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विकास के मॉडल का सवाल- के पी सिंह

जनसत्ता 22 मई, 2014 : चुनाव प्रचार के दौरान विकास के बहुतेरे मॉडल विभिन्न राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों की ओर से प्रस्तुत किए गए। इससे पहले के चुनावों में भी विकास का कोई न कोई खाका पेश करके राजनीतिक दल मतदाताओं का विश्वास हासिल करते रहे हैं। इसके बावजूद ग्रामीण और दुर्गम पहाड़ी अंचलों में अधिकतर नागरिक आज भी स्वच्छ पेयजल और अन्य मूलभूत सुविधाओं के अभाव में जी रहे हैं। लगता है विकास का कोई भी मॉडल उनके काम नहीं आया है। या,वायदे करने वाले वायदों पर खरे नहीं उतरे हैं।

मिश्रित अर्थव्यवस्था पर आधारित नेहरू का विकास मॉडल शुरुआती दौर में सार्थक साबित हुआ था। नब्बे के दशक तक आते-आते मिश्रित अर्थव्यवस्था विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के दबाव में मनमोहन सिंह की उदारवादी नीतियों का शिकार हो गई। करीब एक दशक तक इन नीतियों के चकित कर देने वाले परिणाम आते रहे। संचार और सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रांति आई। परिवहन सुविधाएं उम्मीद से अधिक तेजी से विकसित हुर्इं। शहरीकरण और सेवा-क्षेत्र के विस्तार ने बाकी सभी क्षेत्रों को बहुत पीछे छोड़ दिया। इस प्रगति को देख कर योजनाकार और राजनेता दिग्भ्रमित-से हो गए। और शायद प्रगति के भूगोल को समझने में बहुत बड़ी चूक कर गए। निजीकरण की नीतियों ने अर्थव्यवस्था को नई दिशा देना शुरू कर दिया। समग्र और समन्वित विकास के वायदे धीरे-धीरे पीछे छूटते चले गए, जो नेताओं ने मतदाताओं से किए थे। इस प्रकार अर्थव्यवस्था के संक्रमण-काल में बहुमूल्य दस-पंद्रह साल गुजर गए और वर्ष 2014 के आम चुनाव ने दस्तक दे दी।

इस आम चुनाव का सबसे उल्लेखनीय पहलू यह रहा है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सुदूर गांवों में उन उपेक्षित वर्गों की दहलीज पर भी पहुंचा है, जो भारतीय लोकतंत्र के वास्तविक प्रहरी हैं। और जिनके लिए चुनावी घोषणापत्र में किया गया एक-एक वायदा मायने रखता है। मीडिया के कैमरे ने सब कुछ साफ-साफ दिखाया है। एक तरफ बहुमंजिला वातानुकूलित आशियाने तो दूसरी तरफ घास-फूस की झोंपड़ियों में जिंदगी काट रहे लोग। कहीं कंक्रीट की चमकती सड़कें तो कहीं पैदल चलने के लिए भी पगडंडियों को ढूंढ़ते नागरिक। विकास की इस सीमित और अंधी दौड़ में एक छोटे-से वर्ग को जरूर फायदा मिला है। पर आम नागरिक तथाकथित विकास के इस दौर में लगातार पिछड़ता चला गया है।

निजीकरण की अवधारणा ने बहुत थोड़े समय में ही यह साबित कर दिया है कि वह उपभोक्तावाद को बढ़ावा देकर अधिकतम लाभ अर्जित की परिकल्पना मात्र है। नव-उदारवाद की नीतियों का ही प्रतिफल है कि अमीर और गरीब के बीच की खाई लगातार बढ़ती जा रही है। अधिकतर देशी और विदेशी पूंजी निवेश अर्थव्यवस्था के उन्हीं क्षेत्रों में हो रहा है जहां मुनाफे की गुंजाइश है। उदारवादी अर्थव्यवस्था सीमित मध्यवर्ग और उच्चवर्ग को ही पोषित करती नजर आ रही है। गरीब तबका अर्थव्यवस्था के दायरे से बाहर हो गया लगता है। ऐसे में उन्हें तरह-तरह के लॉलीपॉप देकर सरकारें अपने दायित्व निभा देने का उपक्रम करती नजर आ रही हैं।

शासन करने वाले राजनेताओं को यह पता है कि मुख्यतया निम्नवर्ग के वोट से सरकारें बनती आई हैं। इसलिए पिछले लगभग दो दशक में इस वर्ग को खुश रखने के लिए एक-दूसरे प्रकार के मॉडल को आधार बना कर उन्हें वोट की राजनीति में प्रासंगिक रखने का प्रयास किया जा रहा है। यह सोच विकास के किसी भी मॉडल पर आधारित न होकर कल्याणकारी राज्य के दायित्वों का गुणगान करते हुए विकसित किया गया है। जन-कल्याण के नाम पर नागरिकों को निठल्ला बनाने और भिखारी की मानसिकता से ग्रस्त करने का यह मॉडल वोट बटोरने के लिए सार्थक हथियार बन सकता है, राष्ट्रीय विकास के लिए नहीं। लोगों को लगभग मुफ्त भोजन और घर के द्वार पर तथाकथित रोजगार देने की योजनाएं इसी मॉडल का प्रतीक हैं।

