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लोकपाल विधेयक-- 15 नहीं 16 अगस्त का इंतजार- पु्ण्य प्रसून वाजपेयी

जन लोकपाल अगर सरकारी लोकपाल नहीं हो सकता और सरकारी लोकपाल का मतलब अगर भ्रष्टाचार का लाइसेंस सरकार के ही पास रखनेवाला है, तो फ़िर अन्ना हजारे का आंदोलन भी अब महज भ्रष्टाचार के खिलाफ़ मुनादीवाला नहीं हो सकता.

क्योंकि सिविल सोसाइटी के लिए जो मुद्दे भ्रष्टाचार के घेरे में आते हैं, सरकार के लिए वह संसदीय व्यवस्था का तंत्र है. शायद इसीलिए पहली बार लोकतंत्र के तीनों पाये चेक एंड बैलेंस करने की जगह आपसी गंठजोड़ बनाये दिख रहे हैं. और सरकार यह कहने से नहीं हिचक रही है कि नौकरशाही पर सत्ता का नियंत्रण जरूरी है.

न्यायपालिका की संवैधानिक सत्ता को चुनौती देना संविधान में सेंध लगाना है और संसद के सवरेपरि होने पर कोई सवाल खड़ा करना समानांतर सत्ता को बनाने की दिशा में बढ़नेवाला कदम है. जबकि सिविल सोसाइटी सत्ता के नियंत्रण में सब कुछ को ही भ्रष्टाचार की जड़ मान कर देश भर में बहस शुरू करने पर आमादा है. और सरकार नियंत्रण को ही संसदीय व्यवस्था मान रही है. कह सकते हैं इस बहस ने जनता की जो ताकत है, क्या उसे ही चुनौती दी है. क्योंकि जिस जनता के लिए संविधान बना और जिस संसद को जनता की नुमाइंदगी करनेवाला मंच माना गया, 61 बरस में पहली बार उसी जनता की जरूरत, उसकी असल नुमाइंदगी और जरूरतों को पूरा करनेवाले तंत्र को बनाने के लिए संसद नहीं सड़क को मंच बनाने की बात हो रही है.

सवाल यहीं से निकल रहे हैं कि क्या आंदोलन संसद बनाम सिविल सोसाइटी का हो चुका है. क्या संविधान से संसद को मिलनेवाली ताकत पर सिविल सोसाइटी सवालिया निशान लगा रही है. क्या लोकपाल राजनेताओं और नौकरशाहों के गंठजोड़ की संसदीय व्यवस्था को तोड़ देगी. क्या सरकार यह मान चुकी है कि सिविल सोसाइटी का रास्ता सत्ता के उस तंत्र को ही खत्म कर देगा, जिसके आसरे नीतियों को देश में लागू किया जाता है और रुपये का दस पैसा भी गांव तक नहीं पहुंच पाता.

क्या अन्ना हजारे वाकई आंदोलन को अब देश की दूसरी आजादी का सवाल बना कर आम लोगों को सरकार के खिलाफ़ खड़ा करने पर आतुले हैं. और पहली बार देश को 15 अगस्त का नहीं 16 अगस्त का इंतजार है. यानी इस बार लालकिले पर प्रधानमंत्री के तिरंगा फ़हराने से ज्यादा इंतजार 16 अगस्त को जंतर-मंतर पर हजारों हाथों में तिरंगा लहराते हाथों का इंतजार देश को है. अगर ऐसा है, तो फ़िर कांग्रेस के लिए स्थिति 1947 वाली ही है. क्योंकि 15 अगस्त 1947 को जब जवाहर लाल नेहरू तिरंगा फहरा रहे थे, तो महात्मा गांधी कोलकाता के एक घर में अंधेरा किये बैठे थे. उन्होंने उस वक्त अपने घर में रोशनी करने से इनकार किया था.

बीबीसी के रिपोर्टर के उस लालच पर भी मौन रखा था, जब इंटरव्यू देने की दरख्वास्त कर रिपोर्टर ने दुनिया की कई भाषाओं में इंटरव्यू को अनुवाद करने की बात कही थी. क्या इस बार 16 अगस्त को अन्ना हजारे कुछ इसी रूप में ले जाने की तैयारी में हैं और आजादी की दूसरी लड़ाई का मतलब 15 अगस्त के मायने बदल देगा? क्या देश की जनता में नैतिक तौर पर इतना साहस आ चुका है कि गैर राजनीतिक आंदोलन के जरिये वह राजनीतिक व्यवस्था की चूलें हिला दे? क्या शहरी मध्य-वर्ग में राजनीतिक तौर पर इतना पैनापन आ चुका है कि वह जिंदगी की तमाम जद्दोजहद के बीच आंदोलन के रास्ते व्यवस्था सुधार का सपना पाल सके? जाहिर है, अन्ना के आंदोलन का ऐसड टेस्ट 15-16 अगस्त को होना है. लेकिन इस दौर में जो सवाल सरकार ने उठाये उसने ही संसदीय राजनीति में सत्ता की तानाशाही का चेहरा भी पारदर्शी बना दिया.

