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वे आदिवासियों के हितैषी नहीं- विनोद कुमार

तरीके से फैलाई गई है कि माओवादी आदिवासियों के रहनुमा हैं। जल, जंगल और जमीन पर आदिवासियों के हक की लड़ाई लड़ रहे हैं। इसी वजह से मेधा पाटकर, अरुंधति राय, स्वामी अग्निवेश जैसे सामाजिक कार्यकर्ता जब-तब माओवादियों के पक्ष में खड़े हो जाते हैं। लेकिन यह भ्रम है। यह इत्तिफाक है कि अपने देश का जो वनक्षेत्र है वही जनजातीय क्षेत्र भी है, और माओवादी छापामार युद्ध की अपनी मजबूरियों की वजह से उसी क्षेत्र में अपना ठिकाना बनाए हुए हैं।
वास्तविकता यह है कि माओवादी अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए आदिवासियों का जबरन इस्तेमाल कर रहे हैं। वरना माओवादी दर्शन और आदिवासियों के जीवन दर्शन में किसी तरह का मेल नहीं। माओवादी भी धुर वामपंथी हैं और उनकी राजनीति का ककहरा इस ऐतिहासिक वाक्य से शुरू होता है कि मानव जाति का इतिहास वर्ग-संघर्षों का इतिहास है, जबकि आदिवासी समाज एक वर्ग-विहीन समाज है। इसका मतलब यह नहीं कि उनमें आर्थिक विषमता नहीं है। लेकिन बहुत कम, इतनी नहीं कि उस समाज को वर्गों में विभाजित कर सकें।
माओवादी सर्वहारा की तानाशाही में विश्वास करते हैं, जबकि आदिवासियों के बीच स्वशासन की अपनी एक लंबी परंपरा है, जो निरंतर कमजोर तो पड़ती जा रही है, लेकिन उसका मूलाधार ग्रामसभा होती है जिसमें गांव के लोग अहम फैसले लेते हैं। जाहिर है कि उनके तमाम फैसले गांव के अखड़ा में लिए जाते हैं, सर्वानुमति से होते हैं। इस लिहाज से हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था से भी वे कुछ भिन्न हैं, जहां बहुमत के आधार पर फैसले लिए जाते हैं। लेकिन माओवादियों के तो तमाम फैसले पोलित ब्यूरो जैसी शीर्ष समिति लेती है और निर्णय लेने के बाद अपने कैडरों पर थोपती है।
इस बात का ज्वलंत उदाहरण है यह तथ्य, कि माओवादी आदिवासी क्षेत्र में घुसपैठ के शुरुआती दिनों से ही यह पट्टी लोगों को पढ़ा रहे हैं कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है और संसद गपबाजी का अड््डा है। लेकिन जनता समझने के लिए तैयार नहीं। अपने प्रभाव वाले इलाकों में भी चुनाव का बहिष्कार कराने के लिए माओवादियों को मतदाताओं की अंगुली काट लेने की धमकी देनी पड़ती है। व्यापक हिंसा का सहारा लेना पड़ता है।
हाल में उनके प्रभाव वाले आदिवासी बहुल इलाके बुंडू में, जहां कुछ वर्ष पहले उन्होंने क्षेत्र के चर्चित राजनीतिक रमेश मुंडा की हत्या कर दी थी, नगरपालिका के चुनाव में उनकी निषेधाज्ञा के बावजूद भारी संख्या में लोगों ने मतदान किया। लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करने वाली परिवर्तनकामी जमात इस बात में विश्वास करती है कि संघर्ष जिसका हो, नेतृत्व भी उसका ही हो। लेकिन माओवादियों के इस संघर्ष के कैडरों में भले ही कुछ आदिवासी भी शामिल हो गए हों, नेतृत्व में दूर-दूर तक कोई आदिवासी नहीं।
आदिवासी अपने साथ तीर-धनुष और अन्य परंपरागत हथियार तो रखते हैं, लेकिन वे हिंस्र नहीं। उन्हें आप कोंचते रहिए, वे पीछे होते जाएंगे और आखिरकार अपने पूरे अस्तित्व से आपका विरोध करेंगे। कुछ लोगों को लगता है कि उदारीकरण और नई औद्योगिक नीति का विरोध कर आदिवासी विकास की राह का रोड़ा बन गए हैं, जबकि वे अपने अस्तित्व के संघर्ष के निर्णायक दौर में हैं। लेकिन उनके संघर्ष का तरीका भिन्न है और माओवादियों के आने के पहले से चल रहा है। सिधो कान्हूं का उलगुलान हो या बिरसा मुंडा के अबुआ राज का संघर्ष या फिर आजादी के बाद झारखंड में नेतरहाट की फायरिंग रेंज के खिलाफ उनका आंदोलन, सुवर्णरेखा परियोजना और तपकारा का उनका संघर्ष, माओवादियों के इस क्षेत्र में प्रवेश के पहले से चला आ रहा है। उनके आंदोलन और संघर्ष का तरीका चाहे हिंसक हो या अहिंसक, जन आंदोलनों की शक्ल में होता है।
