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विषमता का विकास- सुषमा वर्मा

जनसत्ता 17 फरवरी, 2014 : विश्व बैंक की प्रबंध निदेशक क्रिस्टीना लेगार्ड ने हाल ही में यह रहस्योद्घाटन  किया कि भारत के अरबपतियों की दौलत पिछले पंद्रह बरस में बढ़ कर बारह गुना हो गई है। क्रिस्टीना के अनुसार, इन मुट्ठी भर अमीरों के पास इतना पैसा है जिससे पूरे देश की गरीबी को एक नहीं, दो बार मिटाया जा सकता है। लेगार्ड के इस बयान से पुष्टि होती है कि बाजार आधारित अर्थव्यवस्था अपनाने का लाभ चुनिंदा अमीरों को ही मिला है। अमीर और गरीब के बीच की खाई और चौड़ी हो गई है और देश की अधिकतर संपत्ति चुनिंदा अरबपतियों की मुट्ठी में सिमटती जा रही है।

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, भारत में गरीबों और अमीरों के बीच की खाई निरंतर चौड़ी होती जा रही है। खर्च और उपभोग के आधार पर किए गए इस अध्ययन में पाया गया कि वर्ष 2000 और 2012 के बीच ग्रामीण इलाकों में रईसों के खर्च में साठ फीसद इजाफा हुआ, जबकि गरीबों का खर्च केवल तीस प्रतिशत बढ़ा। इस दौरान शहरी इलाकों में धनवान और निर्धन के व्यय में क्रमश: तिरसठ और तैंतीस प्रतिशत बढ़ोतरी हुई। जहां वर्ष 2000 में एक अमीर आदमी का खर्च गरीब के मुकाबले बारह गुना था, वहीं अब यह बढ़ कर पंद्रह गुना हो गया है। ताजा अध्ययन से एक और भ्रम टूटा है। आज शहरों के मुकाबले गांवों में महंगाई की मार ज्यादा है। आंकड़ों के अनुसार दाल, सब्जी, फल, तेल, दूध, चीनी और कपड़ों की कीमत देहाती इलाकों में कहीं अधिक है। ग्रामीण इलाकों में गरीबी रेखा से नीचे जीने को मजबूर लोगों की संख्या भी ज्यादा है। इसका अर्थ तो यही हुआ कि शहरों के मुकाबले गांवों में रहने वालों की हालत ज्यादा खराब है।

वैश्वीकरण और खुली अर्थव्यवस्था की डगर पकड़ने के बाद से हमारे देश के कर्णधारों पर विकास का भूत सवार है। हर हाल में और हर कीमत पर विकास की सनक का मूल्य देश की अधिसंख्यक आबादी को चुकाना पड़ रहा है। विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों की जम कर लूट हुई है। ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए विकास का ऐसा मॉडल अपनाया गया है जिसमें रोजगार-वृद्धि की कोई गुंजाइश नहीं है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह यह तो कहते हैं कि आज खेती में लगे सत्तर प्रतिशत किसान फालतू हैं, लेकिन यह नहीं बताते कि खेती कर रहे इन करोड़ों किसानों को वैकल्पिक काम कहां मिलेगा। देश की लगभग साठ प्रतिशत आबादी कृषि और उससे जुड़े धंधों पर निर्भर है। अगर सत्तर फीसद लोगों को खेती-बाड़ी से निकाल दिया जाए तो लगभग पचास करोड़ लोगों को उद्योग या सेवा क्षेत्र में खपाना पड़ेगा। जब लगातार दो वर्ष से विकास दर पांच फीसद से नीचे चल रही हो तब नौकरियां बढ़ती नहीं, घटती हैं। ऐसे में खेती छोड़ अन्य काम करने की सलाह देना कहां की बुद्धिमानी है?

