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वचन और प्रवचन के बीच- शंकर अय्यर

लोकसभा चुनाव के विजेता का पता तो 16 मई को ही चलेगा। हालांकि चुनावी सर्वेक्षणों ने पराजित होने वाले की घोषणा पहले ही कर दी है। सर्वेक्षण यह भी बताते हैं कि महंगाई, विकास और भ्रष्टाचार ही वे प्रमुख तीन मुद्दे हैं, जिन पर मतदाता वोट करेंगे। इसमें हैरत नहीं होना चाहिए, क्योंकि भारत पहले ही दहाई के पार जा रही खाद्य मुद्रास्फीति से त्रस्त है। जिनके पास नौकरी है, उन्हें उसे बचाए रखने की चिंता है। विकास दर दशक में सबसे निचले स्तर पर है। फिर भ्रष्टाचार ने भी समता और न्याय जैसे मूल्यों को कमजोर किया है। बड़ा सवाल यह है कि इन महत्वपूर्ण मसलों से निपटने की हमारे राजनीतिक दलों के पास क्या योजना है। दरअसल कट-आउट, कॉर्टूनों और जुबानी जंग की इस चुनावी लड़ाई में पार्टियों की मंशा मतदाता समझने लगा है। मगर इस बार उसका इरादा अपनी इच्छाओं के आधार पर वोट देने का है।

अच्छी बात है कि तकरीबन सभी पार्टियों ने बढ़ती महंगाई पर चिंता जताई है। रोजगार निर्माण हर पार्टी की प्राथमिकता में है। ज्यादातर पार्टियों ने विकास का वायदा किया है। मगर चिंता की बात यह है कि ये वायदे-इरादे पूरे कैसे होंगे? भारी-भरकम शब्दों और वायदों से लबरेज पार्टियों के घोषणापत्रों को लोकतंत्र में उनका प्रतिज्ञा पत्र समझा जाता है, मगर घोषणाओं को अमली जामा पहनाने में अस्पष्टता इनकी पहचान बन चुकी है।

बढ़ती हुई खाद्य महंगाई को ही लें। पिछले पांच वर्षों से दो अंक पर बने रहने की वजह से इसने परिवारों के बजट पर असर डाला है। हर पार्टी के एजेंडे में यह सर्वोच्च प्राथमिकता पर है। सवाल है कि इसे दूर करने की उनके पास क्या योजना है? कांग्रेस इसका समाधान खाद्य सुरक्षा कानून में बताती है, और इसका दायरा बढ़ाने का वायदा भी करती है। दूसरी ओर भाजपा ने इससे निपटने के लिए कई समाधान पेश किए हैं। इसमें जमाखोरी से निपटने के लिए विशेष अदालतों का गठन, राष्ट्रीय कृषि बाजार व मूल्य स्थिरीकरण फंड की स्‍थापना और भंडारण व वितरण व्यवस्‍था में सुधार जैसे उपाय शामिल हैं।

साथ ही, हर पार्टी ने कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्यों को बढ़ाने का वायदा भी किया है। कृषि के आधुनिकीकरण के लिए निवेश जरूरी है। और किसानों की आय में बढोतरी के लिए जरूरी है कि उन्हें उन्नत बीज उपलब्‍ध कराए जाएं, ताकि फसल की पैदावार में सुधार हो सके। गौरतलब है कि चीन में ऐसे प्रयोग किए जा रहे हैं, जिनकी बदौलत प्रति हेक्टेयर 15 टन चावल पैदा हो सकेगा। अर्थशास्‍त्र कहता है कि खेती का क्षेत्र और फसल की उत्पादकता, दोनों को बढ़ाने में ही किसानों की ज्यादा कमाई का फॉर्मूला छिपा है। मगर राजनीति का नजरिया अलग होता है। दरअसल न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी के पीछे वोट पाने की उसकी जुगत होती है। मनरेगा जैसी योजनाएं रोजगार पैदा नहीं करतीं, बल्कि महंगाई बढ़ाती हैं। बढ़ती लागत को ध्यान में रखें, तो पता चलेगा कि महंगाई अभी सुर्खियों में रहेगी।

दूसरा मुद्दा भ्रष्टाचार का है। आजादी के समय से ही भ्रष्टाचार ने न केवल देश की विकास दर को धीमा किया है, बल्कि सुशासन की राह में भी अवरोध पैदा किए हैं। अमूमन हर पार्टी इसे कानून और व्यवस्‍था का मामला बताती है। मगर यह मुद्दा कहीं अधिक व्यापक है। भ्रष्टाचार की जड़ें मंत्रियों और मंत्रालयों की स्व-विवेकी शक्तियों में ढूंढी जा सकती हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह 'मंजूरी-राज' है। गौरतलब है कि किसी बिजली परियोजना को शुरू करने के लिए केंद्र और राज्य स्तर पर तकरीबन 92 मंजूरियां लेनी पड़ती हैं, और हर मंजूरी में भ्रष्टाचार को पनपने का मौका मिलता है। रिश्वत को उद्योग निवेश मानते हैं, तो मंत्रीगण अधिकार। इसका बोझ अंततः उपभोक्ता को ही उठाना पड़ता है।

साफ है कि निवेश को बढ़ाने और भ्रष्टाचार पर लगाम कसने के लिए इस 'बहु-मंजूरी राज' का खात्मा करना होगा। सच तो यह है कि भारत के एक-एक इंच पर राज्यों का शासन है। ऐसे में, केंद्र में ग्रामीण विकास, जल, शिक्षा, सड़कें और स्वास्‍थ्य जैसे अनेक मंत्रालयों का कोई औचित्य नहीं दिखता। इससे केंद्र स्तर पर सरकारी खर्च और भ्रष्टाचार, दोनों में बढोतरी होती है। हर घोषणापत्र भ्रष्टाचारमुक्त सरकार की बात करता है, मगर इसके लिए जरूरी है कि सरकार के आकार में कटौती करते हुए इसके पुनर्निमाण पर जोर दिया जाए। इस पर कोई कुछ नहीं बोलता। आखिर ज्यादा मंत्रालय तमाम गठबंधन सहयोगियों को साथ में जोड़े रखने का जरिया भी तो बनते हैं।

समझना होगा कि विकास की तेज दर तमाम कमियों को छिपा लेने की कुव्वत रखती है। राजनीतिक पार्टियां भी ज्यादा गहराई में न जाते हुए इसका वायदा कर रही हैं। विदेशी निवेश के दरवाजे खोलने, व्यापार को सुगम बनाने और विनिर्माण क्षेत्र में सुधार लाने जैसे अनिवार्य उपायों की बात पार्टियां कर रही हैं। नए शहरों को बनाने की जरूरत पर भी सभी सहमत हैं। मगर इन सबके लिए संसाधनों की जरूरत होगी। दरअसल भारत का विकास और रोजगार सृजन राजनीतिक अविवेक का शिकार दिखता है। सब्सिडी के चलते सरकार को हर रोज 700 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ता है। केंद्र और राज्य सरकारें सामाजिक क्षेत्र पर हर वर्ष छह लाख करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च करती हैं। इनके प्रभाव और कमजोर वितरण तंत्र का आकलन किए बगैर पार्टियां इस राशि को बढ़ाने की बात करती हैं।

2014 के चुनाव में बेशक कोई भी जीते, मगर सवाल यह है कि क्या इस बार मतदाता जीतेगा? इसका जवाब उन वायदों से जुड़ा है, जो राजनीतिक पार्टियों ने किए हैं। लेकिन फिलहाल तो मतदाता वचनों और प्रवचनों के फेर में असहाय दिख रहा है।