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शक्ति की मौलिक कल्पना के नौ दिन-- पद्मा सचदेव

आज से शारदीय नवरात्र की शुरुआत हो गई है। इसे महानवरात्र भी कहा जाता है। श्रद्धालु आज से नौ दिनों तक पूजा कर मां दुर्गा की कृपा प्राप्त करेंगे। इन नौ दिनों में मां के अलग-अलग रूपों की पूजा की जाएगी, जिसे ‘शक्ति की पूजा' भी कहते हैं। जिन लोगों ने सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की राम की शक्ति पूजा पढ़ी होगी, वे यह जानते होंगे कि महाकवि निराला ने अपनी इस रचना में शक्ति की मौलिक कल्पना की है। और शक्ति अर्जन क्यों? सीता की मुक्ति के लिए।


मां दुर्गा के नौ रूपों के आराधन का यह पर्व मुझे बचपन से ही रोमांचित करता रहा है। मैं जम्मू की रहने वाली हूं और मेरा ताल्लुक एक राजपुरोहित परिवार है। मैं जब दस साल की थी, तब पहली बार नवरात्र में माता वैष्णों देवी के मंदिर गई थी और पूजा-अर्चना की थी। अब अस्सी साल की हो गई हूं, इसलिए माता के मंदिर नहीं जा पाती। लेकिन सोचती हूं कि यदि उम्र के इस पड़ाव पर मैं मां के दरबार नहीं जा सकती, तो क्या मां को मेरे जैसे भक्त के घर नहीं आना चाहिए? ईश्वर का रिश्ता हर मनुष्य के साथ अलग-अलग होता है- जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। ईश्वर की पूजा-अर्चना करने को लेकर मनुष्य-मनुष्य के बीच किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए।


एक तरफ तो देश मां आदि शक्ति की आराधना में जुटा है, वहीं दूसरी तरफ दक्षिण भारतीय प्रांत केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर विवाद चरम पर पहुंच गया है। सबरीमाला मंदिर में सभी उम्र की महिलाओं के प्रवेश के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल की गई है और खबर है कि अदालत ने इसे तत्काल सुनने से इनकार भी कर दिया है, लेकिन मुझे यह देखकर काफी आश्चर्य हुआ कि यह पुनर्विचार याचिका ‘नेशनल अयप्पा डिवोटी एसोसिएशन' की अध्यक्ष शैलजा विजयन ने दायर की थी, जो खुद एक महिला हैं। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में सबरीमाला मंदिर में सभी उम्र की औरतों के प्रवेश के रास्ते खोल दिए थे। भगवान अयप्पा के ब्रह्मचारी होने की मान्यता की वजह से अब तक इस मंदिर में औरतों के जाने की मनाही थी।


मुझे अफसोस होता है कि स्त्री ही स्त्री अधिकारों का विरोध कर रही है। स्त्रियों के मंदिर में प्रवेश के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध नहीं करना चाहिए। मैं यदि उस जगह पर होती, तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले का समर्थन करती। जहां तक रजस्वला स्त्री के मंदिर में प्रवेश से वर्जित करने का सवाल है, तो उन चार-पांच दिनों तक वे मंदिर नहीं जाती थीं। यह बात सभी स्त्रियों को पता है। लेकिन बाकी के दिनों में मंदिर में उनका प्रवेश वर्जित क्यों हो? यह भी मान लिया कि उस मंदिर के भगवान ब्रह्मचारी हैं, तो क्या मंदिर में महिलाओं के जाने से उनका ब्रह्मचर्य भंग हो जाएगा?


नवरात्र के नौ दिन हमारे लिए बडे़ पवित्र होते हैं। इसमें स्त्री-पुरुष समान श्रद्धा के साथ पूजा-अर्चना करते हैं। लेकिन दुख तो तब होता है, जब लगातार नौ दिनों तक देवी की उपासना करने वाले पुरुषों द्वारा घर के अंदर और बाहर स्त्रियों पर अत्याचार की खबरें आती हैं। शर्मनाक सच्चाई यह है कि महिलाओं के साथ जुल्म-ज्यादती के मामलों में ज्यादातर रिश्तेदार, पड़ोसी लिप्त पाए जाते हैं। अब तो मासूम बच्चियों तक को नहीं छोड़ रहे। ऐसी भयानक खबरें पढ़कर कलेजा मुंह को आ जाता है। यदि ऐसे दुराचारियों के घरों में देवी की पूजा होती है, तो मेरी नजर में वह सिर्फ दिखावा है।


कोई भी कन्या गरीब घर में पैदा हुई हो या अमीर घर में, वह श्रद्धा और सम्मान की बराबर की हकदार है। वे पूजनीय हैं। नवरात्र के दिन यही याद दिलाते हैं। इन दिनों में देश के कई हिस्सों में कन्याओं की पूजा होती है। न जाने कब से यह परंपरा निभाई जाती आ रही है। मैं जब छोटी थी, तब भी आस-पड़ोस के लोग मुझे बुलाकर ले जाते थे और ‘भेंटें' (देवी के गीत) गाकर मेरी पूजा करते थे। उसके बाद अच्छा-अच्छा भोजन खाने को मिलता और भोजन-दक्षिणा में ‘मोरी' वाला पैसा दिया जाता था।


आज एक तरफ देवी की पूजा कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ महिलाओं पर अत्याचार भी बढ़ गए हैं। इसमें धर्म के ठकेदारों की भूमिका सबसे संदिग्ध रही। अब तो आए दिन तथाकथित धर्मगुरुओं द्वारा लड़कियों से दुराचार के मामले सामने आते हैं। अनाथालयों में भी मासूम बच्चियों के साथ बलात्कार और जघन्य हत्या के समाचार मिल रहे हैं। पहले कभी-कदा ही ऐसी खबरें आती थीं और समाज उनका गंभीरता से संज्ञान भी लेता था, मगर अब देश का कोई इलाका, कोई समुदाय इन बर्बर घटनाओं से बचा नहीं है और समाज ने भी मानो इसे रोजमर्रा की बात मानकर अपने को समझा लिया है। हम दावा करते हैं कि हमारा समाज विकसित हुआ है। हमारा पिछड़ापन दूर हो रहा है, पर जब संवेदनाएं मरने लगी हों, संस्कार गिरने लगे हों, तो कैसी तरक्की?


सच कहूं, तो मुल्क की स्त्रियां आज भगवान भरोसे जिंदगी काट रही हैं। स्त्री शिक्षा और स्त्री सशक्तीकरण के तमाम वादों और दावों के बाद यह सब हो रहा है। इसलिए भारतीय महिलाओं को जागरूक, आत्मनिर्भर और सशक्त होना पड़ेगा, तभी वे जुल्म और ज्यादती का प्रतिकार कर पाएंगी। शिक्षा, पेशेवर हुनर और आर्थिक आत्मनिर्भरता उन्हें अर्जित करनी ही पड़ेगी। शक्ति के इन्हीं आधुनिक हथियारों से वे समाज में अपनी सम्मानित जगह ले पाएंगी। महिलाओं को पता है कि समाज में किस-किस तरह की राक्षसी प्रवृत्तियां हैं, उन प्रवृत्तियों का संहार होना ही चाहिए। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)