अंत हो जाता है। तीसरी स्थिति यह हो सकती है कि राष्ट्रपति कुछ संशोधनों के साथ बिल को संसद के दोबारा विचारार्थ लौटा सकते हैं। परंतु यदि संसद के दोनों सदन राष्ट्रपति के संशोधनों के साथ या उसके बिना भी बिल को दोबारा पारित करते हैं तो राष्ट्रपति के पास उस पर हस्ताक्षर करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता।

अध्यादेश जारी करने का राष्ट्रपति का अधिकार

कानून बनाने की इस लंबी प्रक्रिया के अलावा सरकार विशेष परिस्थितियों में राष्ट्रपति के अध्यादेश जारी करने की शक्ति की भी मदद ले सकती है। संविधान के अनुच्छेद १२३ के अंतर्गत राष्ट्रपति के पास अध्यादेश जारी करने का अधिकार है, लेकिन वह इसका इस्तेमाल तभी कर सकते हैं जबकि संबद्ध बिल को संसद की मंजूरी दिलाने के लिए पर्याप्त समय न हो और कानून बनाना अनिवार्य हो। हालांकि, उनके इस अधिकार के साथ तीन शर्ते जुड़ी हैं। पहली राष्ट्रपति कैबिनेट की अनुशंसा के बाद ही अध्यादेश जारी कर सकते हैं। दूसरी अध्यादेश को संसद की अगली बैठक के छह सप्ताह के अंदर ही उसके सामने पेश करना अनिवार्य है अन्यथा वह निष्प्रभावी हो जाएगा। तीसरी शर्त है कि अध्यादेश तभी जारी किया जा सकता है जबकि संसद के दोनों में से किसी सदन का सत्र नहीं चल रहा हो।

राज्यों के लिए भी कानून बना सकता है केंद्र

भारतीय संविधान में केंद्र और राज्यों के बीच विधायी शक्तियों को स्पष्ट रूप से विभाजित किया गया है। इसके लिए विधायी शक्तियों को तीन श्रेणियों में बांटा गया है- केंद्र सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची।

केंद्र सूची में शामिल विषयों पर कानून बनाने के सभी अधिकार केंद्र के पास होते हैं जबकि राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार राज्य सरकार के पास होता है। समवर्ती सूची में शामिल विषयों पर केंद्र और राज्य दोनों ही के पास कानून बनाने का अधिकार होता है, लेकिन सामान्य परिस्थितियों में केंद्रीय विधायिका के कानूनों को ही वरीयता मिलती है। केंद्र सरकार चाहे तो राष्ट्रीय हित में राज्य सूची में शामिल विषयों पर भी कानून बना सकती है, लेकिन इसके लिए एक प्रस्ताव राज्य सभा में दो-तिहाई बहुमत से पारित करना होता है।

कई विधेयक तो आज भी हैं लंबित

सरकार चाहे तो संसद में अपने बहुमत के बल पर वह किसी बिल को कभी भी कानून का दर्जा दे सकती है। इसके लिए छह महीने का समय भी पर्याप्त होता है। मगर, कई बार ऐसा हो नहीं पाता। बिल का मसौदा तैयार कर उसे संसद में पेश करना उसके कानून बनने की गारंटी नहीं होता। कई ऐसे विधेयक हैं जो कई साल पहले सदन के पटल पर पेश किए गए थे, लेकिन आज तक काूनन नहीं बन पाए हैं। पेश हैं ऐसे ही लंबित विधेयकों के कुछ उदाहरण:


महिला आरक्षण बिल

महिलाओं को संसद के निचले सदन लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में ३३ फीसदी आरक्षण दिलाने के लिए महिला आरक्षण बिल बनाया गया है, जो अभी भी लंबित है। ऊपरी सदन राज्यसभा ने इसे ९ मार्च २क्१क् को पारित किया था। इसके तहत महिलाओं को ग्राम पंचायत और म्युनिसिपल चुनावों में ३३ प्रतिशत आरक्षण देने का प्रावधान है। संसद और विधानसभाओं में इस आरक्षण को बढ़ाने की योजना है। इसके साथ ही महिलाओं को शिक्षा और रोजगार में भी प्रथामिकता मिलती है। कई पुरुषों का कहना है कि महिलाओं को स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी में दाखिले को प्राथमिकता देना पुरुषों के साथ भेदभाव करना है। उदाहरण के लिए देश के कई लॉ स्कूल्स में महिलाओं को ३क् फीसदी आरक्षण मिला है।

राष्ट्रीय बीज विधेयक, २क्क्४

राष्ट्रीय बीज कानून, १९६६ की जगह लेने के लिए राष्ट्रीय बीज विधेयक का मसौदा साल २क्क्४ में संसद में पेश किया था। इसके बाद इसमें सुधार के लिए इसे संसद की स्थायी समिति के पास भेजा गया, जिसने २क्क्६ में अपनी रिपोर्ट दी। संबद्ध पक्षों के सुझावों और अनुशंसाओं के आधार पर केंद्रीय कैबिनेट ने अक्टूबर २क्१क् में इसके मसौदे को संशोधनों के साथ मंजूरी दे दी।

कार्यस्थल पर छेड़छाड़

१९९क् में महिलाओं के खिलाफ अपराध के जितने भी मामले दर्ज किए गए थे, उनमें आधे से अधिक मामले कार्यस्थल पर छेड़छाड से संबंधित थे। कई लोगों ने पश्चिमी संस्कृति को महिलाओं से छेड़छाड़ के मामलों से प्रभावित बताया। १९८७ में महिलाओं के लिए अश्लील प्रतिनिधित्व निषेध कानून पारित किया गया था। इसके तहत किसी भी विज्ञापन, लेख, चित्र, प्रकाशन आदि द्वारा अश्लील रूप में महिलाओं को नहीं दर्शाया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने १९९७ में कार्य स्थल पर महिलाओं के साथ छेड़छाड़ को रोकने के लिए एक दिशानिर्देश जारी किए। राष्ट्रीय महिला आयोग ने इन दिशा-निर्देशों को नियोक्ताओं के लिए कोड ऑफ कंडक्ट के रूप में विस्तारित कर दिया। साल २क्क्७ में कार्य के दौरान महिलाओं को शारीरिक उत्पीड़न से संबंधित कानून संसद में पेश किया गया था।