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विदेशी कंपनियां नहीं लाएंगी अच्छे दिन - डॉ. भरत झुनझुनवाला

वर्ष 2005 से 2010 के बीच देश की अर्थव्यवस्था 8.7 प्रतिशत की दर से बढ़ रही थी। अरबपतियों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही थी। फिर भी जनता में असंतोष था, जिसका परिणाम संप्रग सरकार को 2014 के चुनाव में झेलना पड़ा। मोदी सरकार के सामने 2015 की चुनौती विकास को आम जनता तक पहुंचाने की है। हमारी वर्तमान विकास दर 5 से 6 प्रतिशत के बीच है। मोदी इसे 8-9 प्रतिशत तक पहुंचा सकें, तो भी जनता में व्याप्त असंतोष नहीं थमेगा।

रोजगार के हाल पर नजर डालने से स्थिति स्पष्ट हो जाती है। अपने देश में कंपनियों की रेटिंग, रिसर्च तथा सलाह की सेवाएं क्रिसिल नामक कंपनी द्वारा उपलब्ध कराई जाती हैं। क्रिसिल ने बताया है कि 2005 से 2010 की अवधि में देश में 270 लाख रोजगार उत्पन्न् हुए, परंतु स्वरोजगार में 250 लाख की कटौती हुई। अंत में केवल 20 लाख रोजगार उत्पन्न् हुए। इस अवधि में लगभग 10 करोड़ युवाओं ने श्रम बाजार में प्रवेश किया। यानी केवल 5 प्रतिशत युवाओं को रोजगार मिला। रोजगार में शिथिलता का कारण मशीनों का अधिकाधिक उपयोग दिखता है। क्रिसिल के अनुसार 2005 में एक करोड़ रुपए का उत्पादन करने में 171 श्रमिकों की जरूरत पड़ती थी। 2010 में इतना ही उत्पादन करने के लिए केवल 105 श्रमिकों की जरूरत पड़ रही थी। फलस्वरूप मैन्युफैक्चरिंग में रोजगार में 7 प्रतिशत की कटौती हुई। आर्थिक विकास दर बढ़ी, उद्योगों ने लाभ कमाया, सेंसेक्स उछला, पर रोजगार का हनन हुआ।

मोदी द्वारा संप्रग सरकार की ही नीति का अनुसरण किया जा रहा है। 'मेक इन इंडिया" योजना के तहत बड़े विदेशी उद्योगों को भारत में आकर मैन्युफैक्चर करने का आह्वान किया जा रहा है, पर विदेशी निवेश के रोजगार पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को नजरअंदाज किया जा रहा है। गुजरात के गांधीनगर स्थित सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ गुजरात द्वारा किए गए अध्ययन में पाया गया कि विदेशी निवेश में 10 प्रतिशत वृद्धि से रोजगार में एक प्रतिशत की गिरावट आती है। विदेशी निवेशकों द्वारा सस्ते माल का उत्पादन किए जाने से तमाम स्वरोजगार बंद हो जाते हैं। जैसे हिंदुस्तान यूनीलीवर तथा ब्रिटेनिया द्वारा ब्रेड बनाने के कारण तमाम छोटे ब्रेड निर्माताओं का धंधा चौपट हो गया है, अथवा लेज द्वारा आलू चिप्स बनाने से लइया-चना भूंजने का धंधा बंद हो गया है। 'मेक इन इंडिया" सफल हुआ तो भी आम आदमी को रोजगार कम ही मिलेगा। जिस दवा के सेवन से संप्रग सरकार मृत्यु को प्राप्त हुई, उसी को बड़ी मात्रा में लेने से मोदी सरकार कैसे जीवित रहेगी, इस पर विचार करना चाहिए।

समस्या वैश्विक है। कनाडा में बस स्टैंड पर खान-पान की दुकान चलाने वाले एक भारतीय मूल के उद्यमी ने बताया कि कॉम्पीटिशन बहुत बढ़ गया है। बस स्टेशनों और नुक्कड़ों पर तमाम दुकानें खुल गई हैं। लोग बेरोजगार हो रहे हैं। रोजगार न मिलने की स्थिति में वे दुकान लगा रहे हैं, बिल्कुल उसी तरह जैसे अपने देश में बेरोजगार लोग रिक्शा चलाने को निकल पड़ते हैं। यूरोप के तमाम देशों में बेरोजगारी का भयंकर तांडव चल रहा है। बोस्निया में 44 प्रतिशत, कोसोवो में 31 प्रतिशत, सर्बिया में 30 प्रतिशत लोग बेरोजगार हैं। नरेंद्र मोदी को इस बात पर गौर करना चाहिए कि जब न्यूयॉर्क और शिकागो स्थित सलाहकार अपने देशों में ही बेरोजगारी की छोटी समस्या से नहीं निपट पाए हैं, तो वे भारत की विकराल समस्या से कैसे निपट पाएंगे?

