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विकास बनाम जातिवाद का द्वंद्व - विजय संघवी

गुजरात में चुनावी रस्साकशी चरम पर है। इस राज्य में अगर कांग्रेस की रणनीति पर गौर करें तो लगता है कि उसने सत्ता में वापसी की अपनी तमाम उम्मीदें जातिगत समीकरणों पर टिका दी हैं। गौरतलब है कि उसने तकरीबन चार दशक पूर्व 1980 में भी इस राज्य में जातिगत समीकरणों को साधते हुए पूर्ण बहुमत हासिल किया था। लेकिन कांग्रेस यह भूल रही है कि तब से अब तक गंगा में काफी पानी बह चुका है। वह कदाचित नहीं देख पा रही है कि तब और अब की युवा पीढ़ी की सोच व विचारों में काफी फर्क है। आज के युवा अपनी दो पीढ़ी पूर्व के लोगों के मुकाबले कहीं अधिक शिक्षित और समसामयिक सरोकारों के प्रति ज्यादा जागरूक हैं।


हैरानी है कि गुजरात विधानसभा चुनाव के लिए रणनीति तैयार करते वक्त कांग्रेस के रणनीतिकारों ने उन वजहों को देखने की भी जहमत नहीं उठाई, जिनके चलते नरेंद्र मोदी ने अभूतपूर्व जीत हासिल की और जिसके बाद कांग्रेस का अकल्पनीय पराभव शुरू हो गया। वे तो यह भी नहीं देख पा रहे हैं कि इस समय भारतीय जनता पार्टी में भी एक तरह का अंतर्द्वंद्व है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब भी अपने आर्थिक एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं। पिछले एक महीने के दौरान अपने चार गुजरात दौरों में उन्होंने ऐसी कई योजनाओं की शुरुआत या घोषणा की, जिनसे वंचित वर्ग को लाभ होगा। वहीं संघ से प्रेरित पार्टी का एक धड़ा लगातार हिंदुत्व के पुराने एजेंडे पर जोर दे रहा है। यहां पर चुनाव प्रचार के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भी भेजा गया। इस तरह पार्टी शायद यह सुनिश्चित करना चाहती है कि गुजरात की जीत किसी एक व्यक्ति की नहीं, वरन पूरी पार्टी की जीत लगे।


बहरहाल, जहां तक 1980 के चुनाव की बात है तो उस वक्त कांग्रेस की राज्य इकाई में कई विश्वसनीय नेता थे। उनका अपना राजनीतिक रसूख था, जिसके जरिए वे वोट जुटा सकते थे और उनके विरोध में ऐसी पार्टी थी, जिसने तीस माह से भी कम समय में सत्ता गंवा दी थी। उन चुनावों के तीन महीने पहले ही इंदिरा गांधी ने केंद्र की सत्ता में नाटकीय वापसी की थी। तब कांग्रेस ने जातीय समीकरण साधने के लिए 'खाम फॉर्मूला तैयार किया था, जिसके तहत क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिमों का ध्रुवीकरण किया गया था। उसका यह फॉर्मूला कामयाब तो रहा, लेकिन पार्टी इन जातियों/समुदायों को अपने पक्ष में एकजुट नहीं रख सकी और धीरे-धीरे यह समीकरण बिखर गया। कांग्रेस ने 1985 में भी जीत हासिल की, लेकिन उसके बाद बाद इस राज्य में पार्टी का जनाधार लगातार सिकुड़ता गया।


आज हालात बदल चुके हैं। आज की शिक्षित युवा पीढ़ी की सोच बिलकुल अलग है। आज के युवा पाटीदार समुदाय की आरक्षण की मांग को तवज्जो नहीं देते क्योंकि उन्हें पता है कि कोई भी सरकार इस स्थिति में नहीं है कि इस मांग को पूरा कर सके, चूंकि राज्य में आरक्षण की मात्रा पहले ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वीकृत स्तर को छू चुकी है। जहां एक ओर कांग्रेस सत्ता में आने पर पाटीदारों की मांग पूरी करने पर सहमत लगती है, वहीं दूसरी ओर राहुल गांधी जातीय समीकरणों को साधने में जुटे हैं। आरक्षण का मसला बड़ा नाजुक है। न भूलें कि संघ प्रमुख द्वारा कही गई आरक्षण की समीक्षा की बात किस तरह बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा के लिए भारी पड़ गई थी। आप खुद ही सोचिए कि भला अन्य पिछड़ी जातियां कांग्रेस के साथ क्यों जाना चाहेंगी, यदि वह उनके कोटे का एक बड़ा हिस्सा पाटीदारों को देने का वादा करती है? ऐसे में भाजपा को ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं है। उसे बस इन जातियों के लोगों में पनपते इस डर को हवा देनी है कि यदि उन्होंने चुनाव में कांग्रेस को वोट दिया कि वे आरक्षण के अपने लाभों को गंवा सकते हैं।