सिधो कान्हंू या बिरसा के संघर्ष में कोई हिरावल दस्ता या गुरिल्ला सेना अलग से गठित नहीं की गई थी, जैसा कि माओवादी करते हैं। उस संघर्ष में उस इलाके के तमाम औरत-मर्द, बूढ़े-बच्चे शामिल हुए थे। आजादी के बाद कम्युनिस्ट आंदोलन, समाजवादियों के आंदोलन और चौहत्तर के आंदोलन की धारा के संगठनों के प्रभाव में अलग झारखंड राज्य के आंदोलन का स्वरूप भी काफी हद तक बदल गया। वह जुझारू तो था, लेकिन हिंस्र नहीं।
इस भिन्नता को आज पूर्वोत्तर में चले रहे आदिवासियों के हिंस्र आंदोलनों में देखा जा सकता है। हालांकि पूर्वोत्तर में माओवादियों की पैठ नहीं। उनकी पैठ तो झारखंड, ओड़िशा और छत्तीसगढ़ के निरीह आदिवासियों के बीच है।
एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि आजादी के बाद आदिवासियों की एक प्रमुख समस्या विस्थापन रही है। लेकिन हाल तक विस्थापन को लेकर माओवादियों की कोई नीति नहीं थी। वे मूक भाव से आदिवासियों के विस्थापन विरोधी आंदोलनों को देख रहे थे।
शायद उनकी समझ यह थी कि पहले सत्ता पर कब्जा करो, फिर मन-माफिक समाज बना लो। इसलिए अस्सी के दशक में चले विस्थापन विरोधी आंदोलनों में उनकी कोई भूमिका नहीं थी। चाहे वह नेतरहाट में फायरिंग रेंज के खिलाफ चला आंदोलन हो या चांडिल या इचा में डीवीसी के खिलाफ या फिर कोयलकारो परियोजना के खिलाफ चला आंदोलन।
यह तो हाल की परिघटना है जब वे जल, जंगल, जमीन पर आदिवासियों के हक की लड़ाई को अपनी लड़ाई बताने लगे। लेकिन इन आंदोलनों की आड़ में भी वे निजी कंपनियों और ठेकेदारों को डरा-धमका कर लेवी वसूलने का काम करते हैं। चांडिल क्षेत्र में स्पंज आयरन कारखानों ने आदिवासियों का जीवन दूभर बना दिया है। वहां जेपी से प्रेरित छात्र युवा संघर्ष वाहिनी की धारा के साथियों की मदद से झारखंड मुक्ति वाहिनी पिछले कई वर्षों से शांतिमय तरीके से आंदोलन चला रही है। लेकिन उसका बहुत प्रभाव नहीं।
माओवादियों ने एक कारखाने के सामने बम विस्फोट कर दिया। सिर्फ वही कारखाना नहीं, उस इलाके के कई कारखाने कुछ दिनों के लिए बंद हो गए। लेकिन कुछ दिनों के बाद सभी फिर चालू हो गए। दलमा क्षेत्र में माओवादियों ने शराबबंदी कर दी। डर से ही सही, एक सही काम हुआ। लेकिन कुछ महीनों बाद वह सब कुछ पूर्ववत चालू हो गया। इसी तरह क्रशर उद्योग के खिलाफ माओवादियों ने फतवा जारी किया, पर एकाध महीने के अंतराल के बाद सब फिर से धड़ल्ले से चलने लगे।
इस तरह वे एक तरफ तो लोगों को भयाक्रांत कर लेवी वसूल रहे हैं, दूसरी तरफ यह हवा भी बांध रहे हैं कि वे आदिवासियों के हक की लड़ाई लड़ रहे हैं। चीन में क्या हुआ, रूस में सर्वहारा क्रांति के बाद क्या हुआ, यह तो इतिहास है, माओवादियों को बताना चाहिए कि उनकी आर्थिक नीतियां क्या हैं? व्यवस्था परिवर्तन का उनका नक्शा क्या है? आदिवासी समाज के स्वशासन के अधिकार को वे कितना महत्त्व देते हैं? अगर वे सत्ता में आते हैं तो जल, जमीन और जंगल पर अधिकार सत्ता का होगा या जनता का?
