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विकास का 'गुजरात मॉडल'!-- अनुज लुगुन

गुजरात में कथित गोरक्षकों द्वारा दलित युवाओं को निर्ममता से पीटे जाने के विरोध में हुए दलितों के आंदोलन ने भारतीय सामाजिक संरचना की विसंगति को फिर से उजागर किया है. जिस तरह से दलितों ने मरी हुई गायों को जिला कलेक्टर के दफ्तर के सामने फेंक कर बहिष्कार का प्रदर्शन किया, उसने फिर से बाबा साहेब आंबेडकर के नेतृत्व में हुए महाड़ आंदोलन की याद दिला दी. लाखों की संख्या में प्रतिरोध मार्च करते हुए दलित सड़कों पर उतर आये. देश भर में दलितों के इस आंदोलन पर सशक्त प्रतिक्रियाएं हुईं.

दलितों को लेकर जातीय उत्पीड़न आज भी हमारे समाज में हिंसक रूप में मौजूद है. दलित समुदाय तो रोज इनसे जूझता ही है, इन सवालों को खड़ा करनेवाला अ-दलित भी इस हिंसा का शिकार होता है.

इसी साल मई में उत्तराखंड में दलितों को मंदिर प्रवेश कराने गये राज्यसभा सांसद तरुण विजय हिंसक हमले के शिकार हुए हैं. हिंदू समाज की वर्ण-व्यवस्था सवर्णों को तो देवत्व का महत्व देती है, लेकिन अवर्णों को यह मनुष्यता के दर्जे से भी पदच्युत कर देती है. हजारों बरस पुरानी यह मान्यता आज भी हमारे समाज को संचालित करती है. इसके द्वारा स्थापित मूल्यों की वजह से दोनों के बीच आपसी टकराहट है.

हमें यह समझने का प्रयास करना चाहिए कि दलितों पर हमला करने की ताकत कहां से मिलती है? उसका सोता क्या है? इस सवाल का जवाब हमें बाबा साहेब के चिंतन में देखने को मिलता है, उन्होंने हिंदू धर्म की वर्ण-व्यवस्था को ही इसकी मूल समस्या के रूप में देखा.

उनका मानना था कि इस पूरी संरचना से अलग हुए बिना दलितों की मुक्ति संभव नहीं है, क्योंकि धर्म की आड़ पर वर्ण-व्यवस्था ने सत्ता की जो संरचना तैयार की है, वह संस्कारों और मूल्यों के रूप में लोगों के अवचेतन में ही मौजूद है. फलतः उन्होंने हिंदू धर्म का त्याग कर दिया था. दुर्भाग्य से आज भी कुछ संगठन ऐसे हैं, जो जड़तावादी संरचनाओं के पुनरुत्थान के लिए आंदोलनरत हैं. जाति का अस्तित्व ऐसी विसंगतियों को और मजबूती देता है.

तरुण विजय ने ऐसे ही जातिवादी तत्वों को चिह्नित करते हुए एक बार अपने कॉलम में लिखा था कि ‘अगर देशद्रोह का मुकदमा चलना चाहिए, तो ऐसे लोगों पर चलना चाहिए, जो जाति के आधार पर नफरत करते हुए समाज और देश को बांटने का काम करते हैं.' मैं यहां एक बात यह जोड़ना चाहूंगा कि मुकदमा उस व्यक्ति पर तो हो, साथ ही उस संगठन या, उस विचारधारा पर भी हो, जहां से वह जातीय उत्पीड़न के लिए प्रेरित होता है. ध्यातव्य हो कि राष्ट्रीय अपराध रिकाॅर्ड्स ब्यूरो के 2014 के रिपोर्ट के अनुसार, हर घंटे औसतन दलितों के खिलाफ पांच से ज्यादा अपराध होते हैं, जिनमें हत्या और बलात्कार जैसे गंभीर मामले भी हैं.

दलितों के इस आंदोलन ने पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान विकास के ‘गुजरात मॉडल' की जो चर्चा छिड़ी थी, उस पर भी सवाल खड़ा कर उसे अप्रासंगिक बना दिया है. भले ही ‘गुजरात मॉडल' भाजपा का चुनावी जुमला रहा हो, लेकिन इसका अभिप्राय सिर्फ गुजरात राज्य के मॉडल से नहीं है, बल्कि विकास की ऐसी आक्रामक पूंजीवादी अवधारणा से है, जो सिर्फ विकास को भौतिक उपलब्धियों के रूप में चिह्नित करती है.