वर्ष 2009 के आम चुनावों में इस प्रकार की योजनाओं का मतदाताओं पर राजनीतिक असर भी दिखाई दिया था। इसकी संभावना कम है कि यह मॉडल आगे भी कारगर साबित होगा। वर्तमान विकास की अवधारणा कल्याणकारी नीतियों की आड़ में राजनीतिक मंतव्यों की दासी बन कर रह गई है। संरचनात्मक और ढांचागत विकास की योजनाएं धन के अभाव में धीरे-धीरे विकास मॉडल से गायब हो चुकी है। ऐसे में नौकरशाही में भ्रष्टाचार और राजनीति में स्वार्थ का बोलबाला हो जाना स्वाभाविक है।

लोक-लुभावन नारे, वायदे और योजनाएं काठ की हांडी की तरह होते हैं। एक बार चल जाते हैं, पर बार-बार नहीं। वास्तविक विकास ही स्थायी राजनीतिक सुरक्षा का आधार बन सकता है। इस बार के आम चुनाव ने सभी राजनीतिक पार्टियों को अपनी आर्थिक और सामाजिक नीतियों को फिर से परखने और उन्हें पुन: निर्धारित करने का अवसर प्रदान किया है। शेयर बाजार के उतार-चढ़ाव को प्रगति का पैमाना मान लेने की भूल कर रहे अर्थशास्त्रियों की आंखें अब खुल जानी चाहिए। देश एक समग्र और समन्वित विकास के मॉडल की प्रतीक्षा में है।

मूलभूत सुविधाओं के लिए बाट जोह रहा आम आदमी किसी भी सार्थक आर्थिक विकास मॉडल के केंद्र-बिंदु में होना चाहिए। सरकार हर व्यक्ति के घर-घर जाकर विकास नहीं कर सकती। यह जरूरी है कि जन-जन को विकास प्रक्रिया में भागीदार बनाया जाए, जो कि तभी संभव है जब आम नागरिक की आमदनी बढ़ा कर उसे अर्थव्यवस्था की धुरी बनाया जाए। इसके लिए न्यूनतम मजदूरी बढ़ाना और किसान की उपज का लाभकारी मूल्य निर्धारित करना महत्त्वपूर्ण हो जाता है। बिचौलियों को बीच से हटा कर कृषि उत्पादों के दाम नियंत्रित किए जा सकते हैं। काम करने वालों के लिए काम की कमी नहीं है, पर गैर-उत्पादक योजनाओं की समीक्षा करके खजाने को उत्पादोन्मुखी धंधों में लगाने की आवश्यकता है। गरीब की खरीद-क्षमता बढ़ने से अर्थव्यवस्था का आधार व्यापक बनेगा और मंदी की मार झेल रहे बाजार स्वत: पटरी पर लौट आएंगे।

शहरीकरण में जिस प्रकार का विकास हो रहा है उसमें सरकार की भागीदारी नगण्य है। पुरानी और मलिन बस्तियों को छोड़ कर, शहरी विकास प्रक्रिया में निजी क्षेत्र की भूमिका को और सशक्त बनाया जा सकता है। पुरानी बस्तियों को धीरे-धीरे नवीकरण का हिस्सा बना कर मूलभूत सुविधाओं का विकास किया जा सकता है।

जल प्रबंधन ऐसा विषय है जिसके माध्यम से ऊर्जा, पीने के पानी और सिंचाई के लिए पानी की व्यवस्था एक साथ की जा सकती है। दुर्भाग्यवश पिछले कई दशकों में इस ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। कहीं धन की कमी आड़े आती रही तो कहीं पर्यावरण संरक्षण के नाम का रोड़ा। इन बाधाओं को दूर करना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। नदियों को जोड़ने की अटलजी की योजना को जन-आंदोलन बनाने की आवश्यकता है।

हवाई जहाज की यात्रा सुलभ बनाने के लिए निजी क्षेत्र सदैव अग्रणी रहा है। इसलिए हर गांव-बस्ती को पक्की सड़क से जोड़ना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। परिवहन व्यवस्था किसी भी अर्थव्यवस्था की प्रगति के मूल्यांकन का प्रमुख आधार होती है। मिट्टी के कामों में रोजगार उपलब्ध कराने वाली योजनाओं में धन बहाने के बजाय पक्की सड़कों का ताना-बाना मजबूत बनाने की परियोजनाओं में रोजगार के अवसर पैदा किए जा सकते हैं।

