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विकास के कोलाहल में- अरविन्द कुमार सेन

देश में सामाजिक-आर्थिक और जातीय जनगणना (एसइसीसी) के अलग-अलग पहलुओं पर बहस चल रही है। कुछ जानकार इस तथ्य की तरफ इशारा कर रहे हैं कि इस जनगणना ने भारतीय अर्थव्यवस्था के कई स्याह हिस्सों पर रोशनी डाली है। विकास के कोलाहल में स्याह हिस्सों को कोई भी सरकार नहीं देखना चाहती। चाहे वह कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार रही हो, जिसने इस जनगणना के आंकड़ों को जानबूझ कर दबाए रखा या भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार हो, जिसने अपनी सहूलियत के हिसाब से जनगणना के केवल चुनिंदा हिस्सों को सार्वजनिक किया है।
जनगणना का एक अहम हिस्सा, जिसमें जातीय आधार पर संसाधनों के वितरण और उन तक विभिन्न जातीय समूहों की पहुंच का जिक्र है, सरकार ने संभावित बवंडर को टालने की गरज से दबा लिया है। मगर इस जनगणना ने हमारी अर्थव्यवस्था की एक कमजोर कड़ी- ग्रामीण क्षेत्र में दबे-कुचले समुदाय की कड़वी सच्चाई की तरफ नीति-निर्माताओं का ध्यान खींचा है। एसइसीसी में ग्रामीण क्षेत्र के बारे में कई असहज करने वाले तथ्य सामने आए हैं। यहां हम महज एक सबसे बड़े तथ्य पर गौर करते हैं। एसइसीसी के मुताबिक आधे से ज्यादा ग्रामीण परिवार (तकरीबन 51.14 फीसद) अपनी रोजी-रोटी अस्थायी मजदूरी/ आकस्मिक मजदूरी (कैजुअल लेबर) से कमाते हैं।
यह तथ्य एक ऐसा आईना है, जिसमें हम ‘भारत की आत्मा गांवों में बसती है' जैसे नारों से देश चला रही सरकारों के ग्रामीण विकास के दावों की हकीकत देख सकते हैं। आधी ग्रामीण जनता के पास काम से जुड़ा कोई अधिकार नहीं है। नौकरी की सुरक्षा नहीं है। आमदनी की निश्चितता नहीं है। अस्थायी मजदूरी का यह भी मतलब है कि काम की परिस्थितियां बेहद खराब रहती हैं और मजदूरों का चरम सीमा तक शोषण किया जाता है। सबसे बड़ी विडंबना है कि आजादी के बाद से बीते सात दशकों के दरम्यान अस्थायी मजदूरी करने वाले ग्रामीण परिवारों की संख्या में इजाफा हुआ है, जो इसको रेखांकित करता है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दम भरने वाला भारत ग्रामीण विकास की राह पर कितना पीछे फिसल गया है।
दरअसल, ग्रामीण भारत जिस गहरे संकट के मुहाने पर बैठा हुआ है, उसकी अभिव्यक्ति किसानों की आत्महत्या से लेकर खेती की दुर्दशा के रूप में सामने आती रही है। एसइसीसी के आंकड़ों ने पहले से जगजाहिर इस संकट पर दुबारा मुहर लगाते हुए बताया है कि सरकारी टोटकों से ग्रामीण संकट का मर्ज खत्म होने के बजाय गहराता जा रहा है। मसलन, तीन मसलों पर निगाह डालें, जिनके बारे में नई सरकार का दावा है कि वे उसकी प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर हैं। पहला, खेती का संकट, दूसरा जमीन का मसला और तीसरा भारत में निर्माण (मेक इन इंडिया) के जरिए ज्यादा से ज्यादा युवाओं को रोजगार। तीनों संकट एक-दूसरे से जुड़े हैं और एक समस्या की काली छाया सीधे दूसरे पर पड़ती है।
