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विकल्प के अभाव में जल रही पराली - कैप्‍टन अमरिंदर सिंह

इन दिनों उत्तर भारत के कुछ इलाकों में पसरा खतरनाक स्मॉग चर्चा के केंद्र में है। सियासी घमासान में किसानों द्वारा पराली जलाने का मुद्दा भी छाया हुआ है, मगर अफसोस कि इस पर हंगामे और तल्ख बयानबाजी के बीच इससे जुड़े असल मुद्दों की अनदेखी की जा रही है। स्मॉग की वजह से बदतर होते हालात के लिए भले ही पराली जलाने को कसूरवार ठहराया जा रहा हो, लेकिन कोई इस पर बात करने के लिए भी तैयार नहीं कि असल में यह समस्या क्या है और कैसे इसका कारगर समाधान निकाला जाए? मैं बार-बार कहता रहा हूं कि यह मसला केवल पराली जलाने या ऐसा करने पर किसानों को सजा देने तक ही सीमित नहीं है। यह तो समस्या का सरलीकरण करना ही हुआ। वास्तव में यह बेहद व्यापक मुद्दा है, जिसके आर्थिक एवं सामाजिक पहलुओं के समग्र्र संदर्भ को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह ऐसा मसला है जिसकी परिधि केवल न्यायिक सीमा तक ही नहीं है, बल्कि इसके सामाजिक और आर्थिक पहलू भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। इससे जुड़े कानूनी समाधान में मीन-मेख निकालने की मेरी कोई मंशा नहीं है। अगर स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाए तो न्यायिक तंत्र को सक्रिय होना ही पड़ेगा। हमने भी पंजाब में पराली जलाने के कई मामलों में कार्रवाई की है। यहां तक कि मुझे अपनी भावनाओं के खिलाफ जाकर यह कदम उठाना पड़ा, क्योंकि मैं उन किसानों को कभी दंडित नहीं करना चाहता जो पहले से ही कर्ज के बोझ तले कराहते हुए अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं। लिहाजा मेरा यही मानना है कि जब हम सभी उपलब्ध विकल्प आजमाकर भी सफल न हो पाएं, तभी अंतिम समाधान के तौर पर न्यायिक विकल्प का सहारा लिया जाना चाहिए। क्या हमने अभी तक अन्य तमाम विकल्प आजमा लिए? क्या हमने किसानों को कारगर विकल्प सुझाए, जिन्हें अपनाने में वे नाकाम रहे कि अब उन्हें दंडित करना आवश्यक है?

 

अफसोस कि इन सभी सवालों का जवाब है - नहीं। चूंकि समस्या के दीर्घकालिक समाधान के लिए किसी भी सार्थक पहल पर कोई चर्चा ही नहीं हुई, इसलिए समस्या साल-दर-साल विकराल होती जा रही है। अभी बस यही हो रहा है कि किसानों को ही कसूरवार मानकर उन पर सख्त नियंत्रण और निगरानी की मांग हो रही है। पराली जलाने के लिए जिम्मेदार कारणों पर विचार न करने के साथ लोग यह भी नहीं सोचते कि किसी व्यावहारिक विकल्प के अभाव में यह किसानों की आजीविका से जुड़ा मसला है। अन्य कृषि प्रधान राज्यों की तरह पंजाब के लिए भी किसानों की आत्महत्या एक गंभीर और संवेदनशील मुद्दा रहा है। ऐसे में और परेशानियां बढ़ने से किसानों की स्थिति बद से बदतर होती जाएगी। इन हालात में पंजाब का रुख यही है कि सरकार पराली जलाए जाने की निरंतर निगरानी करेगी, लेकिन उन लोगों को संतुष्ट करने के लिए किसानों को पकड़कर जेल में नहीं डालेगी जो पर्यावरण के खराब हालात के लिए केवल पंजाब के किसानों को जिम्मेदार मानते हैं। मैं यह भी स्पष्ट कर दूं कि पराली जलाने के दुष्प्रभावों पर किसानों को जागरूक करने का अभियान निरंतर जारी रहेगा। इसके साथ ही हम इस समस्या के दीर्घकालिक समाधान के लिए सभी विकल्पों पर विचार भी कर रहे हैं। विशेषज्ञों ने एक विकल्प तो यह सुझाया है कि पराली को इकट्ठा कर एक ऐसे स्थान पर पहुंचाया जाए, जहां उसका कोई उचित निपटान संभव हो सके। यदि यह विचार फलीभूत हो जाए तो नि:संदेह बहुत बढ़िया है, लेकिन अफसोस कि हमारे पास अभी ऐसी मशीनें नहीं हैं, जो महज 15 दिनों के भीतर इस काम को अंजाम दे सकें, क्योंकि धान की कटाई व गेहूं की बुआई के बीच किसानों को जमीन तैयार करने हेतु बमुश्किल 15 दिनों का ही वक्त मिलता है। यदि पराली के निपटान के लिए कोई तकनीक उपलब्ध हो, तो भी उसकी ऊंची लागत को देखते हुए उसे अमल में लाना अव्यावहारिक है।