मोदी के दो उद्देश्यों में परस्पर अंतर्विरोध है। वे चाहते हैं कि देश पश्चिमी देशों की तरह विकसित हो जाए। साथ-साथ वे आम आदमी के लिए रोजगार भी सृजित करना चाहते हैं। ये दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते। पश्चिमी देशों का आर्थिक विकास बड़ी कंपनियों के माध्यम से हुआ है। इन कंपनियों ने चीन, भारत और दूसरे देशों में ऑटोमैटिक मशीनों से उत्पादन किया है। भारत, बोस्निया और कोसोवो के लोग बेरोजगार हो गए। बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत में अर्जित लाभ को न्यूयॉर्क भेज दिया। कंपनियों ने अमेरिका में टैक्स अदा किया। अमेरिकी सरकार ने इस टैक्स से सड़क बनाई और रोजगार उत्पन्न् किया। इस प्रकार भारत की बेरोजगारी और अमेरिका की रोजगारी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यूं समझें कि जमींदार द्वारा ग्रामीणों का शोषण करने से ग्रामीण बेरोजगार हो जाते हैं, लेकिन जमींदार के ठिकाने में रोजगार उत्पन्न् होते हैं। मोदी को इस सच्चाई की अनदेखी नहीं करनी चाहिए। बहुराष्ट्रीय और घरेलू बड़ी कंपनियों के सहारे अच्छे दिन नहीं आएंगे।

देश में मैन्यूफैक्चरिंग दो तरह से होती है - पूंजी सघन और श्रम सघन। चीनी मिल पूंजी सघन एवं खांडसारी कारखाना श्रम सघन होता है। मोदी को चाहिए कि चीनी मिल पर एक्साइज ड्यूटी, सेल्स टैक्स और इनकम टैक्स बढ़ाएं और खांडसारी पर घटाएं, जिससे टैक्स की औसत दर पूर्ववत रहे। ऐसा करने से खांडसारी के कारखाने चल पड़ेंगे और रोजगार स्वत: उत्पन्न् हो जाएंगे। इसी प्रकार देश के विभिन्न् उद्योगों को पूंजी सघन एवं श्रम सघन उद्योगों में बांटा जा सकता है। पूंजी सघन उद्योग हुए स्टील, सीमेंट, पेट्रोलियम, कार तथा मोटरसाइकिल इत्यादि। श्रम सघन उद्योग हुए साफ्टवेयर, अंडा, दरी, कंस्ट्रक्शन इत्यादि। मोदी को पूंजी सघन उद्योगों पर टैक्स बढ़ाने और श्रम सघन उद्योगों पर टैक्स घटाने पर विचार करना चाहिए। ऐसा करने से हमारी अर्थव्यवस्था का चरित्र श्रम सघन हो जाएगा। साथ-साथ अधिक संख्या में रोजगार उत्पन्न् करने वाली इकाइयों को श्रम कानूनों से मुक्त कर देना चाहिए, जैसे वर्तमान में एक कराेड का उत्पादन करने में औसत सौ श्रमिक लगते हैं। जो इकाई इतना ही उत्पादन करने में पांच सौ श्रमिकों को रोजगार दे, उसे श्रम कानूनों से मुक्त कर देना चाहिए।

दरअसल मोदी कैबिनेट में वे लोग शामिल हैं, जिनकी बड़ी कंपनियों में हिस्सेदारी है। मोदी के नौकरशाह सलाहकार भी सेवानिवृत्ति के बाद बड़ी कंपनियों में भागीदारी हासिल करने की इच्छा रखते हैं। मोदी इन स्वार्थी विकासवादियों के घेरे में हैं। जिस प्रकार इन विद्वानों ने मनमोहन सिंह को पथभ्रष्ट किया, उसी प्रकार मोदी को पथभ्रष्ट न कर सकें, यही 2015 की चुनौती है।