भारतीय कृषि की सबसे बुनियादी कमजोरी के बारे में सब जानते हैं। देश की आबादी का बावन फीसद हिस्सा रोजी-रोटी के लिए आज भी कृषि क्षेत्र पर निर्भर है, मगर इस क्षेत्र का भारत की अर्थव्यवस्था में योगदान महज तेरह फीसद के आसपास रह गया है। भारतीय अर्थव्यवस्था के प्राविधिक आंकड़ों के मुताबिक वित्तवर्ष 2015 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) आधारित विकास दर 7.3 फीसद रहेगी, मगर कृषि क्षेत्र की विकास दर महज 0.2 फीसद रहने का अनुमान है। लब्बोलुआब यह कि भारतीय कृषि क्षेत्र नामक रेलगाड़ी पर उसकी क्षमता से कई गुना ज्यादा लोग सवार हैं।
क्षमता से ज्यादा लोग होने के कारण अक्सर दुर्घटनाएं और बड़े हादसे होते रहते हैं। बचाव का तरीका है कि नई पटरियां बिछा कर उन पर नई रेलगाड़ियां चलाई जाएं, जो कृषि क्षेत्र की रेलगाड़ी का अतिरिक्त यात्रीभार कम कर दें। दूसरे शब्दों में कहें तो कृषि क्षेत्र पर टिकी अतिरिक्त आबादी को अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों में खपाया जाना चाहिए। भारत में ऐसा नहीं हुआ है। लिहाजा, संकट बढ़ता जा रहा है और विस्फोट की सीमा तक पहुंच चुका है। बीते चार सौ सालों के दरम्यान आधुनिक विकास का जो मॉडल बना है, उसके अनुसार कृषि क्षेत्र की आबादी को पहले नगरीय क्षेत्रों में बसे उद्योग-धंधों में लगा कर कृषि और ग्रामीण क्षेत्रों का भार कम किया जाता है। भारतीय अर्थव्यवस्था ने बीच की कड़ी छोड़ कर सीधे तीसरी कड़ी यानी सेवा क्षेत्र की तरफ कदम बढ़ा रखे हैं।
गांव से शहर का यह संक्रमण दिशाहीन नीतियों के कारण और गहरा गया है। ग्रामीण इलाकों में रोजी-रोटी कमाने का परंपरागत पुराना ढांचा टूट गया और नया खाका तैयार नहीं है। दोनों तरफ संकट है, लेकिन सबसे ज्यादा दबाव के कारण कृषि क्षेत्र में यह साफ तौर पर दिखाई दे रहा है। कृषि क्षेत्र पर अधिक भार होने के कारण जोतों का आकार भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी कम होता जा रहा है। जोतों के छोटे आकार के कारण (भारत में जोतों का औसत आकार 1.15 हेक्टेयर है और पचासी फीसद से ज्यादा किसानों के पास दो हेक्टेयर से कम भूमि है) खेती में लागत भी नहीं निकल पाती। अधिकतर भारतीय फसलें प्रति हेक्टेयर उत्पादकता के पैमाने पर वैश्विक मानकों का आधा भी नहीं हैं। एक और गौरतलब बात यह है कि आधे से ज्यादा खेती वर्षा-आधारित क्षेत्र में होती है, जिसका उत्पादकता ग्राफ मानसून के साथ ऊपर-नीचे होता है। ये सारी समस्याएं मिल कर बड़ा रूप ले लेती हैं और कृषि संकट की आग में घी का काम करती हैं।
जमीन का संकट और विनिर्माण क्षेत्र या गैर-कृषि क्षेत्र में नौकरियां पैदा करने का संकट एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। संसाधन के नाम पर ग्रामीण भारत में जमीन के अलावा कुछ नहीं है और मुश्किलों में सही, लोग जमीन के सहारे ही पेट पाल रहे हैं। सरकार और कारोबारी जमीन लेना चाहते हैं, जमीन का उपयोग प्रारूप बदल कर उस पर आवासीय या गैर-आवासीय परिसंपत्तियां बनाते हैं, मगर किसानों को उचित मुआवजा और नौकरी नहीं देना चाहते। भारत के विनिर्माण क्षेत्र की जीडीपी में हिस्सेदारी महज सोलह फीसद है और कृषि क्षेत्र में लगी आबादी के लिए पर्याप्त मात्रा में नौकरियां पैदा करने में नाकाम है। ऐसे में जमीन का संकट असल में नौकरी का संकट भी है, क्योंकि हम एक देश के रूप में कृषि क्षेत्र में लगी आबादी के लिए गैर-कृषि क्षेत्र या उद्योगों में रोजगार के समुचित अवसर पैदा करने में अब तक विफल साबित हुए हैं।
गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार उपलब्ध कराए बिना खेती की जमीन अधिग्रहीत करना दरअसल दोहरा अन्याय है। खेती में लगे लोगों के पास कृषि कार्य के अलावा कोई कौशल नहीं है। कृषि योग्य जमीन के साथ उनका कौशल भी चला जाता है और तथाकथित वैश्वीकृत आधुनिक सेवा क्षेत्र में उनके पास एक भी बेचने योग्य कौशल (सेलेबल स्किल) नहीं रह जाता। कष्टदायी संक्रमण में फंसी इस पीढ़ी के कौशल विकास की सरकार के पास कोई योजना नहीं है। नई सरकार के नुमाइंदों का कहना है कि ‘स्किल इंडिया' और ‘मेक इन इंडिया' से लोगों को गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार मुहैया कराया और इससे कृषि क्षेत्र का दबाव कम किया जाएगा। सवाल है कि सरकार कैसा कौशल विकास करना चाहती है और किस तरह का रोजगार तथाकथित ‘मेक इन इंडिया' अभियान से पैदा होने की संभावना है।
दरअसल, स्किल इंडिया और मेक इन इंडिया की तह में जाकर पड़ताल करें तो रेत के सिवाय कुछ हाथ नहीं लगता है। पहला मसला तो यह है कि सरकार विदेशी पूंजी को खुलेआम न्योता दे रही है कि आओ और भारत में निर्माण करो (कम एंड मेक इन इंडिया)। पूंजी का बुनियादी सिद्धांत है कि उसको वहां निवेशित किया जाता है, जहां कम से कम लागत में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाया जा सके। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बड़ी पूंजी ने जापान और जर्मनी का रुख किया, क्योंकि वहां लागत कम थी। 1980 के दशक में पूंजी ने चीन और दक्षिण कोरिया का रुख किया, क्योंकि वहां मजदूरी की दरें कम थीं। अब खबरें आ रही हैं कि चीन में मजदूर अधिक वेतन मांग रहे हैं। लिहाजा, वैश्विक पूंजी भारत जैसे देशों का रुख करने का मन बना रही है। मगर इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि जब भारत के मजदूर कम वेतन वाली अस्थायी या अनुबंध आधारित नौकरी के बजाय वाजिब वेतन की मांग करेंगे तो यह पूंजी अफ्रीका का रुख नहीं करेगी।
दूसरा, चीन और दक्षिण कोरिया ने जिस दौर में विनिर्माण उद्योग खड़ा किया उस वक्त दुनिया में विनिर्मित माल को खपाने की गुंजाइश थी। मगर आज यह संभावना नहीं है। वैश्विक अर्थव्यवस्था के मंदी के भंवर से निकलने के दूर-दूर तक आसार नहीं हैं। ऐसे में आज कोई अर्थव्यवस्था अगर निर्यात के बल पर विनिर्माण क्षेत्र का विकास करना चाहे तो यह संभव नहीं है। हमारे देश की अस्सी फीसद आबादी के पास दो जून की रोटी जुगाड़ करने लायक भी पैसा नहीं है। लिहाजा, अर्थव्यवस्था में खपत करने लायक आंतरिक मांग भी नहीं है। अगर पलक-पांवड़े से थोड़ा-बहुत विदेशी निवेश आता है, तब भी उससे हमारे, खासकर ग्रामीण भारत के त्रिस्तरीय संकट के खत्म होने के आसार बहुत कम हैं। केवल पूंजी की राह आसान बनाने पर केंद्रित आर्थिक नीतियां ग्रामीण भारत के संकटग्रस्त ढहते ढांचे को और तेजी से गिरा रही हैं।
अरविंद कुमार सेन