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वैश्विक मंदी के संकेत देता अमेरिका- अजीत रानाडे

वर्ष 2018 का आगाज आर्थिक वृद्धि के लिए एक बड़े आशावाद के साथ हुआ. साल 2017 के समापन ने भी साल की वास्तविक वृद्धि को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के पूर्वानुमानों से आगे पहुंचा दिया था, जबकि इसके पहले के छह वर्षों के दौरान प्रत्येक वर्ष की शुरुआत में उसके द्वारा घोषित वार्षिक पूर्वानुमानों को लगातार नीचे लाने की जरूरत पड़ती रही, क्योंकि वास्तविक वृद्धि उन पर कभी खरी नहीं उतर सकी. साल 2017 ने इस मामले में उन सबको मात देते हुए आश्चर्यजनक रूप से मजबूती दिखायी.

लेकिन, साल 2018 का आरंभ अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा थोपे व्यापार प्रतिबंधों से हुआ. और धीरे-धीरे इस व्यापार युद्ध के बादल गहराते गये, जिनसे स्टॉक मार्केट की घबराहट बढ़ती गयी. फरवरी महीना भीषण बिकवाली और तेज उतार-चढ़ावों के नाम रहा. वैश्विक स्टॉक बाजारों के लिए मॉर्गन स्टैनले का पूंजी सूचकांक मूल्य के लिहाज से तीन लाख करोड़ डॉलर नीचे उतर आया, जिससे उभरती अर्थव्यवस्थाओं को भयानक आघात पहुंचा.
चूंकि उनके बाजारों से पूंजी विदा होने लगी, सो अर्जेंटीना, तुर्की, इंडोनेशिया तथा दक्षिण अफ्रीका की मुद्राएं बुरी तरह प्रभावित हुईं. अर्जेंटीना को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से लिये गये एक अभूतपूर्व ऋण ने बचाया. तुर्की के राष्ट्रपति निवेशकों को वृहत स्थिरता के आश्वासन देते रहे, किंतु उसका कोई लाभ न हुआ. उसकी मुद्रा एकदम से नीचे आ गयी, क्योंकि उसका बकाया ऋण उसके सुरक्षित विदेशी विनिमय कोष से तीन गुना अधिक जा पहुंचा.

भारत की मुद्रा भी लड़खड़ा उठी, हालांकि प्रारंभिक चरण में घरेलू निवेशकों के समर्थन से यहां के स्टॉक बाजार ने इस स्थिति को संभाले रखा. विभिन्न सिस्टमेटिक इन्वेस्टमेंट प्लान जैसी योजनाओं की वजह से स्टॉक बाजार में घरेलू निवेशों की मासिक आवक 10,000 करोड़ रुपये के स्वस्थ स्तर पर बनी हुई है, जो विदेशी मुद्रा की किसी भी अचानक निकासी का मुकाबला करने को काफी है.

उभरती अर्थव्यवस्थाओं में मुद्राओं की बदहाली ने वर्ष 2013 की यादें ताजा कर दीं. जहां ये मुद्राएं दुर्दशा से गुजर रही थीं, वहीं भारतीय स्टॉक बाजार फरवरी महीने में विकसित देशों के बाजारों की तीव्र गिरावट से अपेक्षतया बचे ही रहे.

जैसे व्यापार युद्ध का गहराता संकट ही पर्याप्त न हो, इसी बीच राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने यूरोपीय मित्र देशों की इच्छा के विपरीत यह घोषणा कर दी कि अमेरिका ईरान के साथ संपन्न परमाणु संधि से बाहर निकल आयेगा. साथ ही उन्होंने यह धमकी भी दे डाली कि भारत और चीन जैसा कोई भी तीसरा देश जो ईरान से तेल का आयात जारी रखेगा, वह अमेरिका द्वारा कड़े प्रतिबंधों का भागी होगा. इसने तेल बाजार में घबराहट का दौर ला दिया, क्योंकि ईरान से तेल की आपूर्ति बंद होने के नतीजे में तेल की कीमतें अचानक ही चढ़ उठतीं. उदाहरण के लिए भारत अपने कुल तेल आयातों का 12 प्रतिशत अकेले ईरान से लेता रहा है.