नोबेल-विभूषित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन और ज्यां द्रेज की पुस्तक ‘इंडिया ऐंड इट्स कंट्राडिक्शन’ से देश के विकास के दावों और पैमानों को गंभीर चुनौती मिलती है। खुली और बाजार आधारित अर्थव्यवस्था का मोटा सिद्धांत है कि अगर गरीबों का भला करना है तो देश की आर्थिक विकास दर ऊंची रखो। इस सिद्धांत के अनुसार जब विकास तेजी से होगा तो समृद्धि आएगी और गरीबों को भी इसका लाभ मिलेगा। लेकिन अंतरराष्ट्रीय जगत में आज केवल आर्थिक विकास के पैमाने को अपनाने का चलन खारिज किया जा चुका है। किसी देश की खुशहाली नापने के लिए अब मानव विकास सूचकांक और भूख सूचकांक जैसे मापदंड अपनाए जा रहे हैं और इन दोनों पैमानों पर हमारे देश की हालत दयनीय है। अगर विकास के लाभ का न्यायसंगत बंटवारा न किया जाए और खुले बाजार पर विवेकपूर्ण नियंत्रण न रखा जाए तो समाज में बदअमनी फैलने का भय रहता है। आज हमारा देश इस खतरे के मुहाने पर खड़ा है।

देश में आय के बढ़ते अंतर को समझने के लिए गांवों और खेती की दुर्दशा को जानना जरूरी है। पिछले सत्रह वर्षों में लगभग तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। हिसाब लगाएं तो पता चलता है कि हर आधे घंटे में एक किसान अपनी जान दे देता है। अधिकतर आत्महत्याओं का कारण कर्ज है जिसे चुकाने में किसान असमर्थ हैं। आज खेती घाटे का सौदा बन चुकी है। इसी कारण बयालीस प्रतिशत किसान खेती छोड़ना चाहते हैं, लेकिन विकल्प न होने के कारण वे जमीन जोतने को मजबूर हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2007-2012 के बीच करीब सवा तीन करोड़ किसान अपनी जमीन और घर-बार बेच कर शहरों में आए। कोई हुनर न होने के कारण उनमें से ज्यादातर को निर्माण क्षेत्र में मजदूरी या दिहाड़ी करनी पड़ी। वर्ष 2005-2009 के दौरान जब देश की आर्थिक विकास दर आठ-नौ फीसद की दर से कुलांचे मार रही थी तब भी 1.4 करोड़ किसानों ने खेती छोड़ी। इसका अर्थ यही हुआ कि आर्थिक विकास का फायदा किसानों को नहीं मिला और न ही वहां रहने वाली आबादी की आमदनी में उल्लेखनीय इजाफा हुआ। अगर आर्थिक विकास का लाभ गांवों तक पहुंचता तो किसान अपना घर-बार छोड़ कर शहरों की तरफ पलायन नहीं करते।

अर्थशास्त्रियों के अनुसार, गांवों से शहरों की ओर पलायन आर्थिक विकास और तरक्की का सूचक होता है। एक अनुमान के अनुसार, वर्ष 2030 तक भारत की आधी आबादी शहरों में रहने लगेगी। लेकिन हमारे शहरीकरण की प्रक्रिया पेचीदा है। यह सर्वमान्य सत्य है कि बेहतर रोजगार की तलाश में ही आदमी गांव से शहर आता है, पर नौकरी न मिलने या धंधा न जमने पर वही आदमी गांव लौटने को मजबूर हो जाता है। जैसा कि हमने पहले कहा था, हमारे देश का विकास मॉडल बेढब है। अधिक से अधिक लाभ कमाने की नीयत से इसमें कम से कम लोगों को लगा ज्यादा से ज्यादा लाभ निकालने की जुगत लगाई जाती है। मतलब यह कि हमारा विकास का मॉडल रोजगार-विहीन है। इसमें नई नौकरियों की गुंजाइश बहुत कम रहती है। इसी कारण 2012-14 के बीच डेढ़ करोड़ लोग शहर छोड़ गांव लौटने को मजबूर हुए। शहरों में भूखे मरने के बजाय उन्होंने अपने गांव लौट कर मनरेगा में मजदूरी कर पेट भरना बेहतर समझा।

वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश की 58.2 प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर थी, जबकि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान महज 14.1 प्रतिशत था। इसका यह भी अर्थ है कि आधी से अधिक जनसंख्या की आमदनी बहुत कम है, इतनी कम कि दो जून की रोटी का जुगाड़ करना भी कठिन होता है। दूसरी तरफ शहरों में रहने वाले चंद लोगों ने सारी आय और संपत्ति पर कब्जा जमा रखा है। कहने को सरकार ने गरीब जनता के फायदे के लिए अनेक कल्याणकारी योजनाएं चला रखी हैं।

खाद्य, खाद, ऊर्जा, शिक्षा और स्वास्थ्य पर हर साल अरबों रुपए खर्च किए जाते हैं, लेकिन इसमें भी बंदरबांट है। पिछले एक दशक में सरकार ने जन-कल्याणकारी योजनाओं को एक सौ दस खरब रुपए की सबसिडी दी। अकेले र्इंधन पर वर्ष 2013 में 1.30 लाख करोड़ रुपए की सबसिडी दी गई। लेकिन संपन्न बीस फीसद तबके को गरीब बीस प्रतिशत आबादी के मुकाबले छह गुना ज्यादा सबसिडी मिली। एक उदाहरण देकर यह बात बेहतर समझी जा सकती है। सरकार एक लीटर डीजल पर नौ रुपए की सबसिडी देती है, लेकिन इस सस्ते डीजल की चालीस प्रतिशत खपत महंगी निजी कारों, उद्योगों, जेनरेटरों आदि में होती है। गरीब किसान के हिस्से बहुत कम डीजल आता है। सबसिडी में भारी भ्रष्टाचार है, इसलिए माना जाता है कि इसके एक रुपए में से लगभग दस पैसे ही जरूरतमंद गरीब जनता तक पहुंच पाते हैं।

दूसरी तरफ बडे उद्योगों और कॉरपोरेट घरानों द्वारा लिए जाने वाले अरबों रुपए के कर्जे का कड़वा सच है। 2013 तक सार्वजनिक बैंकों से लिया बारह खरब रुपए का कर्ज उद्योगों ने नहीं चुकाया। यह ऐसा ऋण है जिसके लौटने की संभावना न के बराबर है। दूसरे शब्दों में इसे उद्योग जगत द्वारा करदाताओं से जबरन वसूली गई सबसिडी ही कहा जाएगा। पैसा मारने वाले उद्योगों के खिलाफ सरकार और बैंक कोई कड़ी कार्रवाई भी नहीं करते हैं। ऋण न चुकाने वालों की जमात में कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनका नाम अरबपतियों की सूची में शामिल है।

आंकड़ों के जंगल से निकल कर फिर अमर्त्य सेन के सुझाव पर लौटते हैं। उनके अनुसार ‘मार्केट मेनिया’ के लोभ और ‘मार्केट फोबिया’ के भय से निकले बिना देश का कल्याण असंभव है। झूठे आर्थिक विकास के दावे और थोथी राजनीतिक बहस जनता को गुमराह करने के औजार हैं। बहस मूल मुद्दों पर होनी चाहिए। भोजन, शिक्षा और स्वास्थ्य मूल मुद्दे हैं और इन्हें मुहैया कराना हर सरकार की पहली जिम्मेदारी है। जो सरकार इस जिम्मेदारी को पूरा नहीं कर पाती उसका सत्ता में बने रहना कठिन होता है।

रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के अनुसार, किसानों को खेती से खदेड़ने पर ही देश का वास्तविक विकास होगा। उनका यह कहना अधूरा सच है। किसानों को खेती से खदेड़ने की बात तभी की जानी चाहिए, जब शहरों में उनके लिए अच्छी नौकरियों का इंतजाम हो। यह तो सभी जानते हैं कि गांवों से निकले अकुशल श्रमिक को मेन्युफैक्चरिंग या निर्माण क्षेत्र में ही खपाया जा सकता है। दुर्भाग्य से आज इन दोनों क्षेत्रों में स्थिति अच्छी नहीं है, इसलिए करोड़ों किसान घाटे की खेती या मनरेगा में मजदूरी करने को मजबूर हैं। कॉरपोरेट जगत को सामाजिक उत्तरदायित्व से जोड़ कर ही आर्थिक विषमता की चौड़ी खाई कुछ हद तक पाटी जा सकती है। उद्योगों को माल बेचने के लिए बड़े बाजार की जरूरत होती है। अगर आम आदमी के पास खरीदने के लिए पैसा ही नहीं होगा, तब उद्योग अपने बनाए सामान का क्या करेंगे? आम आदमी की उन्नति से ही कॉरपोरेट जगत फल-फूल सकता है। सिर्फ मुट्टी भर अरबपतियों की बदौलत कोई देश और समाज तरक्की नहीं कर सकता।