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विकास का विद्रूप- सुनील

राहुल गांधी ने पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के नौजवानों को फटकारते हुए जब कहा कि कब तक महाराष्ट्र में भीख मांगोगे और पंजाब में मजदूरी करोगे, तो कई लोगों को यह बात नागवार गुजरी। उनकी भाषा शायद ठीक नहीं थी। आखिर देश के अंदर रोजी-रोटी के लिए लोगों के एक जगह से दूसरी जगह जाने को भीख मांगना तो नहीं कहा जा सकता। वे अपनी मेहनत की रोटी खाते हैं, भीख या मुफ्तखोरी की नहीं।

अलबत्ता राहुल गांधी आधुनिक भारत की एक बड़ी समस्या की ओर भी इशारा कर रहे हैं। हमारा विकास कुछ इस तरह हुआ है कि रोजगार और समृद्धि देश के कुछ हिस्सों तथा महानगरों तक सीमित हो गई है। बाकी हिस्से अब भी पिछड़े हैं, जहां रोजगार नहीं है। देहातों में तो हालत और खराब है। बेकारी के कारण वहां मुर्दनी छाई हुई है और भारी पलायन हो रहा है। दूसरी ओर नगरों-महानगरों में भीड़ बढ़ती जा रही है तथा वहां झोपड़पट्टियों की तादाद विस्फोटक तरीके से बढ़ रही है।

सिर्फ उत्तर प्रदेश-बिहार ही नहीं, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, उत्तराखंड, तेलंगाना और विदर्भ से भी बड़ी संख्या में नौजवान रोजगार की तलाश में बाहर जाते हैं। मुंबई, सूरत, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई जहां भी काम मिले, वे निकल पड़ते हैं। कई बार उनके साथ धोखा होता है। पूरी मजदूरी नहीं मिलती, वे खुले आसमान के नीचे या गंदगी के बीच नरकतुल्य झुग्गियों में रहते हैं। पुलिस उन्हें तंग करती है, दुर्घटना में घायल होने पर ठेकेदार ठीक से इलाज नहीं कराता। कई बार वे बेमौत मारे जाते हैं और घरवालों को खबर भी नहीं होती। पिछले दिनों यमुना एक्सप्रेस-वे के निर्माण में लगे इलाहाबाद के मजदूरों पर रात में सोते समय जेसीबी मशीन चढ़ जाने की मार्मिक खबर आई थी।

पिछले दो सौ वर्षों के दौरान कुटीर उद्योग-धंधों के नष्ट होने का नतीजा हुआ है कि खेती छोड़कर गांवों में कोई काम नहीं बचा है।घाटे का सौदा होने के कारण खेती में भी संकट है। यह आधुनिक पूंजीवादी विकास से उपजा बुनियादी संकट है, जो मनरेगा जैसी योजनाओं से न हल हो सकता था और न हुआ। गांवों से पलायन इसलिए भी बढ़ रहा है कि वहां शिक्षा और इलाज की व्यवस्था या तो है नहीं, या बुरी तरह चरमरा गई है। कभी-कभी लोग भोलेपन से सोचते हैं कि इलाके में कोई कारखाना लग जाएगा, तो उन्हें वहीं पर रोजगार मिलने लगेगा। कारखाने को ही विकास का पर्याय मान लिया जाता है। जबकि ऐसे मामलों में कुछ ठेकेदारों, व्यापारियों और दलालों को छोड़ बाकी लोगों को निराशा हाथ लगती है।

मध्य प्रदेश में रीवा के पास एक कारखाने का अनुभव इस मामले में बड़ा मौजूं है। करीब ढाई दशक पहले इस कारखाने के लिए जमीन लेते समय ग्रामीणों को रोजगार, विकास और खुशहाली के सपने दिखाए गए थे, लेकिन दैनिक मजदूरी पर कुछ चौकीदारों को लगाने के अलावा उन्हें रोजगार नहीं मिला। विकास तो दूर, कारखाने के प्रदूषण और चूना-पत्थर खदानों के विस्फोटों से लोगों का जीना हराम हो गया। ज्ञापन देते-देते थक जाने पर तीन साल पहले उन्होंने रोजगार और प्रदूषण रोकथाम की मांग को लेकर आंदोलन किया। उन पर गोली चली, जिसमें एक नौजवान मारा गया। वह सूरत में काम करता था और छुट्टी में घर आया था। सवाल यह है कि जिस गांव की जमीन पर कारखाना बना, वहां के नौजवानों को काम की तलाश में हजारों किलोमीटर दूर क्यों जाना पड़ रहा है।

दरअसल आधुनिक कारखानों से रोजगार की समस्या कहीं भी हल नहीं होती। कारखानों से रोजगार का सृजन जितना होता है, पारंपरिक आजीविका स्रोतों का नाश उससे ज्यादा होता है। औद्योगिक क्रांति के दौर में भी ब्रिटेन और पश्चिमी यूरोप की रोजगार समस्या गोरे लोगों के अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका और एशिया में बस जाने से हल हुई, कारखानों से नहीं। अब जो नए कारखाने लग रहे हैं, उनमें मशीनीकरण के चलते रोजगार और भी कम मिलता है। मशीन ने खेती में भी रोजगार कम कर दिए हैं। हारवेस्टर और ट्रैक्टर क्रांति ने भूमिहीन गरीबों और प्रवासी आदिवासी मजदूरों का रोजगार छीन लिया है। बल्कि इस समय चाहे वे लंदन के दंगे हों, वॉल स्ट्रीट पर कब्जे का आंदोलन हो या अरब जनक्रांतियां-सबके पीछे बेरोजगारी-गरीबी से उपजी कुंठा, अनिश्चितता और असंतोष है।

क्या कोई ऐसा तरीका नहीं हो सकता, जिससे लोगों को अपने जिले में, अपने घर के पास या अपने गांव में ही रोजगार मिलने लगे? जरूर हो सकता है, किंतु इसके लिए हमें राहुल गांधी नहीं, एक दूसरे गांधी की ओर देखना पड़ेगा, जिसे हम दो अक्तूबर तथा 30 जनवरी की रस्म अदायगी के अलावा भूल चुके हैं। इसके लिए हमें आधुनिक विकास की चकाचौंध से खुद को मुक्त करना होगा। शहर के बजाय गांव को, मशीन की जगह इनसान को और कंपनियों की जगह जनता को विकास के केंद्र में रखना होगा। गांवों को पुनर्जीवित कर छोटे उद्योगों और ग्रामोद्योगों को महत्व देना होगा।

यदि हम चाहते हैं कि इस दुनिया में सबको सम्मानजनक रोजगार घर के पास मिले, सबकी बुनियादी जरूरतें पूरी हों, कोई भूखा या कुपोषित या अनपढ़ न रहे, इलाज के अभाव में कोई तिल-तिलकर न मरे, अमीर-गरीब की खाई चौड़ी होने के बजाय खतम हो, तो हमें विकास की पूरी दिशा बदलनी होगी। अफसोस की बात है कि राहुल गांधी या नीतीश कुमार, मायावती या मुलायम सिंह, किसी के पास इसकी समझ या तैयारी नहीं दिखाई देती।