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वैश्चिक अर्थव्‍यवस्‍था में लड़खड़ाता 'ड्रैगन" और हम - सुषमा रामचंद्रन

चीन की कहानी किसी परीकथा की तरह है। लाखों गरीबों-मजलूमों का यह देश महज चंद दशकों में ही एक वैश्विक महाशक्ति के रूप में जब उभरकर सामने आया तो सभी हतप्रभ रह गए। हालत यह हो गई?कि चीन को दुनिया की सबसे बड़ी फैक्टरी कहा जाने लगा : एक मैन्युफेक्चरिंग पॉवर हाउस! लेकिन अब लगता है कि चीन के उभार की कहानी जिस तरह से किसी परीकथा की तरह थी, उसके क्रमिक पतन की कहानी उससे भिन्न् होगी। आज पूरी दुनिया चीन पर नजरें जमाए हुए है। दुनिया अपने विकास के पहियों को हरकत में बनाए रखने के लिए चीन पर किस हद तक निर्भर हो गई थी, यह तभी पता चल सका, जब खुद चीन की अर्थव्यवस्था लड़खड़ाने लगी।

यह स्थिति कोई एक दिन में निर्मित नहीं हुई है। पिछले कुछ सालों से चीन की अर्थव्यवस्था में क्रमिक क्षरण देखा जा रहा था। पहले तो इसे एक फौरी समस्या की तरह देखा गया, क्योंकि वैश्विक मंदी के बाद चीनी उत्पादों की अंतरराष्ट्रीय मांग में गिरावट दर्ज की जा रही थी। चीन पूरी तरह से निर्यात आधारित मुल्क हुआ करता था, लेकिन धीरे-धीरे उसकी फैक्टरियां घरेलू बाजार के लिए माल मुहैया कराने पर ध्यान केंद्रित करने लगीं। इससे भी इस बात का पता चला कि शायद चीनी कारखाने अब उतने पैमाने पर उत्पादन करने में कामयाब नहीं हो पा रहे थे। साथ ही तांबा, इस्पात, लौह अयस्क, कच्चे तेल जैसी वस्तुओं के चीनी आयात में भारी गिरावट दर्ज की जाने लगी।

एक कड़ी से दूसरी कड़ी जुड़ी तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में इन कमोडिटीज के दाम नाटकीय रूप से घट गए। खासतौर पर कच्चे तेल की कीमतों में जिस तरह की भारी गिरावट दर्ज की गई है, उसके लिए अन्य कारणों के साथ ही चीन की आर्थिकी में आई?सुस्ती भी जिम्मेदार थी। चीन यूरोप और अमेरिका के बाद दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल आयातक हुआ करता था, लेकिन उसके आयात में भारी गिरावट आने के बाद तेल का अंतरराष्ट्रीय बाजार औंधे मुंह गिरा है। आज यह हालत है कि चीनी अर्थव्यवस्था की विकास दर 25 वर्षों के अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है।

लंबे समय तक यही माना जा रहा था कि चीन की अर्थव्यवस्था फिर से वापसी करेगी, लेकिन वर्ष 2015 के मध्य में जिस तरह से शंघाई स्टॉक मार्केट क्रैश हुआ, उसने पूरी दुनिया में हलचलें पैदा कर दीं। वास्तव में चीन का स्टॉक मार्केट भारत की तरह विकसित नहीं है। अधिकांश निवेशक एकल व्यक्ति उद्योग की तरह हैं और उन्होंने भारी कर्जा लिया हुआ है। नतीजा यह रहा कि जैसे ही बाजार में जरा भी गिरावट आई, रिटेल निवेशक अपने स्टॉक को रोककर नहीं रख पाए और उनमें उन्हें बेचने की होड़ लग गई। जैसी कि चीन की नियंत्रणवादी हुकूमत से उम्मीद की जा सकती है, उसने इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने के मकसद से तुरत-फुरत में स्टॉक बेचने को दंडनीय घोषित कर दिया! अफवाहें फैलाने के आरोप में कारोबारियों और मीडियाकर्मियों तक को गिरफ्तार भी किया गया! इससे कुछ सप्ताह में बाजार में आ रही गिरावट को तो नियंत्रित कर लिया गया, लेकिन नए साल की शुरुआत में चीनी इक्विटी में आए एक और क्रैश के बाद दुनियाभर के बाजार में खलबली मच गई और भारत भी इससे अछूता नहीं रहा।

पिछले साल चीन की मुद्रा को भी अनेक बार अवमूल्यित किया गया था, ताकि निर्यातों को प्रतिस्पर्धात्मक बनाया रखा जा सके। लेकिन जल्द ही चीन को समझ आ गया कि इस तरह बात नहीं बनेगी। लिहाजा अब वहां युआन को बढ़ाने की कोशिशें की जा रही हैं। हाल ही में दावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में चीन ने दुनिया को आश्वस्त भी किया कि अब युआन को और अवमूल्यित नहीं किया जाएगा। अलबत्ता चीन के पास अब भी 3 लाख करोड़ डॉलर का विशाल विदेशी मुद्रा भंडार है, किंतु चीनी कंपनियों ने जिस पैमाने पर अरबों डॉलर का कर्ज लिया हुआ है, वह उसके लिए चिंता का सबब बना हुआ है।

मुसीबत यह है कि आज विश्व-अर्थव्यवस्था एक-दूसरे से बहुत जुड़ी हुई हो गई है और एक बड़ी अर्थव्यवस्था के लड़खड़ाने का असर पूरी दुनिया पर पड़ता है। चीन में निर्मित हो रहे हालात के कारण ही पिछले तीन हफ्तों से भारत सहित पूरी दुनिया के बाजार क्रैश हो रहे हैं। दावोस में हुए सम्मेलन में भी यही सवाल निरंतर पूछा जाता रहा कि कहीं चीन के कारण वैश्विक मंदी के हालात तो निर्मित नहीं हो जाएंगे?

जहां तक भारत का सवाल है तो हाल ही में सेंसेक्स में गत 18 माह की सबसे बड़ी गिरावट दर्ज की गई और रुपया वर्ष 2013 के बाद अपने निम्नतम स्तर पर आ गया। यह हालत तब है, जब भारत अन्य देशों की तुलना में चीन पर अधिक निर्भर नहीं है। लौह अयस्क जैसी अहम कमोडिटी की कीमतों में भारी गिरावट आई है, जबकि भारत इसका बड़ा निर्यातक है। वैश्विक मांग में कमी आने से भारत के निर्यात को झटका लगा है। अटकलें लगाई जा रही है कि निर्यात को प्रतिस्पर्धात्मक बनाए रखने के लिए भारत भी रुपए को अवमूल्यित करने पर विचार कर सकता है। आज चीन निर्यात से फोकस हटाकर घरेलू बाजार पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। पूरी दुनिया की नजर इस पर है कि अमेरिका के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था यानी चीन ऐसा करने में कितना कामयाब हो पाता है!

-लेखिका आर्थिक मामलों की वरिष्‍ठ विश्‍लेषक हैं।