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विकास की छांव को तरसता मुंडा का गांव

सूबे के विकास का नक्शा तैयार कर रहे झारखंड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा का अपना गांव बदहाल है.जीएस सिंह के साथ अनुपमा की रिपोर्ट

सरायकेला-खरसावां. झारखंड और देश के बाहर इस इलाके की पहचान प्रसिद्ध छउ नृत्य कला के लिए है. यहां के छउ नृत्य गुरु पद्मश्री केदार साहू की ख्याति दुनिया भर में हुई. लेकिन अब सरायकेला-खरसांवा की एक और पहचान भी है. यह राज्य के वर्तमान मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा का विधानसभा क्षेत्र है. यह मुंडा का गृहक्षेत्र भी है. जिला मुख्यालय से 20 किलोमीटर की दूरी पर बसा है उनका गांव. गांव का नाम है खिजूरदा.

जब मुख्यमंत्री का ही गांव है तो सियासत से गहरा जुड़ाव होगा, यह सहज धारणा बनती है. लेकिन यहां पहुंचने पर यह धारणा बदल जाती है. न तो यह सियासी गांव है, न ही पूरे प्रदेश के लिए विकास का नया मॉडल तैयार करने में लगे अर्जुन मुंडा के खाके में फिट बैठता विकसित गांव. जंगलों-पहाड़ों के बीच मुफलिसी, गरीबी, लाचारी, अंधकारमय भविष्य और अंधेरगर्दी... सब कुछ वैसा ही है जैसा झारखंड के ज्यादातर गांवों में. विकास के नाम पर बिजली है, सड़क है लेकिन एक बड़ी आबादी की आंखें निराशा के गहरे गर्त में समाई हुई दिखती हैं.

दुर्दशा खिजूरदा में लगभग सभी घर कच्चे हैं. इनमें से कई तो पिछले या इस साल हुई बरसात में ढह गए

खिजूरदा गांव में करीब 60-65 घरों की बसाहट है. आबादी लगभग पांच सौ. खेती-किसानी और मजदूरी लोगों की आजीविका का साधन है.  दुर्दशा लोगों को इसलिए भी चुभती है कि सूबे का मुखिया इसी गांव का है. खिजूरदा के एक बुजुर्ग कहते हैं, 'इस गांव के अर्जुन न होते तो यह दुख इस कदर पहाड़ की तरह नहीं लगता. कम से कम संतोष रहता कि अन्य गांवों की तरह ही हमारी भी दुर्दशा है लेकिन अर्जुन का गांव है और कुछ भी नहीं हुआ. यहां तो उम्मीदें बंधती रहती हैं और टूटती रहती हैं.' वे आगे कहते हैं, 'इस गांव में जब अर्जुन पैदा हुए थे तो हममें से किसी को यह अंदाजा नहीं था कि गुदड़ी के लाल साबित करेंगे खुद को. इस गांव की गलियों से निकलकर एक दिन सूबे के मुखिया बन जाएंगे. जिस दिन उन्हें मुख्यमंत्री का पद मिला था, लोगों की आंखों में सपने जगे थे. उस रोज से ही कायाकल्प का इंतजार अब भी है.'

अब जरा गांव की स्थिति की बानगी सुनिए. खिजूरदा में एक भी मकान पक्का नहीं है. सारे के सारे मकान कच्चे और मिट्टी के हैं. एकाध घरों के छप्पर को खपड़ा नसीब है. बाकी सब के सब फूस के ही हैं. गांव की लगभग 90 फीसदी आबादी बीपीएल के दायरे में है, लेकिन हकदार होने के बावजूद उसे आज भी एक अदद लाल कार्ड के लिए इंतजार करना पड़ता है. मुश्किलों का पहाड़ यहीं खत्म नहीं होता. गरमी के दिनों में जब गांव के चारों चापाकल जवाब दे देते हैं तो पीने के पानी का संकट हो जाता है. यहां राशन की दुकान नहीं है, लिहाजा लोग पांच किलोमीटर का सफर तय करके रामपुर नाम के गांव से राशन, मिट्टी का तेल आदि लाते हैं. उस पर भी गांववाले कहते हैं कि जितना अनाज मिलना चाहिए उतना डीलर नहीं देते हंै. गांव के ही शंकर नायक कहते हैं, 'अर्जुन मुंडा कहते हैं कि अब राज्य में ऐसी ई-व्यवस्था बनेगी जिससे लोगों के फिंगर प्रिंट से मुख्यमंत्री को पता चल जाएगा कि कितना अनाज किस उपभोक्ता को मिला. यह मुंह चिढ़ाने वाला एलान लगता है. उनके अपने गांव के लोग लाल कार्ड, वृद्धा पेंशन, इंदिरा आवास आदि के लिए तरस रहे हैं और वे इससे बेपरवाह ई-व्यवस्था लागू करवाने में लगे हुए हैं.'

यह अपने लोगों का दर्द है. अपने लोग ज्यादा अधिकार रखते हैं तो उनका दर्द भी गहरा है. उस गांव के लोगों को यह बताने की जहमत हम नहीं उठाते कि बिहार में जब लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बने थे तो उनके गांव फुलवरिया में स्वास्थ्य केंद्र, डाकघर, बैंक, प्रखंड कार्यालय, हेलीपैड आदि सब देखते ही देखते बन गया था. बिहार के ही वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गांव कल्याण बिगहा में चमचमाती काली सड़कें राजधानी पटना की सड़कों को भी मुंह चिढ़ाती हैं. नीतीश के गांव कल्याण बिगहा में बैंक, आईटीआई, इंटर काॅलेज, हाई स्कूल, मिडिल स्कूल, आधुनिक इंडोर स्टेडियम जैसी कई सुविधाएं आ गई हैं. यह सब बताने पर उनका दर्द और बढ़ जाता क्योंकि अर्जुन मुंडा के गांव के लोग आईटीआई और इंटर काॅलेज क्या, एक मध्य विद्यालय तक के लिए अब तक तरस रहे हैं. शिक्षा केंद्र के नाम पर गांव में केवल एक प्राथमिक विद्यालय है, जिसमें चार शिक्षक जैसे-तैसे शिक्षण-प्रशिक्षण का दायित्व निभाते हैं या गांववालों की ही भाषा में कहें तो खानापूरी करते हैं. अर्जुन मुंडा तो ग्रैजुएट हो गए लेकिन उनके बाद इस गांव में अब तक कोई भी ग्रैजुएट नहीं हो सका है. हां, दो युवा मिलते हैं, जो अभी ग्रैजुएशन की पढ़ाई कर रहे हैं.

विडंबना गांव में ही खत्म नहीं होती. खरसावां जिले की भी बात करें तो उच्च शिक्षा के लिए यहां एक ही कॉलेज है. अर्जुन मुंडा के गांव से लगभग 22 किलोमीटर दूर. गांव के युवा लखन टूडू का मानना है कि गांव से यातायात का सुगम साधन होता तो गांव के कई लोग ग्रैजुएट हो जाते. लखन कहते हैं, 'अर्जुन थोड़ा भी ध्यान रखते तो आज हम भी थोड़े स्वाभिमान से भरे होते लेकिन खोखले आधार पर मुख्यमंत्री के गांव का वासी होने का स्वाभिमान नहीं जग पाता.' लखन आगे कहते हैं, 'हम लोगों ने बड़े सपने देखना छोड़ दिया है. कम से कम हमारे यहां के प्राथमिक विद्यालय में जितने शिक्षकों की जरूरत  है, अगर वही पूरी हो जाती तो गांव की आने वाली पीढि़यों को मुकम्मल बुनियादी शिक्षा तो मिलती लेकिन वह भी नहीं है.'

राशन की दुकान नहीं है. लोग पांच किमी का सफर तय करके रामपुर गांव से राशन और मिट्टी का तेल लाते हैं

खिजूरदा में हमने और भी कई लोगों से बातचीत की. लोगों ने जो बताया उसका लब्बोलुआब यही था कि उनके अर्जुन राज्य का भविष्य गढ़ रहे हैं जबकि उनके अपने गांव में भविष्य पीछे जा रहा है. गांव में सबकी अपनी-अपनी पीड़ा है. अपनी-अपनी आकांक्षाएं हैं, अपने अर्जुन से शिकायतें हैं. रमेश हजाम कहते हैं,  'इस साल बारिश में गांव के कई लोगों के घर गिर गए. ये लोग बेघर हो गए हैं.' रमेश एक-एक कर घर गिरे लोगों का नाम उंगलियों पर गिनवाते हैं. गिरे हुए घरों को दिखाते हुए कहते हैं, 'यह चिमटु का घर है, जो पिछले साल बारिश में गिर गया था. इस घर के लिए सरकारी अधिकारियों के यहां कई बार आवेदन दे चुके हंै चिमटु लेकिन एक साल बीत जाने के बाद भी किसी पदाधिकारी ने कोई सुध नहीं ली. आज भी चिमटु का घर नहीं बन पाया है. मुख्यमंत्री के गांव के मामले का भी अधिकारी क्यों नोटिस नहीं लेते...!'  अपनी रौ में रमेश उन लोगों के नाम गिनाते रहते हैं जिनका घर ढह गया है. शुुकरा मंाझी, उपेंद्र मांझी, मंदरा प्रमाणिक, गौरी शंकर आदि. बात करते-करते वे लगभग याचना की स्थिति में आ जाते हैं. रुआंसे होकर कहते हैं, 'आप लोग आए हैं तो उम्मीद है हमारी बात वहां तक पहुंचेगी. आप लोग ही उन्हें बताइए कि अपने गांव पर जरा ध्यान दे दें. हमारा भी हक है उन पर.'

खिजूरदा में लोगों की यह भी शिकायत है कि अर्जुन मुंडा यहां केवल वोट के वक्त आते हैं. और आश्वासन देते हैं. कुछ आक्रोशित स्वर में कहते हैं कि आने वाले चुनाव में उनको वोट नहीं देंगे क्योंकि चुनाव के बाद वे एक बार भी न गांव की सुध लेने आए और न ही चुनाव जीतने के बाद उन्होंने गांव के लिए कुछ किया. लोगों का कहना है कि जब माटी का बेटा ही अपनी मातृभूमि का दर्द  समझने की कोशिश नहीं कर रहा तो वे कब तक एक हाथ से ताली बजाते रहें.

खरसावां जिले के कलेक्टर रविंद्र अग्रवाल इस बारे मंे बात करने पर कहते हैं कि उनकी नियुक्ति हाल ही में हुई और इस बारे में उनके पास कोई जानकारी नहीं है. वे यह भी कहते हैं कि वे इस मुद्दे की पड़ताल करेंगे और जो भी जरूरी होगा किया जाएगा.
उधर, इस इलाके से पहले विधायक रह चुके और मुंडा के लिए सीट खाली करने वाले मंगल सिंह सोय कहते हैं कि जितनी सुविधा दी जाए लोगों की इच्छाएं उतनी ही बढ़ती चली जाती हैं. वे आगे यह भी कहते हैं कि खिजूरदा के लोग हर बार यह नाटक करते हैं और वोट भी उन्हीं को देते हैं.

हम अर्जुन मुंडा के गांव से यह कहकर निकलते हैं कि कोशिश करेंगे आपकी बात अर्जुन मुंडा तक पहुंचे. लोग उम्मीद भरी आंखों के साथ हमें विदा देते हैं. वैसे भी उम्मीद पर दुनिया कायम है.