पांच अप्रैल को अन्ना हजारे के आंदोलन में अगर देश भर में आम आदमी को अपने आक्रोश का मंच दिखायी दिया, तो सरकार ने भी तीन दिन के भीतर जनता के आक्रोश में सफ़ल होते सिविल सोसाइटी के जरिये संसदीय व्यवस्था के गठन के बदले सिर्फ़ कांग्रेस की सियासी ताकत को ही उभारा. यानी दो दर्जन से ज्यादा राजनीतिक दलों की अनदेखी कर सत्ता की महत्ता को ही जन लोकपाल के ड्राफ्ट से जोड़ा. जबकि इस दौर का सच यही है कि भ्रष्टाचार में सरकार और कांग्रेसियों के दामन पर ही सबसे ज्यादा दाग दिखायी दिये. यानी सत्ता भ्रष्ट हो या ईमानदार, संसदीय राजनीति में महत्व सत्ता का ही होता है और संसदीय चुनाव का मतलब सत्ता पाने के लिए संघर्ष करना होता है. ऐसे में विपक्ष या सकारात्मक विरोधी की भूमिका संसदीय राजनीतिक व्यवस्था के लिए मायने नहीं रखती.

इसलिए सिविल सोसाइटी ने जब सरकार को भ्रष्टाचार के मुद्दे पर घेरा और अपनी भूमिका विरोधी या विपक्ष की बनायी, तो सियासी दलों ने आंदोलन को हवा में ही उड़ाया. क्योंकि संसदीय व्यवस्था में राजनीतिक दलों को ट्रेनिंग ही यही मिली है कि विरोध या विपक्ष की भूमिका सत्ता पाने के लिए होती है, ना कि मुद्दों के आसरे व्यवस्था बदलने की. और नीतियों में परिवर्तन जब संसद के जरिये ही होता है, तो फ़िर संसद पहुंचना ही हर नेता और राजनीतिक दल का पहला और आखरी संघर्ष होता है. ऐसे में सिविल सोसाइटी के उठाये मुद्दों को भी जब संसद के रास्ते ही गुजरना है, तो संसद में ठसक के साथ बैठे सांसदों में यह सहमति भी है कि उनकी सत्ता को इस देश में कोई चुनौती नहीं दे सकता. और सत्ता का मतलब जब नौकरशाही पर राजनेताओं की नकेल, सीबीआइ सरीखे स्वायत्त जांच एजेंसियों पर भी नियंत्रण और सीवीसी पद तक पर भ्रष्टाचार का दाग लगे व्यक्ति को बैठाने से गुरेज ना होना हो, तो फ़िर संसद के जरिये रास्ता निकल कैसे सकता है.

इन सबके बीच पहली बार पूर्व चीफ़ जस्टिस बालाकृष्णन समेत एक दर्जन से ज्यादा जज भ्रष्टाचार के घेरे में आते हों और खुले तौर पर मंत्री, नौकरशाह और कॉरपोरेट का गंठबंधन एक वक्त देश के विकास की लकीर खिंचता हुआ भी दिखता है और पकड़ में आने पर देश के राजस्व की लूट करता हुआ भी दिखायी देता हो, तो रास्ता संसद से कैसे निकल सकता है. इतना ही नहीं भ्रष्टाचार की अंगुली पीएमओ पर भी उठे और उसी दौर में लोकपाल के दायरे से पीएम को बाहर रखने की खुली मुनादी करने से सरकार भी ना हिचके, तो इसका एक मतलब तो साफ़ है कि सिविल सोसाइटी के आंदोलन को अब भी सरकार अपनी बिसात पर प्यादे से ज्यादा नहीं मान रही है. यानी अन्ना हजारे का आंदोलन अभी संसदीय सत्ता या सरकार को चुनौती देने की स्थिति में नहीं है या फ़िर अन्ना को सरकार अपने मुताबिक महत्व देकर संसदीय राजनीति की गड़बड़ियों से आम आदमी का ध्यान बांट रही है. और मौका पड़ने पर अपनी ताकत दिखा भी सकती है.

हो सकता है, सरकार के जेहन में ऐसा ही कुछ हो, लेकिन सरकार, सत्ता, संसदीय व्यवस्था या सिविल सोसाइटी की सोच में चलेगी किसकी, यह संगठन, राजनीतिक दल या चुनावी राजनीति को नहीं बल्कि देश के नागरिकों को तय करना है. पहली बार अन्ना हजारे के जरिये 61 बरस के संसदीय व्यवस्था से बाहर इन्हीं नागरिकों को एक मंच दिखायी दे रहा है. इसलिए इस बार सवाल चुनाव जीत कर संसद पहुंचनेवाले आंदोलन का नहीं है, जिसे लोहिया, जेपी से लेकर वीपी सिंह और अयोध्या के आसरे बीजेपी ने जिया. बल्कि इस बार रास्ता आजादी की तारीख 15 अगस्त पर भारी पड़ते 16 अगस्त का है. और अगर देश के नागरिकों ने तय कर लिया कि 15 अगस्त को लालकिले पर प्रधानमंत्री को झंडा फ़हराते देखने की जगह 16 अगस्त को जंतर-मंतर पर दूसरी आजादी की लड़ाई को लड़ने तिरंगा लेकर उतरेंगे, तो यह सत्ताधारियों के लिए खतरे की घंटी है.