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वैश्विक मंदी का कैसे करें सामना-- भरत झुनझुनवाला

विश्व अर्थव्यवस्था में मंदी गहरा रही है. ग्रीस के संकट से यूरोप के अंदरूनी हालात के संकेत मिलते हैं. मूल रूप से यूरोप की प्रतिस्पर्धा शक्ति का ह्रास हो रहा है. इसका परिणाम सर्वप्रथम ग्रीस जैसे कमजोर देश में प्रकट हुआ है. चीन भी संकट में है. वर्तमान में अमेरिका और यूरोप के बाजार ठंडे पड़ने लगे हैं. फलस्वरूप चीन के निर्यात दबाव में आ गये हैं. चीन को मजबूरन अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करना पड़ा है. बावजूद अवमूल्यन के चीन की विकास दर गिरती जा रही है, चूंकि विश्व बाजार मंदा है.

फिलहाल वर्तमान में अमेरिका थोड़ा स्वस्थ दिख रहा है. पिछले सात वर्षों से अमेरिका के केंद्रीय बैंक ने ब्याज दर शून्यप्राय बना रखी है. इस सस्ते ऋण के आकर्षण में अमेरिकी नागरिक क्रेडिट कार्ड पर भारी मात्रा में खरीदारी कर रहे हैं. ग्रीस की तरह अमेरिका की सरकार भी भारी मात्रा में ऋण ले रही है. अंतर यह है कि ग्रीस छोटा देश है जबकि अमेरिका विशाल देश है.

अतएव विश्व के निवेशकों ने ग्रीस को ऋण देने से हाथ खींच लिया है और वे अमेरिका को ऋण देते जा रहे हैं. ऋण लेकर भोग करने की एक सीमा है. जैसे जमींदार के खस्ता हाल दिखने में समय लगता है वैसा ही हाल अमेरिका का है. अमेरिका भी वैश्विक स्पर्धा में टिक नहीं पा रहा है. वहां भी आय कम और खर्च जादा है, जिसकी भरपाई ऋण लेकर की जा रही है.

दरअसल ग्रीस, चीन और अमेरिका, तीनों की समस्या के मूल में वैश्विक प्रतिस्पर्धा ही है. तीनों देश माल नहीं बेच पा रहे हैं. इस परिस्थति को उत्पन्न करने का श्रेय ग्लोबलाजेशन को जाता है.

विकसित देशों की कंपनियों ने विकासशील देशों में अपने प्रतिष्ठान स्थापित करके उन्नत उत्पादों को वहां बनाना शुरू कर दिया. वियतनाम, बांग्लादेश तथा फीलीपींस जैसे देशों में श्रम की लागत कम होने के कारण उत्पादन लागत कम आती है. इन देशों की तुलना में यूरोप तथा अमेरिका में वेतन ऊंचे हैं और उत्पादन लागत अधिक आती है. ऐसे में विकसित देश प्रतिस्पर्धा में टिक नहीं पा रहे हैं. मसलन, जनरल मोटर ने कार का उत्पादन भारत और चीन में शुरू कर दिया है. फलस्वरूप अमेरिका में बनी कारों का निर्यात कम हो रहा है.

तीन वर्ष पूर्व कंपनी ने इस परिस्थिति से अपने अमेरिकी श्रमिकों को अवगत कराया और उन्हें वेतन में कटौती स्वीकारने को मना लिया. अमेरिकी श्रमिकों पर इसी प्रकार का दबाव अन्य स्थानों पर भी बन रहा है. वेतन में कटौती से अमेरिकी श्रमिकों की क्रय शक्ति घट रही है. वे चीन में बने माल को कम मात्रा में खरीद रहे हैं. इस प्रकार क्रेता अमेरिका और विक्रेता चीन दोनों ही संकट में पड़े हैं.

उपरोक्त वातावरण में हमें अपना रास्ता खोजना है. मेक इन इंडिया के तहत हमारी सरकार चीन के माॅडल को दोहराने का प्रयास कर रही है. चीन की पाॅलिसी को प्रधानमंत्री मोदी यहां लागू करना चाहते हैं और वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों से जोड़ बैठाने का प्रयास कर रहे हैं.

लेकिन इस पॉलिसी के भारत में सफल होने में संदेह दिखाई देता है, चूंकि आज जमीनी हालात बदल चुके हैं. अस्सी के दशक में चीन ने विदेशी निवेश को आकर्षित किया था. उस समय विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाएं अपने स्वर्णिम काल में थीं.

आज जनरल मोटर्स भी खस्ते हाल में है. 2008 के संकट के बाद अमेरिका ने इस कंपनी को राहत पैकेज दिया था. आज जनरल मोटर्स के श्रमिक वेतन कटौती की मार से जूझ रहे हैं.

वास्तविकता यह है कि अमेरिकी कंपनियों के पास भारत में निवेश करने के लिए आय नहीं है और अमेरिकी श्रमिकों के पास भारत में बने माल को खरीदने की ताकत नहीं है. ऐसे में बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत में निवेश करने को उत्सुक नहीं होंगी. संभवतया इन्हीं कारणों से मोदी के डेढ़ वर्ष के प्रयास के बावजूद विदेशी निवेश में ठोस वृद्धि नहीं हुई है.

इस परिस्थिति में हमें देखना चाहिए कि क्रय शक्ति का विस्तार कैसे होगा. भविष्य में विकसित एवं विकासशील देशों के बिल गेट्स जैसे अमीरों के पास क्रय शक्ति संचित हो जायेगी.

इन्हें खिलौना, टीवी और साधारण कपड़े नहीं चाहिए. इन्हें हाइफाइ डिजायनर कपड़े, विडियो गेम्स, कस्टम मूवी, स्पेस ट्रैवल आदि सेवाएं चाहिए. हमारा ध्येय इन सेवाओं के निर्यात के विस्तार का होना चाहिए. इसके लिए हमें भारी-भरकम विदेशी निवेश भी नहीं चाहिए. बस, अपने साॅफ्टवेयर स्टार्टअप कंपनियों के लिए पैकेज बनाना चाहिए. अपने देश के उद्यमियों का मनोबल बढ़ाना चाहिए, न कि विदेशी निवेश का डंका बजा कर उन्हें डाउन करना चाहिए.