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विकास के मॉडल पर कुछ विचार- रविभूषण

र्षों पहले गुन्नार मिर्डल ने ‘एशियन ड्रामा' में लिखा था- ‘औपनिवेशिक सत्ता-व्यवस्था के बिखराव और स्वतंत्र राष्ट्रीय राज्यों के स्वत: उभरने का यह अर्थ नहीं है कि इन भूतपूर्व उपनिवेशों में कोई बड़ा सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन हो.' यह आज भी सच है. स्वतंत्र भारत में कोई बड़ा सामाजार्थिक परिवर्तन नहीं हुआ है.

ब्रिटिश शासकों द्वारा निर्मित ढांचा, जिसे बदलने में नेहरू ने 1950-51 में अपनी असमर्थता प्रकट की थी और उस ‘साहस' के न होने की बात कही थी, जिसके बिना आर्थिक-राजनीतिक ढांचे में गुणात्मक बदलाव नहीं हो सकता. क्या तीन दशक पहले राष्ट्र की संप्रभुता, संसद की सर्वोच्चता, न्याय की विश्वसनीयता, नागरिक एवं मानव अधिकारों की रक्षा, संवैधानिक संस्थाओं की जिम्मेवारी, लोकतांत्रिक संस्थानों की कार्यकुशलता/पारदर्शिता, राजनीति की मूल्यवत्ता, प्रशासन की क्षमता, मीडिया की सत्यनिष्ठा आज की तरह ही थी या अब स्थिति अधिक विकट और शोचनीय है? क्या आज सब कुछ-विकास के नये उदारवादी मॉडल के बाद तिव्र गति से बिखर नहीं रहा है?

भारत-‘विकास' के जिस मॉडल पर अग्रसर है, वह सामान्य जन के लिए लाभकारी है या हानिकर? ‘विकास' का वर्तमान मॉडल दो दुष्ट त्रयियों-विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व व्यापार संगठन और निजीकरण, उदारीकरण, भूमंडलीकरण से जुड़ा हुआ है, जिसकी डोर अमेरिका के हाथ में है.

अब मोदी के ‘गुजरात मॉडल' और नीतीश कुमार के ‘बिहार मॉडल' की बात की जा रही है. अमर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्री ‘गुजरात मॉडल' की तुलना में ‘बिहार मॉडल' को महत्व दे रहे हैं. बिहार की जीडीपी की विकास दर (14.18 प्रतिशत) राष्ट्रीय विकास दर (पांच प्रतिशत) की लगभग तिगुनी है. गुजरात में जिस बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश हो रहा है, बिहार उससे बहुत पीछे है.

झारखंड के अलग राज्य बनने के बाद बिहार में न तो खनिज संसाधन हैं, न उद्योग-धंधे. क्या ‘विकास' बिना पूंजी निवेश के संभव नहीं है? देश में आर्थिक सोच और विकास के मॉडल को लेकर कोई तीखा द्वंद्व भले न दिखाई दे, पर द्वंद्व है. अमर्त्य सेन और जगदीश भगवती के विचार भिन्न हैं. अमर्त्य सेन समावेशी विकास की बात करते हैं, शिक्षा एवं स्वास्थ्य की बेहतरी को विकास के लिए आवश्यक मानते हैं, जबकि जगदीश भगवती तीव्र गति के आर्थिक विकास के पैरोकार हैं.

तीव्र गति के आर्थिक विकास का लाभ कॉरपोरेट घरानों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और पूंजीपतियों-उद्योगपतियों को प्राप्त होता है. क्या आज भारत के किसी पूंजीपति को ‘राष्ट्रीय पूंजीपति' की श्रेणी में रखा जा सकता है? समावेशी विकास के सिद्धांत और तीव्र गति के आर्थिक विकास में अंतर है. तीव्र गति के आर्थिक विकास का सिद्धांत आवारा और बदहवास पूंजी से जुड़ा है.

नरेंद्र मोदी और नीतीश के विकास मॉडल का यह अंतर है. सामान्य जनता के हित का विकास बिना कल्याणकारी राज्य की कल्याणकारी योजनाओं के संभव नहीं है. मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के सोच-विचार में थोड़ा ही सही, पर एक अंतर है. कांग्रेस अध्यक्ष होने के कारण सोनिया गांधी की चिंता में वोट है, जबकि मनमोहन सिंह की चिंता में वोट नहीं है.

वोट जनता देती है. कॉरपोरेट का संबंध नोट से है, वोट से नहीं. कॉरपोरेट घराने राज्य की कल्याणकारी योजनाओं के खिलाफ हैं. मोदी के प्रधानमंत्री बनने की बात पहले कॉरपोरेट घरानों ने की थी. एक ओर अमर्त्य सेन हैं और दूसरी ओर जगदीश भगवती, एक ओर नरेंद्र मोदी हैं और दूसरी ओर नीतीश कुमार. इसी प्रकार एक ओर मनमोहन सिंह हैं और दूसरी ओर सोनिया गांधी.