 

पंजाब में करीब दो करोड़ टन धान की पराली निकलती है। इस फसल अवशेष को ठिकाने लगाने के लिए 2,000 करोड़ रुपए से अधिक रकम की दरकार होगी। हमारा सरकारी खजाना खाली पड़ा है और राज्य कर्ज के बोझ तले दबा है। ऐसे में निजी तौर पर मैं केंद्र सरकार से वित्तीय सहायता के लिए कोशिश कर रहा हूं, ताकि वैकल्पिक उपायों के माध्यम से किसानों को मुआवजा दिया जा सके। मैं यह भी चाहता हूं कि प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्री भी इसके लिए केंद्र पर दबाव बनाएं। वे सिर्फ पंजाब के सिर पर दोष न मढ़ें, जो खुद इस जहरीले स्मॉग के दुष्प्रभावों से उतनी ही बुरी तरह प्रभावित है। यह वक्त एक-दूसरे पर ठीकरा फोड़ने का नहीं, बल्कि केंद्र पर हस्तक्षेप के लिए दबाव बनाने हेतु साझा प्रयास करने का है। लेकिन दुर्भाग्य से अभी दोषारोपण का ही काम हो रहा है। हमने केंद्र के समक्ष लगातार इस मुद्दे को उठाया है और जुलाई में एक व्यापक कार्ययोजना रपट भी सौंपी। पराली के उचित प्रबंधन के लिए हमने धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी पर 100 रुपए प्रति क्विंटल के अतिरिक्त बोनस की मांग की। कई बार प्रधानमंत्री को पत्र लिखा। मुझे पूरा भरोसा है कि राष्ट्रीय हित को देखते हुए इस संकट का समाधान करने के लिए केंद्र सरकार जरूर किसी वित्तीय पैकेज पर विचार करेगी।

 

पंजाब में विभिन्न् स्तरों पर तमाम शोध परियोजनाओं में भी पराली जलाने से होने वाले प्रदूषण को रोकने की दिशा में किफायती एवं कारगर विकल्प तलाशने पर काम चल रहा है। हमारी सरकार किसानों के लिए फसल विविधीकरण पर भी जोर दे रही है, ताकि वे कमाई के लिए केवल गेहूं और धान की फसलों पर ही निर्भर न रहें। मेरे ख्याल से फसल विविधीकरण किसानों की तमाम समस्याओं का उचित निदान है, क्योंकि इससे उन्हें बेहतर आमदनी हासिल हो सकती है, जो उन्हें कर्ज के दुष्चक्र से बाहर निकालने में मददगार होगी। अभी अधिकांश किसान उसमें ही फंसे हुए हैं। यह हमारी ऐसी ही तमाम कोशिशों का सुफल है कि पराली जलाने के मामलों में कमी आई है और जैसे-जैसे हमारी वित्तीय स्थिति और बेहतर होगी, हम प्रभावी तरीके से ऐसे और भी उपाय जारी रखेंगे। हम इसके लिए तात्कालिक समाधान नहीं तलाश रहे हैं, जिसकी फिराक में कुछ दूसरे राज्य नजर आ रहे हैं। हम चाहते हैं कि राष्ट्रीय हित में इसका स्थायी और दीर्घकालीन समाधान निकले। सच कहूं तो निगरानी-नियंत्रण की नहीं, बल्कि सार्थक और प्रभावी नीतिगत पहल की दरकार है। जहां तक इस मामले में फौरी राहत का सवाल है तो यह केवल केंद्र सरकार के दखल से ही मुमकिन है। हमारा संघीय ढांचा भी यही कहता है कि राज्यों की मदद केंद्र सरकार की संवैधानिक बाध्यता है। विशेषकर ऐसे मामले में तो केंद्र राज्यों का मसला बताकर अपना पल्ला नहीं झाड़ सकता, जब उत्तर भारत का एक बड़ा हिस्सा इस वक्त प्रदूषण की चपेट में है और उसका दुष्प्रभाव देश की सीमाओं को भी पार कर सकता है।

 

(लेखक पंजाब के मुख्यमंत्री हैं)