रेत, बजरी, कोयला, सीमेंट और लोहे के भंडारों पर माफिया कुंडली मारे बैठा है। रही-सही कसर पर्यावरण संरक्षण के नाम पर उठाई जा रही आपत्तियों ने पूरी कर दी है। निर्माण गतिविधियां ठप होकर रह गई हैं। माफिया पर अंकुश लगा कर और पर्यावरण संरक्षण के प्रति प्रतिबद्धता को व्यावहारिक बना कर निर्माण प्रक्रिया को गति प्रदान करने की आवश्यकता है। इससे रोजगार के अवसर स्वत: ही उपलब्ध होंगे।

कल्याणकारी राज्य में लोगों के घरों तक पीने का स्वच्छ पानी पहुंचाना और घर-घर में शौचालय की उपलब्धता सुनिश्चित कराना राज्य का दायित्व होना चाहिए। इन कामों के लिए धन की कमी आड़े नहीं आनी चाहिए। ग्राम्य विकास की बाकी सभी परियोजनाएं पांच वर्ष और इंतजार कर सकती हैं।

उच्च शिक्षा के प्रसार में निजी क्षेत्र पहले ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। शहरों में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा ग्रहण करने की वर्तमान सुविधाएं संतोषजनक कही जा सकती हैं। पर ग्रामीण और दुर्गम क्षेत्रों में शिक्षा सुविधाएं अब भी अपर्याप्त हैं। वहां न तो स्कूल भवन हैं और न ही शिक्षक। इस ओर प्राथमिकता के आधार पर काम करने  की जरूरत है। लैपटॉप और टेबलेट बांटने वाली परियोजनाओं में धन की बर्बादी रोक कर हर गांव-बस्ती में जरूरत के अनुसार स्कूल खोल कर उनमें योग्य स्थानीय अध्यापकों की नियुक्ति सुनिश्चित करना उच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। एक पंचवर्षीय योजना में यह लक्ष्य हासिल कर लेना कोई दुष्कर कार्य नहीं है।

उच्च और व्यावसायिक शिक्षा मुट्ठी भर लोगों के मुनाफा कमाने का जरिया बन गई है। इन संस्थानों में अध्यापन का स्तर अत्यंत निम्न है। यह कहना गलत नहीं होगा कि इन शिक्षण संस्थानों से ऐसे छात्र पास होकर निकल रहे हैं जिन्हें किसी भी दृष्टि से स्नातक नहीं माना जा सकता। उच्च शिक्षा के स्तर को सुधारना सरकार के लिए एक गंभीर चुनौती है। इसके लिए भ्रष्ट पर्यवेक्षण और निरीक्षण प्रणाली को बदल कर नया सोच विकसित करने की जरूरत है।

चिकित्सा सुविधाओं का विस्तार किसी भी विकासशील व्यवस्था का लक्ष्य होना चाहिए। निजी अस्पतालों ने उच्च और उच्च-मध्यवर्ग की चिकित्सीय आवश्यकताओं के अनुरूप साधन उपलब्ध करा दिए हैं। पर आम लोगों के लिए चिकित्सा सुविधाओं का अत्यंत अभाव है। नब्बे प्रतिशत मरीजों को विशेषज्ञ डॉक्टरों की आवश्यकता नहीं होती। उनकी जरूरतों की पूर्ति के लिए मेडिकल शिक्षा और सुविधाओं के ताने-बाने को आवश्यकता के अनुरूप नया स्वरूप देने की जरूरत है।

लघु, मध्यम और भारी उद्योग में विदेशी और स्वदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए सरकारी प्रक्रिया को सरल और सुलभ बनाना होगा। व्यवसायियों और उद्योगपतियों को इंसपेक्टरी राज और भय के वातावरण से मुक्ति दिलाने की जरूरत है। फिजूल के आयात को नियंत्रित करने की आवश्यकता है। इस प्रकार के उपाय किए जाने चाहिए कि देश के संसाधन देश में ही रहें और परिष्कृत होकर ही विदेशी बाजार में पहुंचें।

किसी भी देश की अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए पांच वर्ष का कार्यकाल कम नहीं होता, पर यह काम इतना आसान भी नहीं है। सबसे पहले, वर्षों से स्थापित भ्रष्ट व्यवस्था ही अवरोध बन कर खड़ी होगी। जरूरत इस बात की है कि भ्रष्ट और गलत विकास अवधारणाओं की शिकार नौकरशाही और व्यवस्था को ऊपर से नीचे तक ठीक किया जाए। छोटे-छोटे लक्ष्य निर्धारित करके उनकी समयबद्ध समीक्षा की जाए। और यह तभी संभव होगा, जब एक कर्मशील नेतृत्व सच्ची भावना से देश की बागडोर संभालेगा। वर्ष 2014 के चुनावी मंथन से आम आदमी इसी प्रकार के विकास की उम्मीद रखता है। वरना जड़ता और अकर्मण्यता का हलाहल तो हरचुनाव के बाद जनता के हिस्से में आ ही रहा है।