भारत में विश्व बैंक से जुड़े अर्थशास्त्रियों की कमी नहीं है. ट्रिकल डाउन थ्योरी का कोई अर्थ नहीं है. विकास के इस नये दौर में आर्थिक असमानता कहीं अधिक बढ़ी है. प्रेमचंद ने ‘महाजनी सभ्यता' (1936) को तमाम खराबियों की जड़ कहा था- ‘जहां धन की कमी-बेशी के आधार पर असमानता है, वहां ईष्र्या, जोर-जबरदस्ती, बेईमानी, झूठ, अभियोग-आरोप, वेश्यावृत्ति, व्यभिचार और सारी दुनिया की बुराइयां अनिवार्य रूप से मौजूद हैं.'

विकास के नये मॉडल, जिसे वैश्वीकरण मॉडल भी कहा जा सकता है, अपनाने के बाद बुराइयां घटी हैं या बढ़ी हैं? नरेंद्र मोदी के यहां विकास और हिंदुत्व दोनों जुड़े हुए हैं. वे एक साथ ‘हिंदू हृदय सम्राट' और ‘विकास पुरुष' हैं. यह धारणा कि पूंजी निवेश के बिना विकास असंभव है, खतरनाक है.

पूंजी निवेश के पीछे जो शर्ते होती हैं, उन पर हमारा ध्यान नहीं जाता. नरेंद्र मोदी का अर्थशास्त्र प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से बहुत भिन्न नहीं है. विकास की राजनीति के बाद चुनाव के समय जाति और धर्म की राजनीति क्यों होती है? भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह अमेरिका में मोदी को वीजा दिये जाने का माहौल बनाते हैं और 65 सांसद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को जब वीजा न देने की बात कहते हैं, तो इसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए, क्योंकि विकास का मौजूदा सिद्धांत एक अमेरिकी सिद्धांत है.

आज जब खिलाड़ियों की नीलामी और बिक्री हो रही है या ‘सब कुछ बिकाऊ है' का विचार गूंज रहा है, तो इसके पीछे भी आंशिक ही सही, कहीं न कहीं आर्थिक विकास को ही सब कुछ मान लेने वाली दृष्टि है.

विकास का यह दर्शन बुनियादी ढांचे और आधारभूत संरचनाओं पर समुचित ध्यान नहीं देता. जब तक स्वास्थ्य और शिक्षा के बुनियादी ढांचे पर ध्यान नहीं दिया जायेगा, तब तक विकास की बात करना धोखाधड़ी है. अगर मोदी को ‘विकास पुरुष' के साथ उनकी जाति तेली की भी बात मात्र पिछड़ा वोट प्राप्त करने के लिए की जाती है, तो विकास के इस रूप पर भी ध्यान देना होगा.

जाति, धर्म और विकास के मार्ग पर एक साथ कोई जादूगर ही चल सकता है. क्या यह विकास जन विरोधी, मानव विरोधी, पर्यावरण विरोधी और पृथ्वी विरोधी नहीं है? इस विकास का सहिष्णुता, नैतिकता और मनुष्यता से कितना संबंध है? जीवन-मूल्यों और मानव-मूल्यों की कीमत पर किया जानेवाला विकास घातक है.

1984 में ‘अमेरिकन एकेडमी ऑफ आर्ट्स एंड लेटर्स' में विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री कीनेथ गैलब्रेथ ने अपने संबोधन में कहा था कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इटली की तरह का ‘आर्थिक चमत्कार' नहीं हुआ. गैलब्रेथ इटली की आर्थिक सफलता का श्रेय उसकी कलात्मक परंपरा को देते हैं.

वे इटालियन उत्पाद को टिकाऊपन, गुणवत्ता तथा कम मूल्यों से न जोड़ कर उसके अभिकल्प (डिजाइन) को बेहतर मानते हैं. उनके अनुसार कला का आर्थिक जगत से कमजोर संबंध नहीं है. वे स्थायित्व और जीवन-शक्ति के प्रमुख स्नेत हैं. आज के दौर में सहिष्णुता का अभाव है.

अमर्त्य सेन नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में नहीं देखना चाहते और चंदन मित्र उन्हें राजनीतिक विचार न रखने की सलाह देकर उनसे ‘भारत रत्न' की उपाधि छीन लेने की बात कहते हैं. आर्थिक विकास के दूरगामी-बहुआयामी प्रभाव पड़ते हैं. वह हमारे नजरिये को बदल डालता है.