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विचार की स्वतंत्रता का यह दंड - शीतला सिंह

कर्नाटक के प्रगतिशील वामपंथी विचारक, शोधकर्ता, विद्वान और हम्पी कन्नड़ यूनीवर्सिटी के पूर्व कुलपति 77 वर्षीय एमएम कलबुर्गी की उनके स्थानीय निवास पर गोली मार कर हत्या कर दी गयी. 

उनकी बेटी रूपादर्शी का कहना है कि मेरे पिता को ऐसे संगठनों से अपनी जान का खतरा था, जो जाति या सांप्रदायिकता पर उनके खुले विचारों को पचा नहीं पाते थे.

इसके पहले मंगलूर के बजरंग दल प्रमुख नेता भुवित सेट्टी ने अपनी ट्वीट में कहा था ‘पहले यूआर अनंतमूर्ति थे अब एमएम कलबुर्गी हैं.. हिंदुत्व का मजाक उड़ाओ और कुत्ते की मौत मरो, डियर केएस भगवान अब आपकी बारी है.' उनकी सफाई है कि मैंने सहज प्रक्रिया में अपना गुस्सा उतारा था, जिससे वे सावधान हो जायें. ठीक इसी प्रकार बंग्लादेश के एक ब्लॉगर की भी हत्या की गयी थी, जिसके विचारों को कट्टरपंथी पचा नहीं पाते थे.

हिंदुत्व को एक उदारपंथी विचार माना जाता है, जिसके अंतर्गत विभिन्न धाराओं के लोग शामिल हैं और धर्म के आधार पर परिभाषा में तो जैन, बौद्ध, सिख आदि को भी हिंदू ही माना जाता है. हालांकि, इतिहास की मानें, तो संघर्ष पहले भी होते रहे हैं. शैवों, वैष्णवों की लड़ाइयां तो ऐतिहासिक बन चुकी हैं. 

बौद्धों और जैनियों के खिलाफ जो घृणा अभियान चलाया गया था, उसका मूल तत्व यही था कि वे ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं करते थे. सिखों ने तो ग्रंथ यानी उसमें दिये हुए ज्ञान को सर्वोच्च स्वीकार किया था. लेकिन, भारत जैसे बहुजातीय, बहुधर्मी और बहुभाषाई देश में किसी एक मान्यता के आधार पर एकजुटता और समन्वय संभव ही नहीं है. इसलिए विचार भिन्नता को अवगुण नहीं, गुण के रूप में स्वीकार कर लिया गया है. वेद, शास्त्र, उपनिषद और पौराणिक ग्रंथों में भी भेदभाव और अंतर स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होता है. 

अब सवाल है कि सभी को जोड़ कर एक-साथ एकता के बंधन में कैसे रखा जाये? यह तभी संभव है, जब वैचारिक आग्रह के बजाय, उन्हें भी फलने-फूलने का अवसर मिले. इस समय देश में भगवानों की बाढ़ आयी हुई है और बेशुमार भक्तों वाले कई महारथी विभिन्न अपराधों के चलते जेलों में बंद हैं और कई अभी चर्चा में हैं.

अब प्रश्न उठता है कि क्या कोई निर्णायक विचारधारा व उसकी स्वीकार्यता संभव है? धर्म और आस्था के प्रश्न पर अलग मान्यता वालों को कितनी स्वतंत्रता, जीवन और अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए दी जायेगी, जिसे संविधान में भी मौलिक अधिकारों के रूप में स्वीकार किया गया है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संकुचित नहीं, बल्कि बहु आयामी है, और इसे उसकी विशेषता भी बताया गया है.

चारों वेदों को एक किसी खास दिशा का वाहक और एक मान्यता वाला नहीं कहा जा सकता. षड्दर्शनों में भी न्याय, सांख्य और वैशेषिक को अनीश्वरवादी करार दिया गया है. लेकिन उन्हें हिंदू धर्म की मान्यताओं से किसी ने अलग नहीं किया है. 

इसलिए मानना यही होगा कि जिस धर्म का निर्णायक कोई एक किताब, एक दर्शन, एक व्यक्ति नहीं, उसे एक उदार गुण के रूप में स्वीकार किया जाये या नहीं. इसलिए सवाल उठता है कि क्या ऐसी कोई मान्यता है, जिसे सभी लोग सहज रूप से स्वीकार कर लें या उन्हें दंड के बल पर जोड़ा जा सकता है?

स्वतंत्र चिंतन प्रक्रिया आज के युग की एक आवश्यक मान्यता है, जिसके आधार पर हम अच्छे भविष्य की कल्पना कर सकते हैं. इसलिए इसका मान्यताओं के आधार पर जब विभाजन होगा और विपरीत दृष्टिकोण वालों को समाप्त करने का अभियान चलेगा, तो इसमें यह तय ही नहीं रह जायेगा कि कब और किस पर हमला होनेवाला है.

कलबुर्गी की हत्या से कन्नड़ साहित्यकार चिंतित हैं. उनकी एकता की ही परिणति कहा जा सकता है कि सरकार ने भी इस घटना की जांच सीबीआइ से कराने का निश्चय किया है. 

लेकिन मूल प्रश्न तो यही होगा कि संविधान को हम कितना निर्णायक मानें, इसे शाश्वत नहीं कहा जा सकता, लेकिन लोकतंत्र में जब तक इसे परिवर्तित न किया जाये, तब तक इसको आदर देना हमारा कर्त्तव्य है. इसलिए उन प्रवृत्तियों पर अंकुश लगना चाहिए, जो असहनशीलता का रास्ता अपना कर विपरीत दृष्टिकोण और विचारों को समाप्त करने के लिए कटिबद्ध हैं.

विचारों की स्वतंत्रता को हिंसा या शक्ति से दबाने का प्रयास असहायता का परिचायक है. जिन विचारों का वह विरोध करना चाहता है, उसके खिलाफ शक्ति के अलावा उसके पास अन्य कोई साधन नहीं है, जिसे वह मजबूत तर्क के रूप में पेश कर दूसरे पक्ष को निरुत्तर बना सके. 

शाश्वत विचार की खोज संभव नहीं है, लेकिन युग, सत्य और उसका प्रभुत्व तो सदैव रहेगा ही. इसका निर्धारण हिंसक शक्ति पर आधारित नहीं हो सकता. युग गति को पीछे की ओर नहीं ले जाया जा सकता, यह आगे ही बढ़ेगा