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विकास का नया भारतीय मॉडल - वीएन कौल

इस बात का अपने आपमें एक प्रतीकात्मक महत्व था कि नीति आयोग 1 जनवरी 2015 को अस्तित्व में आया। यह नए साल में नई सरकार के नए दृष्टिकोण को दर्शाने वाला कदम था। नीति आयोग ने जिस योजना आयोग की जगह ली, उसका मूल विचार प्रो. मेघनाद साहा के दिमाग की उपज था, जिन्होंने वर्ष 1938 में समाजवादी शैली में संचालित होने वाली एक राष्ट्रीय योजना समिति की परिकल्पना की थी। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस को अपने इस विचार से अवगत कराया था। बाद में मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया कांग्रेस पार्टी की योजना समिति के अध्यक्ष बने। जब भारत को आजादी मिली तो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस विचार को आगे बढ़ाते हुए एक योजना आयोग की परिकल्पना की और वर्ष 1950 में एक कैबिनेट प्रस्ताव के मार्फत इसका गठन कर दिया गया। वर्ष 1951 से योजना आयोग प्रभावी हो गया। बदलते आर्थिक परिदृश्य के अनुसार समय-समय पर आयोग के स्वरूप में बदलाव होते रहे। उसने एक अति-केंद्रीकृत प्रणाली से लेकर एक निर्देशात्मक नियोजक तक की भूमिकाएं निभाईं, लेकिन नियोजन के प्रति उसका रवैया हमेशा समग्रतापूर्ण रहा।

योजना आयोग कमोबेश अभी तक अपनी बुनियादी धारणाओं से डिगा नहीं था। वह संसाधनों का व्यापक आकलन कर सिलसिलेवार ढंग से केंद्रीकृत भावी योजनाएं, वार्षिक योजनाएं और पंचवर्षीय योजनाएं बनाता आ रहा था, जिनके परिमाणात्मक लक्ष्यों को राष्ट्रीय विकास परिषद के अनुमोदन के बाद बजट में शामिल किया जाता है। नियोजन के प्रावधानों को बजट में अलग से शामिल किया जाता और उन पर होने वाले व्यय की आयोग द्वारा पृथक से निगरानी की जाती। केंद्रीय और केंद्र द्वारा प्रायोजित योजनाओं की निगरानी के साथ ही योजना आयोग राज्यों की योजनाओं को भी अंतिम रूप देता रहा है। खासतौर पर गरीबी उन्मूलन के लिए सरकारों के अनेक फ्लैगशिप सामाजिक कार्यक्रमों की अगुआई आयोग द्वारा की जाती रही है। वह राज्य सरकारों को दिए जाने वाले विवेकाधीन अनुदानों की प्रकृति और मात्रा को भी निर्धारित करता रहा है। नियोजन की प्रकृति परंपरागत रूप से 'टॉप-डाउन" बनी रही। यही कारण था कि आर्थिक उदारीकरण के प्रस्तावकों के मन में यह बात घर कर गई थी कि बाजार-केंद्रित होती जा रही भारतीय अर्थव्यवस्था में अब योजना आयोग जैसी संस्था की कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई है।

विकास की अवधारणा के हिमायती अनेक प्रतिष्ठित आर्थिक चिंतकों का मत है कि परिमाणात्मक आर्थिक प्रणाली में अनेक महत्वपूर्ण गुणात्मक पहलुओं की उपेक्षा कर दी जाती है और जहां भौतिक आयामों पर जरूरत से ज्यादा जोर दिया जाता है, वहीं अर्थव्यवस्था में विकास की प्रेरणा जैसी मनोवैज्ञानिक चीजों पर ध्यान नहीं दिया जाता। नियोजन की सफलता के लिए सरकार की प्रशासनिक दक्षता, राजनीतिक स्थायित्व और लोकप्रियता जैसे तत्व आवश्यक हैं, लेकिन नियोजन के परंपरागत ढांचे में इन्हें नजरअंदाज किया जाता है। समाजवादी पूर्वग्रहों से मुक्त आर्थिक चिंतकों का मत रहा है कि भारत में होने वाली आर्थिक गतिविधियों का एक बड़ा हिस्सा निजी या अर्धनिजी क्षेत्र से जुड़ा हुआ है और यह क्षेत्र सरकार द्वारा निर्धारित लक्ष्यों से अधिक निजी लाभ की भावना से अधिक संचालित होता है। इस तरह की आर्थिक गतिविधियों को नियंत्रित करना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने की तरह है। यह जरूर है कि पंचवर्षीय योजनाएं सुनियोजित विकास की दिशा में अत्यंत प्रभावी साबित हुईं, लेकिन उपयुक्त प्रेरणा के अभाव में वे आर्थिक विकास दर को वांछनीय गति देने में नाकाम रही हैं।

