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वायदे पूरे होने का इंतजार- जगदीप छोकर

प्रधानमंत्री ने लोकसभा चुनाव से पहले भ्रष्टाचार, गवर्नेंस, काला धन इत्यादि मुद्दों पर कदम उठाने के तमाम वायदे किए थे। अब उनकी सरकार के एक साल पूरे होने के मौके पर यह सही अवसर है, जब कुछ खास मुद्दों पर उनके कामकाज का विश्लेषण किया जाए। सबसे पहले चुनाव सुधार की बात। सूचना के अधिकार और चुनाव सुधार का गहरा रिश्ता है। दरअसल, जब तक मतदाताओं के सामने सभी राजनीतिक दलों से जुड़ी सभी महत्वपूर्ण जानकारियां नहीं होंगी, तब तक अपने वोट का उपयोग करते हुए किसी एक पार्टी को दूसरी पार्टी पर वरीयता देने में उन्हें मुश्किल आएगी। केंद्र सरकार के एक वर्ष पर नजर दौड़ाएं, तो साफ होता है कि सूचना के अधिकार के मामले में सरकार की भूमिका चिंताजनक रही है। गौरतलब है कि अगस्त, 2014 से केंद्रीय सूचना आयोग में मुख्य सूचना आयुक्त का पद रिक्त है। जाहिर है, इससे केंद्रीय सूचना आयोग के कामकाज में अड़चन आ रही है। इसके अलावा सरकार की ओर से मुख्य सूचना आयुक्त की वित्तीय शक्तियों में कमी लाते हुए इस पर सरकारी नियंत्रण भी बढ़ाया गया है। इससे आयोग की स्वायत्तता में कमी आई है। ऐसे में, समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि अगर किसी को सरकार के बारे में कोई सूचना प्राप्‍त करनी हो, तो वह उसे आसानी से नहीं मिलने वाली।

जून 2013 में केंद्रीय सूचना आयोग ने एकमत से यह फैसला लिया था कि छह राष्ट्रीय राजनीतिक दल सूचना के अधिकार के भीतर आएंगे। आयोग के फैसले के मुताबिक सभी छह राष्ट्रीय राजनीतिक दल सूचना के अधिकार कानून के तहत पब्लिक अथॉरिटी होंगे। अफसोस की बात है, इनमें से किसी भी राजनीतिक दल ने केंद्रीय सूचना आयोग के फैसले का पालन नहीं किया। यही नहीं, कोई भी राजनीतिक दल आयोग के फैसले के खिलाफ अदालत में भी नहीं गया। यह न केवल एक वैधानिक संस्‍था की बेइज्जती थी, बल्कि सूचना के अधिकार का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन भी था। इसके बाद सूचना आयोग ने सरकार के पास कई नोटिस भेजे, मगर उनकी पूरी तरह से अनदेखी की गई। यह लोकतंत्र के लिए दुखद था कि मार्च, 2015 में केंद्रीय सूचना आयोग ने इस मामले में अपने हाथ खड़े कर दिए। लोकतांत्रिक संस्‍थान को कमजोर और अप्रासंगिक बनाने वाला सरकार का यह रवैया न केवल चिंताजनक, बल्कि आपत्तिजनक भी है।

प्रधानमंत्री महोदय ने अपने भाषणों में कम से कम दो बार (इसके प्रमाण भी मौजूद हैं) कहा था कि लोकसभा में जितने भी सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं, उन पर एक वर्ष के भीतर फैसला हो सके, ऐसी व्यवस्‍था बनाई जाएगी। उन्होंने लोकसभा की साख को बचाए रखने के लिए इसे जरूरी बताया था। इस सरकार के कार्यकाल का पहला वर्ष पूरा हो रहा है, लेकिन इस मामले में अब तक कोई प्रगति नहीं हुई है। सरकार कहती है कि उसने सर्वोच्च न्यायालय तक बात पहुंचा दी है। सर्वोच्च न्यायालय कहता है कि उच्‍च न्यायालयों तक बात पहुंच गई है। इस तरह से टालमटोल होता रहा है। अगर सरकार वाकई गंभीर होती, तो इस दिशा में कुछ और ठोस कदम उठाती, मगर अब तक ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिला है।

लोकसभा चुनाव के दौरान काले धन को काफी बड़ा मुद्दा बनाया गया था। यह कहा गया था कि देश के बाहर जितना भी काला धन है, उसको देश में लाया जाएगा। यह भी कहा गया था कि वह काला धन इतना है कि उसके आने से हर गरीब आदमी के बैंक खाते में 15 लाख रुपये पहुंच जाएंगे। मगर बाद में इसे चुनावी जुमला बताया गया। वित्त मंत्री इस मामले में कानूनी अड़चनों और अंतरराष्ट्रीय समझौतों को अड़चन बता रहे हैं। मगर ये सारी व्यवस्‍थाएं तो पहले भी थीं। अंतरराष्ट्रीय व्यवस्‍थाएं कोई आज की नहीं हैं। सरकार के कामकाज के इस पहले वर्ष में जो बात खुलकर सामने आई है, वह यह है कि उसकी कथनी और करनी में गंभीर अंतर है। सरकार ने काले धन पर पहल जरूर की है, मगर उसे लेकर सरकार के भीतर से भी आवाजें उठ रही हैं। दरअसल, कानून बनाना एक बात है, और उसे लागू करना अलग बात। यही बात भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम में किए गए हालिया संशोधनों के बारे में कही जा सकती है। इसके तहत किसी सरकारी अधिकारी के खिलाफ मुकदमा चलाने से पहले कई जगहों से मंजूरी लेना अनिवार्य बनाया गया है। इससे सरकारी अधिकारियों को पहले से भी ज्यादा सुरक्षा मिल जाएगी।

राजनीतिक दलों के पास पैसा कहां से और कितना आता है, और यह पैसा कहां खर्च होता है, यह अब तक किसी को भी पता नहीं है। यह भी सच है कि सरकार के पास राज्यसभा में बहुमत न होने की वजह से वह हर काम अपनी मर्जी से नहीं कर सकती। उसे दूसरे राजनीतिक दलों पर निर्भर रहना पड़ता है। मगर सरकार की ओर से अब तक ऐसी कोई पहल नहीं दिखी है। हालांकि एक वर्ष कोई ज्यादा समय नहीं होता, और उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार भविष्य में इन मुद्दों पर कुछ करेगी। मगर यह सच है कि भ्रष्टाचार, पारदर्शिता, राजनीति और चुनाव सुधार जैसे मुद्दों पर सार्थक कदम उठाने की न तो इच्छाशक्ति का, और न ही इरादों का सरकार ने परिचय दिया है। सूचना आयोग का मामला इसका प्रमाण है कि सरकार ने इन मामलों में खुद कोई पहल नहीं की है, जबकि जो लोग सुधार के लिए कुछ करना चाह रहे हैं, उन्हें रोकने की कोशिशें जरूर हुई हैं।

यूपीए सरकार से निराश लोगों को इस सरकार से काफी उम्मीदें हैं। इन मुद्दों पर पिछली सरकार से इस सरकार की तुलना नहीं हो सकती। गौरतलब है कि सूचना का अधिकार पिछली सरकार ने बनाया जरूर था, मगर उसे कमजोर करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी। इन मुद्दों पर काम कर रहे लोगों के लिए बेहद संघर्षपूर्ण समय है। हालांकि उम्मीदों का दामन नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि महज एक वर्ष के आधार पर नहीं कहा जा सकता कि सरकार आगे कुछ नहीं करने जा रही।

आईआईएम, अहमदाबाद से सेवानिवृत्त प्रोफेसर