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वास्तविक विकास तो त्रिपुरा में हुआ है- सुभाषिनी अली सहगल

पिछले महीनों में कई बार देश के सबसे छोटे और गरीब राज्य त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार के बारे में प्रसार माध्यमों द्वारा प्रशंसा की गई। हाल में उनकी पत्नी पांचाली की सादगी को लेकर भी, जो एक सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी हैं और अब ट्रेड यूनियन में काम कर रही हैं, लेख प्रकाशित हुए हैं। कम्युनिस्ट नेताओं की कड़ी आलोचना अधिक छपती है। यह आलोचना ज्यादातर इस बात को लेकर होती है कि वे अपनी सोच बदलने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं और आज के दौर की नव उदारवादी नीतियों का विरोध करने पर आमादा हैं।

इस संदर्भ में यह आश्चर्यजनक है कि कॉरपोरेट मीडिया को माणिक सरकार और उनकी पत्नी की वही आदतें अच्छी लगती हैं, जो 'पुराने' तर्ज के कम्युनिस्टों की होती हैं। बहुत ही सादगी से रहने वाले, पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता के भत्ते पर अपना गुजारा करने वाले, रिक्शे की सवारी करने वाले, आराम से सबके साथ लाइन में खड़े होने वाले और खाना खाने के बाद अपनी थाली खुद धोने वाले-ये दोनों ही पुरानी तरह के कम्युनिस्ट हैं! माणिक सरकार की नीतियां गरीबों, आदिवासियों, बेरोजगार नौजवानों और महिलाओं की समस्याएं दूर करने वाली हैं, आम जनता और उनके मुद्दों से जुड़ी हुई हैं और कॉरपोरेट क्षेत्र को बढ़ावा देने वाली नव-उदारवादी नीतियों से बिल्कुल अलग हैं।

त्रिपुरा में पहली वाम मोर्चा सरकार 1978 में बनी और 1993 से लेकर आज तक माणिक सरकार वहां के मुख्यमंत्री हैं। शुरुआत में सरकार के सामने सबसे बड़ी समस्या आदिवासी-गैर आदिवासी जनता के बीच एकता और सौहार्द स्थापित करने की थी। पूरे पूर्वोत्तर की तरह त्रिपुरा में भी यह समस्या और उससे जुड़ा अलगाववाद व्याप्त था। आज केवल त्रिपुरा ने इस समस्या पर काबू पाकर दिखा दिया है कि जनता की ईमानदारी से सेवा करके ही जन-एकता पैदा की जा सकती है।

त्रिपुरा सरकार ने आदिवासियों और भूमिहीनों को जमीन देने के साथ उनकी जमीन सुरक्षित रखने का काम किया है। जिस तरह देश के अन्य हिस्सों में आदिवासियों को लूटा और विस्थापित किया गया, त्रिपुरा के आदिवासियों की तस्वीर इसके ठीक विपरीत है। त्रिपुरा में आज 97 प्रतिशत जनता शिक्षित है, क्योंकि सरकारी स्कूलों का दूर-दराज के इलाकों तक जाल बिछा दिया गया है और तमाम बच्चों को नि:शुल्क किताबें, यूनिफॉर्म और कॉलेज तक की शिक्षा दी जाती है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व प्रगति हुई है। राज्य के सभी परिवारों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली का लाभ मिलता है और उनके बड़े हिस्से को दो रुपये किलो चावल मिलता है। मनरेगा के क्रियान्वयन में त्रिपुरा का प्रदर्शन सबसे अच्छा है, जहां साल में औसतन 88 काम के दिन जॉब कार्ड धारकों को प्राप्त कराए जा रहे हैं।

त्रिपुरा एकमात्र राज्य है, जिसने शहरी बेरोजगारों के लिए भी रोजगार योजना शुरू की है। यह सब तब हो रहा है, जब केंद्र स्वास्थ्य, शिक्षा, मनरेगा और राहत कार्यों के बजट में लगातार कटौती कर रहा है। राज्य के 90 फीसदी रिहायशी इलाकों को बिजली मिल चुकी है और खेती योग्य जमीन का 95 प्रतिशत हिस्सा सिंचाई योजनाओं के तहत है। देश के दूसरे राज्यों को सोचना चाहिए कि उनकी सरकारें ऐसे काम क्यों नहीं कर पा रहीं। सच्चाई यह है कि जनता की बेहतरी के लिए काम करना ही असली विकास है।

लेखिका माकपा पोलित ब्यूरो की सदस्य हैं