अब तो खैर यह स्पष्ट हो चुका है कि भारत जैसे देश के लिए परिमाणात्मक नियोजन के बजाय बाजार की प्रक्रियाओं के माध्यम से परोक्ष नियंत्रण की प्रणाली अधिक कारगर साबित होगी। वास्तव में योजनागत और गैर-योजनागत खर्चों के भेद को पाटने की जरूरत है। दुनिया के अनेक उदारवादी लोकतांत्रिक देशों की तरह भारत के विधान में भी पूंजी और राजस्व व्यय को अलग-अलग परिभाषित किया गया है। यह देखा जाता रहा है कि योजनागत और गैर-योजनागत का भेद करने से गैर-योजनागत व्ययों के प्रति पूर्वग्रह निर्मित होता है और इससे सरकार की मौजूदा संपदाओं की उत्पादकता प्रभावित होती है। लेकिन 'टॉप-डाउन" मॉडल पर केंद्रित योजना आयोग के लिए यह अनुकूल था और उसमें राज्यों के लिए अधिक लचीलापन नहीं दिखाया गया था। यह समझ बाद में निर्मित हुई कि यह मॉडल हमारी सहयोगात्मक संघीय प्रणाली के अनुरूप नहीं है। यहां तक कि खुद योजना आयोग के भीतर से इस तरह के स्वर सामने आ रहे थे कि इसके ढांचे में बदलाव किए जाने की जरूरत है। इन मायनों में तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा योजना आयोग को समाप्त कर उसके स्थान पर नीति आयोग बनाने का निर्णय आर्थिक दृष्टि से सूझबूझ भरा ही कहा जाएगा।

नवगठित नीति आयोग का स्वरूप नियामक संस्था से ज्यादा एक 'थिंक टैंक" का है, हालांकि लोग जानना चाहते हैं कि उसका ढांचागत स्वरूप एक संस्था का है या आयोग का। नीति आयोग द्वारा घोषित लक्ष्यों पर नजर डालने से पता चलता है कि पुरानी नियोजन प्रणाली की कुछ समस्याओं को तो वह निश्चित ही दुरुस्त करेगा। चूंकि नीति आयोग की परिकल्पना एक थिंक टैंक की तरह की गई है, इसलिए उसे नए राष्ट्रीय एजेंडे के लिए एक फ्रेमवर्क तैयार करना होगा। पुराने योजना आयोग के उलट नीति आयोग के पास इतनी शक्तियां नहीं हैं कि वह नियोजित लक्ष्यों को तय करे और केंद्र व राज्य के मंत्रियों को राशि का भुगतान करे। ये शक्तियां अब वित्त मंत्रालय के पास हैं। इसका मतलब यह है कि जहां नीति आयोग सरकार को तकनीकी परामर्श दे सकेगा, वहीं उसके पास प्रवर्तन की शक्तियां नहीं होंगी। ये शक्तियां केंद्र और राज्यों की सरकारों के पास होंगी और विकास की यात्रा में वे समान रूप से सहभागी होंगी। निश्चित ही, इससे न केवल सहयोगात्मक संघीय ढांचे को बल मिलेगा, बल्कि इस ढांचे में प्रतिस्पर्धा को भी प्रोत्साहन मिलेगा, जो कि नियोजन की सफलता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

नई 'बॉटम-अप" व्यवस्था के तहत अब आर्थिक विकास की प्रक्रिया में राज्यों को भी अपना पक्ष रखने का मौका मिलेगा। वास्तव में नीति आयोग की प्रेस रिलीज में तो यहां तक कहा गया था कि उद्योग और सेवा क्षेत्र में अब सरकार का हस्तक्षेप घटेगा और आर्थिक रूप से जीवंत और सक्रिय समूहों को ध्यान में रखते हुए कानून-निर्माण पर जोर दिया जाएगा। साफ है कि नीति आयोग आर्थिक विकास के एक नए भारतीय मॉडल को सामने रखने जा रहा है।

अलबत्ता कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनका जवाब दिया जाना अभी शेष है, जैसे कि पंचवर्षीय व वार्षिक योजनाओं का निर्धारण अब भी परिमाणात्मक मॉडल के तहत किया जा रहा है, योजनागत व गैर-योजनागत व्ययों का भेद अभी तक बरकरार है, राज्यों के योजना आयोगों व मंडलों का क्या होगा, नीति आयोग के समक्ष राष्ट्रीय विकास परिषद की क्या भूमिका होगी, योजना आयोग के विशालकाय स्टाफ का क्या होगा, क्या इन तमाम कर्मचारियों को बरकरार रखते हुए नए लोगों की नियुक्ति की जाएगी, आदि-इत्यादि। इन सवालों के जवाब ही तय करेंगे कि नीति आयोग आखिरकार नई बोतल में पुरानी शराब नहीं है।

(लेखक पूर्व कैग और पेट्रोलियम सचिव हैं)