आपूर्ति का यह स्रोत बंद हो जाने से उसके लिए इतनी जल्दी कोई वैकल्पिक व्यवस्था कर पाना टेढ़ी खीर ही सिद्ध होता. परिणामस्वरूप, बाजार भयग्रस्त हो उठे. सितंबर माह में जब ये कीमतें 85 डॉलर प्रति बैरल तक जा पहुंची थीं, तो संभावना यह दिखने लगी थी कि दिसंबर अथवा जनवरी 2019 तक वे 100 डॉलर प्रति बैरल तक भी चली जायेंगी, क्योंकि सर्दियों में तेल की मांग चोटी पर चली जाती है. नतीजतन, भारत में रुपये की विनिमय दर 75 तक जा गिरी और कई विश्लेषकों ने इसके 80 तक चले जाने तक की चेतावनी दे डाली. तेल की कीमतों के चढ़ने तथा रुपये की विनिमय दर के नीचे आने के रूप में यह दोहरा आघात था देश के लिए.

मगर नवंबर में अमेरिका ने ईरानी तेल के आठ प्रमुख आयातकों को और छह महीनों की मोहलत देकर राहत दे दी. राष्ट्रपति ट्रंप ने सऊदी अरब से सार्वजनिक रूप से यह कहा कि वह अपना तेल उत्पादन बढ़ाये, ताकि तेल की कीमतें स्थिर रखी जा सकें.

इसी तरह उन्होंने यूरोपीय तेल उत्पादकों से कहा कि वे अपने उत्पादन में कोई कमी न लाएं. अक्तूबर की शुरुआत में एक सऊदी असंतुष्ट तथा वाशिंगटन पोस्ट के स्तंभकार जमाल अहमद खशोगी की तुर्की में हत्या कर दी गयी, जिसमें सऊदी सरकार के एजेंटों के हाथ होने के आरोप लगाये गये. यह एक दुखांत मगर वैश्विक तेल भू-आर्थिक राजनय के लिए महत्वपूर्ण घटना थी.

क्या तेल के उत्पादकों तथा उपभोक्ताओं की सापेक्ष सौदेबाज शक्ति पर इस हत्या का कोई असर पड़ा? क्या इसने तेल की कीमतों के मुतल्लिक सऊदी कार्रवाइयों पर राष्ट्रपति ट्रंप को ज्यादा बढ़त दे दी? ये सब अटकलों के विषय हैं.

लेकिन, न जाने किस वजह से बीते नवंबर में तेल की कीमतों में तेज गिरावट देखने को मिली, जो अब भी जारी है. फकत तीन माह पहले 85 डॉलर प्रति बैरल की ऊंचाई से ब्रेंट तेल की कीमत 55 डॉलर तक नीचे आ गयी, जो और भी नीचे जा सकती है.

उतार-चढ़ाव की यह स्थिति अभूतपूर्व ही नहीं, बल्कि अबूझ भी है. क्या यह गिरावट परदे के पीछे के राजनयिक दबावों या कि आर्थिक वृद्धि में और उसके नतीजतन मांग में मंदी का नतीजा है? उधर आय वक्र सीधा हो रहा है और अमेरिका में दीर्घावधि (10 वर्षीय बांड पर आय) ब्याज दर तीन प्रतिशत से भी नीचे आ गयी है. उच्चतर आय ऊंची वृद्धि का संकेत देती है, जबकि निम्न आय मंदी की अग्रदूतिका है.

इन सबसे ऊपर, अकेले दिसंबर में अमेरिकी स्टॉक मार्केट 10 प्रतिशत नीचे आ गिरा है. तथ्य है कि रिकॉर्ड कॉरपोरेट मुनाफे के बावजूद शेयर बाजार नीचे जा रहा है और आय में कमी हो रही है, यह बताता है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था में बड़ी मंदी के आसार बन रहे हैं. वास्तविकता यही है कि कॉरपोरेट मुनाफे का एक बड़ा भाग किसी वृहद निवेश की बजाय शेयरों की पुनरखरीद तथा शेयरधारकों को लाभांश देने में लग चुका है.

वर्ष 2019 अमेरिका में अर्थव्यवस्था तथा जॉब के सतत विस्तार का 11वां वर्ष होगा, जो युद्धोत्तर अमेरिका के इतिहास का सबसे बड़ा विस्तार है. मगर सांख्यिकी यही संकेत दे रही है कि ऐसा होने के बाद भी 2019 अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए एक धीमी वृद्धि का वर्ष हो सकता है, जो वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं होगा.
(अनुवाद: विजय नंदन)