‘गुजरात मॉडल' अर्थात् लोहे और कंक्रीट की मीनारें खड़ी करना, बाजार में आंकड़ों के उछाल का मॉडल और संरचनात्मक धरातल पर सामाजिक समरसता की अनदेखी का मॉडल. यही मॉडल हमारे देश की राजनीति के पास है. सवाल यह है कि क्या विकास का मतलब सिर्फ भौतिक संरचनाएं ही उपलब्ध करना है? क्या बिना समान सामाजिक संरचना के किसी भी प्रकार की भौतिक संरचना टिकाऊ रह सकती है?

यह सवाल हमें स्वाधीनता संघर्ष के दिनों में लौटने के लिए विवश करता है. राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के दो बड़े नेता महात्मा गांधी और बाबा साहेब अांबेडकर मुक्ति की जो परिकल्पना कर रहे थे, दरअसल वह भौतिक संरचनाओं की उपलब्धि मात्र नहीं थी. परस्पर मतभेद के बावजूद दोनों के लिए मुक्ति का अभिप्राय समान सामाजिक संरचना की उपलब्धि है. कथा-सम्राट प्रेमचंद के यहां भी मुक्ति का यही अभिप्राय है. वास्तविक विकास और मुक्ति का अभिप्राय समान सामाजिक संरचना की उपलब्धि होना चाहिए.

लेकिन, आजादी के बाद संवैधानिक प्रावधानों को छोड़ कर समान सामाजिक संरचना की उपलब्धि की दिशा में संपूर्ण समाज की ओर से आंदोलनों के रूप में ईमानदार सामूहिक प्रयास नहीं हुए. सब कुछ राज्य या कानून के भरोसे छोड़ दिया गया. परिणामस्वरूप दलितों, वंचितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों व स्त्रियों के सवाल ज्यों-के-त्यों रह गये. केवल पीड़ित समुदाय ही अपने स्तर पर मुक्ति के लिए संघर्षरत रहा.

नयी युवा पीढ़ी को सामाजिक संरचना की वास्तविकताओं से परिचित कराने के बजाय ‘विकास' की भौतिक चकाचौंध का सपना दिखाया गया. इससे समाज में अपने ही नागरिकों के प्रति असंवेदनशीलता बनी रही.

पुराने सामंती-पितृसत्तात्मक और ब्राह्मणवादी संस्कार समाज में न केवल मौजूद रहे, बल्कि कुछ पुरातनपंथी संस्थाएं इन्हें मजबूत भी करती रहीं. वास्तविक विकास का मतलब सामाजिक चेतना का विकास होता है, इस बात को हमारे सामाजिक परिदृश्य से ही गायब कर दिया गया. चुनावी प्रोपेगंडा में और राजनीतिक उठा-पटक में सिर्फ वस्तुओं का भौतिक प्रलोभन ही संसदीय राजनीति का मुद्दा बना दिया गया.

इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि आज जब कोई दलित-वंचितों के पक्ष से सवाल उठाता है, या, उनके आंदोलन की बात करता है, तो वह सहज ही असामाजिक और अप्रासंगिक कह दिया जाता है. गुजरात का यह दलित आंदोलन फिर से ‘विकास' के मुद्दे पर बहस की मांग तो है ही, साथ ही समाज के वंचितों के पक्ष में जन-भागीदारी का आह्वान भी है.

भौतिक विकास की उपलब्धियों को हासिल करना उतना कठिन नहीं है, जितना कि सामाजिक चेतना के विकास की उपलब्धियों को हासिल करना, क्योंकि चेतना का संबंध मूल्यों और संस्कारों से होता है. ये हजारों बरसों से रूढ़ियों के रूप में हमारे अवचेतन में मौजूद रहते हैं. भारत जैसे देश में सामंती-पितृसत्तात्मक और ब्राह्मणवादी संस्कारों एवं मूल्यों से लड़े बिना विकास की वास्तविक उपलब्धियों को हासिल करना मुश्किल है.