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वे दीवारें, जिन्हें लांघना है मुश्किल - सईद नकवी

पहली कहानी एक पीएचडी छात्र रोहित वेमुला की है, जो कार्ल सागान जैसा अंतरिक्ष विज्ञानी बनना चाहता था, लेकिन अंतत: वह आत्महत्या कर लेता है। दूसरी कहानी सीवेज की सफाई करने वाले एक व्यक्ति की है, जो सीवेज में जिंदा कॉकरोच की तलाश करता है। उन्हें देखकर उसे सुरक्षा का अहसास होता है कि कम से कम जहरीली गैसों से उसकी मौत नहीं होगी। एक दिन उसका आकलन गलत साबित होता है और उसकी मौत हो जाती है। पहली कहानी वास्तविक है, दूसरी कहानी कल्पना (एक अद्भुत मराठी फिल्म 'कोर्ट" का हिस्सा), लेकिन ये दोनों एक ही क्रूर सच्चाई के दो भिन्न् पहलू हैं।

रोहित चिंतनशील था और सधा हुआ गद्य लिखता था। वह हमें अपने यूनिवर्सिटी के दिनों के उन स्टूडेंट्स की याद दिलाता है, जिनके साथ हम अपने अंतरंग रहस्य साझा करना पसंद करते थे। आज इस बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि वह दलित था या पिछड़ा, क्योंकि वह बड़ी आसानी से हममें से कोई एक हो सकता था। रोहित के बारे में पहले ही बहुत लिखा जा चुका है। शायद ये तमाम लेख इस बात को समझने की कोशिश कर रहे हैं कि एक चिंतनशील दलित नौजवान को बचाने में हम सक्षम क्यों नहीं रहे?

एक यूनानी मिथक है कि सिसिफस नाम का व्यक्ति रोज एक बड़ी-सी चट्टान को ढोकर एक पहाड़ के ऊपर ले जाता है और हर बार वह चट्टान नीचे गिरकर फिर अपनी जगह पर चली जाती है। 60 के दशक में हर विश्वविद्यालय के कॉफी हाउस में अस्तित्ववादी नौजवान सिसिफस पर चिंतन किया करते थे। वह जीवन के निष्प्रयोज्य होने का आत्यंतिक रूपक था। बहरहाल, वह सब आखिरकार चिंतन के दायरे में ही था। लेकिन रोहित जैसे वंचित तबके के नौजवानों के लिए यह कोई फलसफा नहीं, बल्कि जीवन की वह सच्चाई है, जिससे उन्हें रोज जूझना होता है। और उनका चिंतनशील मस्तिष्क ही शायद वह भारी चट्टान है, जिसे हर रोज लादकर उन्हें जीवन के सफर पर चलना होता है।

हमारे विश्वविद्यालय हर रोज बीसियों ऐसे दलित विद्यार्थी उगलते हैं, जिनमें से कई रोहित जैसे मेधावी छात्र हों, लेकिन उनके लिए तंत्र की दीवारें दिन-ब-दिन और ऊंची होती जा रही हैं। और इन दीवारों को लांघने का कोई ठोस जरिया उन्हें नजर नहीं आता। सीवेज की सफाई करने वाले का और कोई मकसद नहीं होता, सिवाय इसके कि यांत्रिक रूप से सीवेज को साफ रखने की कोशिश करे। लेकिन रोहित जैसे नौजवानों के पास कोई मकसद होता है। मिसाल के तौर पर वे कार्ल सागान जैसा वैज्ञानिक बनना चाहते हैं। मकसद होना और मकसद का ना होना, ये एक त्रासदी के दो विभिन्न् पहलू हैं।

अगर आप किसी पांच सितारा होटल में जाएं तो आप पाएंगे कि नपे-तुले, सजीले-छबीले लोग आपकी मदद करने के लिए लॉबी, रेस्तरां, रिसेप्शन आदि पर तैनात हैं। लेकिन अगर आप वहां टॉयलेट इत्यादि की सफाई करने वाले कर्मचारियों को देखें तो पाएंगे कि वे झुकी हुई कद-काठी के अनाकर्षक लोग होते हैं और उनकी यूनिफॉर्म भी मामूली-सी होती है। बहुधा ये समाज के दलित-वंचित तबके के लोग होते हैं। विभिन्न् एजेंसियों से ठेके पर इनकी सेवाएं ली जाती हैं। यही तस्वीर आपको मॉल, हवाई अड्डा, अस्पताल, रेस्तरां हर जगह नजर आ जाएगी। टॉयलेट की सफाई करने वाले वर्ग के लोग ऊंचे ओहदों पर कम ही नजर आएंगे। क्योंकि अगर ऐसा हो तो जॉब मार्केट में जातिगत प्राथमिकता का जो संतुलन बिठाया गया है, वह नहीं गड़बड़ा जाएगा?

जातिगत व्यतिक्रम एक ऐसी चीज है, जो राज्यसत्ता की मदद से स्थापित की जाती है। ऐसे में सवाल यही है कि भ्रामक हालात से जूझ रहे सैकड़ों-हजारों रोहितों के लिए राज्यसत्ता आज क्या कर सकती है?

कुछ साल पहले एम्स में तीन सवर्ण कर्मचारियों को साफ-सफाई का जिम्मा सौंपे जाने के बाद काफी हंगामा मचा था। कम्युनिस्ट नेताओं के हस्तक्षेप से उस आंदोलन का अंत हुआ था क्योंकि उनका सोचना था कि आखिर इसमें गलत क्या है। अगर सवर्ण लोग सफाई इत्यादि का काम करते हैं तो यह सामाजिक व्यतिक्रम को उलटने वाली क्रांतिकारी घटना ही मानी जानी चाहिए। लेकिन ऐसा ज्यादा समय तक हो नहीं सका। उन तीन कर्मचारियों ने झाडू को हाथ भी नहीं लगाया। आखिरकार उन्हें सुपरवाइजर वगैरह नियुक्त किया गया।

यही कारण है कि स्वच्छ भारत अभियान भी एक भ्रामक अवस्था का शिकार हो सकता है। यह कि दलित कभी सुपरवाइजर अधिकारी बनाए नहीं जाएंगे और अफसरान कभी झाडू नहीं उठाएंगे। हां, वे यदा-कदा झाडू लेकर तस्वीरें जरूर खिंचवा सकते हैं।

मैंने इस लेख के प्रारंभ में एक मराठी फिल्म 'कोर्ट" का उल्लेख किया था। दलितों की पीड़ा को इस फिल्म से बेहतर कोई नहीं बताता। नारायण काम्बले नामक एक लोकगायक को एक हास्यास्पद आरोप के चलते गिरफ्तार कर लिया जाता है। यह कि उसकी कविता एक सफाई कर्मचारी की आत्महत्या के लिए जिम्मेदार हो सकती है! लेकिन लोकगायक का दलितों पर अच्छा प्रभाव है और राजनीति को लगता है कि इसे अपने पक्ष में भुनाया जा सकता है। कोई भी सीवेज कर्मचारी की मौत के बारे में बात नहीं करता। उसकी मौत भी एक राजनीतिक घटना बन जाती है। लेकिन अभियोजन पक्ष का वकील लोकगायक को जमानत नहीं दिए जाने की पैरवी करता है और उसकी बात मान ली जाती है। तब ऐसा लगने लगता है कि न्याय देने वाली मशीनरी और न्याय की उम्मीद लगाए लोगों में कोई तालमेल ही नहीं है।

क्या रोहित वेमुला को भी ऐन इसी श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है?

-लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं