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विलुप्त हो रहे परंपरागत बीजों को बचाने की दरकार

हरित क्रांति की शुरुआत करने वाले नॉर्मन बोरलॉग को हाइब्रिड यानी संकर किस्म के बीज तैयार करने के लिए अक्सर याद किया जाता है लेकिन आज छोटे किसानों के कई ऐसे समूह हैं जो पारंपरिक बीजों की खोज कर रहे हैं।

ऐसे बीजों की बुआई कुछ जगहों पर प्राथमिकता के आधार पर होती है और वहां हाइब्रिड बीज का इस्तेमाल नहीं होता है। दो साल पहले छत्तीसगढ़ में भारी बारिश हुई थी और करीब-करीब सभी फसलें बरबाद हो गई थीं। इस तरह की बाढ़ में धान की एक किस्म बच पाने में कामयाब रही थी। उसका नाम था- जल डूबी।

यह धान की देसी किस्म थी, जो सिर्फ अंबिकापुर जिले में एक समुदाय द्वारा उगाई जाती थी। दुर्लभ उदाहरण के तहत राज्य सरकार ने इस किस्म को सूखा प्रतिरोधी बीज के तौर पर जारी किया है। लेकिन धान और अन्य अनाज के परंपरागत किस्म के हजारों ऐसे बीज हैं, जो मरणासन्न हालत में हैं क्योंकि ज्यादा से ज्यादा किसान बाजार में उपलब्ध हाइब्रिड बीजों पर आश्रित हो गए हैं।

आधिकारिक तौर पर ऐसे किसानों की खोज की कोशिश नहीं हो रही है जो अब भी पारंपरिक बीजों का इस्तेमाल कर रहे हैं, ताकि ऐसे बीजों में इजाफा किया जा सके और फिर इसका वितरण हो सके। एक ओर जहां पारंपरिक बीजों का कई बार इस्तेमाल हो सकता है वहीं दूसरी तरफ हाइब्रिड बीजों का सिर्फ एक ही बार इस्तेमाल किया जा सकता है।

नॉर्मन बोरलॉग का हाल ही में निधन हुआ है, जिन्होंने फसलों की पैदावार में बढ़ोतरी के लिए अनुसंधान को बढ़ावा दिया और इस तरह उन्हें हरित क्रांति की शुरुआत करने का श्रेय दिया जाता है। लेकिन भारत में होशंगाबाद के वैज्ञानिक डॉ. आर. एच. रिछारिया ने पारंपरिक बीजों की करीब 19 हजार किस्मों पर शोध किया है।

ये देसी बीज इतने क्षमतावान हैं कि इनकी उत्पादकता न सिर्फ हाइब्रिड जैसी हो सकती है बल्कि किसानों को अपनी मर्जी का मालिक भी बनाता है कि वह बुआई के हर सीजन में बीजों के लिए बाजार पर आश्रित न रहे। बोरलॉग के साथ कामयाबी जुड़ी है, लेकिन आर. एल. रिछारिया की कहानी ऐसे व्यक्ति की है जिनका प्रयास नाकाम रहा।

केंद्रीय चावल अनुसंधान संस्थान, कटक का निदेशक पद छोड़ने के लिए उन्हें बाध्य किया गया, उनकी धान की किस्में उनसे ले ली गईं और हरित क्रांति के नाम पर आए विदेशी फंड के बहाव में ये बीज धुल गए और किसान शायद ही इनका इस्तेमाल फिर से कर पाए हों।

उनका शोध चावल के अनुसंधान के दोहराव के तौर पर माना गया और हैदराबाद के राष्ट्रीय परिदृश्य से बाहर निकाल दिया गया। उसके बाद रायपुर के चावल शोध संस्थान से भी, जिसकी शुरुआत उन्होंने मध्य प्रदेश सरकार के समर्थन से बाद में की थी। वहां उन्हें शुरुआती तौर पर राज्य सरकार ने पारंपरिक बीजों पर अपना काम जारी रखने को कहा, लेकिन चावल शोध पर विदेशी रकम स्वीकार करने पर उन्हें छोड़ दिया गया।

आज कोई भी नहीं जानता कि उन बीजों की किस्मत का क्या हुआ जिसे उन्होंने सरकारी संस्थान इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय को दिया था। उनका 1996 में गुमनामी में निधन हो गया। सरकारी नीतियों, खाद्य सुरक्षा मिशन और जैव विविधता कानून में पारंपरिक बीजों की अवधारणा की कोई जगह नहीं है।

इसे वैसे समूह के कार्यकर्ताओं के पास छोड़ दिया गया है जो ऐसे परंपरागत बीजों का इस्तेमाल करने वाले किसानों की खोज करें, उन्हें ऐसे बीज में बढ़ोतरी के लिए प्रोत्साहित करें और फिर इनका वितरण ऐसे लोगों के बीच करें जो पहले से ही हाइब्रिड बीजों पर आश्रित हो चुकेहैं। ये किसान तेजी से विलुप्त हो रहे हैं और इस तरह से ऐसे बीज के ओझल होने का खतरा पैदा हो रहा है।

ऐसा ही एक समूह है रिछारिया अभियान, जिसकी शुरुआत जैकब नेल्लीतानम ने की थी। यह कार्यकर्ता रिछारिया के साथ उनकी मौत से पहले तक शोध से जुड़े रहे थे। यह समूह देसी बीज इकट्ठा करता है और फिर इसका वितरण ऐसे लोगों के बीच करता है जिनके पास ये बीज नहीं होते।

चिपको आंदोलन की जन्मभूमि उत्तराखंड में भी बीज बचाओ आंदोलन चल रहा है, जहां पारंपरिक बीज इकट्ठे किए जा रहे हैं और उनका वितरण 20 गांवों में हो रहा है। इसके संस्थापक विजय जरदारी खुद किसान हैं और टिहरी, देहरादून व पिथौरागढ़ में काम करते हैं। रिछारिया ने जब वहां का दौरा किया था तब जरदारी की उनसे मुलाकात हुई थी।

कर्नाटक में शहजा समरूद्दा और ग्रीन फाउंडेशन है, आंध्र प्रदेश के मेडक में डेक्कन डेवलपमेंट सोसायटी है, जो दो दशकों से इस बात को लेकर प्रदर्शन कर रही है कि कैसे किसानों को बीजों की रक्षा के बाबत सिखाया जा सकता है और फिर बाजार से मुक्त किया जा सकता है। रिछारिया के अनुयायियों को उम्मीद है कि बीजों के दिवालियापन से भारतीय किसानों को बचाने की खातिर सरकारी नीतियों में बदलाव आएगा।