माओवादी समन्वय समिति का जन्म झारखंड से सटे पश्चिम बंगाल में हुआ। साठ के दशक के अंतिम वर्षों में वे सक्रिय हुए। आदिवासी बहुल इलाकों में वे अपनी पकड़ बनाते, लेकिन उस समय शिबू सोरेन, कामरेड एके राय और विनोद बिहारी महतो के नेतृत्व में महाजनी शोषण और कोयलांचल में माफियागीरी के खिलाफ एक तीव्र आंदोलन चल रहा था। उस आंदोलन का एक गढ़ धनबाद जिले का एक प्रखंड टुंडी भी था। उस आंदोलन की तीव्रता की वजह से माओवादियों का प्रवेश उस वक्त झारखंड में नहीं हो सका। लेकिन जब शिबू सोरेन संसदीय राजनीति में चले गए तो माओवादियों को मौका मिल गया।
हुआ यह कि शिबू सोरेन के चेले तो कोटा-परमिट के धंधे में लग गए, लेकिन धनकटनी आंदोलन का उग्रपंथी ग्रुप माओवादियों के दस्ते में शामिल हो गया। जो नहीं हुआ, उसे चुन-चुन कर माओवादियों ने मार डाला। अपने जनाधार के फैलाव के लिए उन्होंने हर तरह के लोगों से समझौता किया। झामुमो तो उनका दुश्मन नंबर एक था, क्योंकि ज्यादातर आदिवासी कैडर झामुमो के ही पक्षधर थे। इसलिए कुर्मी समुदाय के लोगों, यादवों और अन्य पिछड़ी-दलित जातियों में उन्होंने अपना कैडर बनाया। यादव मुसलमानों के खिलाफ थे, इसलिए क्रांति के नाम पर उस दौर में हुए कई हत्याकांडों में मुसलमान मारे गए।
अपने प्रभाव क्षेत्र के विस्तार के लिए वे गांव के हर झगड़े में किसी एक के पक्षधर बन कर उतर जाते थे, ठेकेदारों और अपराधियों से सांठगांठ करते थे। इन्हीं बातों से तंग आकर माले नेता महेंद्र सिंह ने झूमड़ा पहाड़ी पर एक बड़े जन सैलाब के साथ इनका पीछा किया था। हालांकि उस टकराव में महेंद्र सिंह के समर्थक ही मारे गए। बाद में महेंद्र सिंह की भी हत्या हो गई।
गौरतलब है कि महेंद्र सिंह की पार्टी माले भी एक समानधर्मा राजनीतिक दल ही है। लेकिन अपने प्रभाव क्षेत्र में वे किसी अन्य की मौजूदगी बर्दाश्त नहीं कर सकते। यह सही है कि सलवा जुडूम सरकार द्वारा संपोषित एक अभियान है, लेकिन वहां आदिवासी ही उनके खिलाफ खड़े हैं। और वे निर्ममता से उनकी हत्या करते हैं। 2006 में छत्तीसगढ़ में उन्होंने आदिवासियों से भरे ट्रक को उड़ा दिया, क्योंकि वे सलवा जुडूम के बैठक में भाग लेने जा रहे थे।
कुछ वर्ष पहले माओवादी झारखंड के गिरिडीह जिले के एक गांव में पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के भाई को मारने पहुंचे। वह तो नहीं मिला, अठारह आदिवासियों को गोलियों से भून कर वे चलते बने। समस्या यह है कि अगर टकराव बराबरी का हो तो आदिवासी उन्हें अपने इलाके से खदेड़ दें, लेकिन वे हथियारबंद हैं और आदिवासियों के पास हैं बस अपने परंपरागत तीर-धनुष। इसलिए यह तय करना मुश्किल है कि जितने भी आदिवासी उनके साथ हैं, वे स्वेच्छा से हैं या भय से।
सवाल यह उठता है कि क्या माओवादियों के समर्थक बुद्धिजीवियों को ये अंतर्विरोध दिखाई नहीं देते? दरअसल, माओवादियों के समर्थकों में बड़ी संख्या उन बुद्धिजीवियों की है, जो किसी न किसी एनजीओ से जुड़े हैं। एनजीओ की दुनिया में आदिवासी शब्द की भारी महत्ता है। भारत में उनकी गतिविधियोंका एक बड़ा केंद्र आदिवासी हैं। इसलिए आदिवासी का हमदर्द दिखना उनके लिए जरूरी है। अब उनके लिए जमीनी संघर्ष करना तो कठिन है, लेकिन माओवादियों के हिंस्र संघर्ष का समर्थन करना आसान। वैसे भी उन्हें करना क्या है? माओवादियों के पक्ष में बयान देना। इसे एनजीओ की भाषा में कहते हैं वातावरण निर्माण। यही वे करते हैं। लेकिन इतने मात्र से वे आदिवासियों के हितैषी नहीं हो जाते।