इसके अलावा कांग्रेस इस समस्या से भी जूझ रही है कि सालों से इस राज्य में विपक्ष में रहने के बावजूद उसका जनता से सीधा संपर्क नहीं है। वह भाजपा के साथ मीडिया के जरिए आरोप-प्रत्यारोप की जंग में उलझी है, जबकि उसे जमीनी हकीकत पहचानकर जनता से जुड़ते हुए उनके मुद्दों को उठाना चाहिए। राजनीतिक जंग प्रेस नोट या प्रेस कांफ्रेंस आदि के जरिए तो नहीं लड़ी जाती। न भूलें कि आंध्र प्रदेश में कांग्रेस नेता वायएस राजशेखर रेड्डी जनता से संपर्क स्थापित करने के लिए पांच साल तक गांव-गांव घूमे थे, तब जाकर वे 22 साल बाद इस दक्षिणी राज्य में अपनी पार्टी की सत्ता में वापसी कराने में सफल हुए थे।


गुजरात के ये विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए एक विकट चुनौती हैं। इसके पास न तो पुख्ता रणनीति या विकास का वैकल्पिक एजेंडा है, जिसके जरिए ये खुद को अपने प्रतिद्वंद्वी के मुकाबले बेहतर साबित कर सके और न ही प्रभावी सांगठनिक ढांचा या समर्पित कार्यकर्ता हैं। उसका अधिकांश कैडर विजिटिंग कार्ड पॉलिटिक्स में उलझा है। जैसे ही किसी को पार्टी में कोई पद मिलता है, वह तुरंत अपना नया विजिटिंग कार्ड छपवाने प्रिटिंग प्रेस की ओर भागता है, ताकि अपना सियासी रसूख दिखा सके।


हालांकि ये विधानसभा चुनाव सत्ताधारी भाजपा या फिर खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए भी आसान नहीं हैं। प्रधानमंत्री मोदी पिछले 40 महीनों से जिन आर्थिक नीतियों पर चल रहे हैं, वे गुजरात में कसौटी पर हैं, जो कि आर्थिक मसलों पर एक संवेदनशील राज्य है। नोटबंदी का इस राज्य पर गंभीर असर पड़ा क्योंकि नकदी की किल्लत के चलते कई छोटी इकाइयां ठप हो गईं। जीएसटी को लेकर भी यहां के लोगों के मन में बहुत गुस्सा है।

गुजरात मोदी का गढ़ माना जाता है। लेकिन इस राज्य में जिस तरह भाजपा-शासित दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्री भी प्रचार के लिए पहुंचे, वह जरूर हैरान करता है। गौरतलब है कि वहां मोदी के नेतृत्व में हुए पिछले तीन चुनावों में यहां तक कि पार्टी के बड़े नेताओं की सेवाएं लेने की भी जरूरत नहीं समझी गई थी। हालांकि इन मुख्यमंत्रियों के दौरों के कार्यक्रम चुनाव तारीखों के एलान के पहले ही तय हो चुके थे। फिर भी यह यकीन करना मुश्किल है कि प्रधानमंत्री मोदी गुजरात चुनाव प्रचार अभियान में उनकी भागीदारी के लिए सहमत हो गए, जबकि वे जानते हैं कि इनका आना आर्थिक सुधारों के उनके मुख्य एजेंडे से लोगों का ध्यान भटका सकता है। गौरतलब है कि पिछले चार-पांच वर्षों के दौरान मोदी ने अपनी किसी भी सार्वजनिक सभा में भाजपा से जुड़े विवादास्पद मुद्दों का जिक्र नहीं किया। बल्कि प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने लगातार गांधीजी द्वारा दिखाई राह पर चलने पर जोर दिया है और ऐसेपर्याप्त सबूत दिए जो कहते हैं कि विवादित मसले उनके दिमाग से कोसों दूर हैं। यह मोदी ही थे, जिन्होंने मंदिर से पहले शौचालय निर्माण की बात कही थी। हालांकि उन्होंने राम मंदिर नहीं कहा था, किंतु उनका आशय तो वही था। सत्ताधारी कैंप के प्रचार अभियान में यह विरोधाभास अंदरूनी तनाव का संकेत देता है।

 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)