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शाक-मांस के बीच मुल्क- नासिरुद्दीन

हमारे मुल्क के खान-पान का मिजाज मांसाहार नहीं है या इस मुल्क की बड़ी आबादी शाकाहारी है- यह भ्रम है. मिथक है. तथ्य से परे है. फिर भी ऐसा क्यों है कि हमारा मानस इसे मानने को तैयार नहीं होता है. हमें यह क्यों लगता है कि यह मुल्क असलियत में शाकाहारी है और कुछ समूह या समुदाय ही मांसाहारी हैं.

सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (एसआरएस) के जून में आये आंकड़ोंके मुताबिक, इस मुल्क की लगभग एक तिहाई आबादी ही शाकाहारी है. यानी 70 फीसदी से ज्यादा लोग मांसाहारी हैं.

मांसाहार का यह अनुपात सभी जातियों और लिंगों में लगभग एक जैसा है. जैसे सामान्य, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के बीच शाकाहारी और मांसाहारी लोगों की तादाद में थोड़ा ही फर्क है. सामान्य समूह में करीब 69 फीसदी मांसाहारी हैं, तो अनुसूचित जातियों में 77 और अनू‍सूचित जनजातियों में 76 फीसदी. इन संख्याओं को यों भी देखा जा सकता है कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों में शाकाहारियों की तादाद, सामान्य वर्ग के लोगों से थोड़ी ही कम है. ये आंकड़े 15 साल और उससे ज्यादा उम्र के लोगों के खान-पान की पसंद के बारे में हैं. ये आधिकारिक हैं और सरकार के स्तर पर महारजिस्ट्रार और जनगणना आयुक्त की ओर से जारी किये गये हैं.

अब थोड़ा राज्यों के खान-पान के मिजाज के बारे में भी देखा जाये तो बेहतर है. एसआरएस की रिपोर्ट 21 बड़े राज्यों के बारे में जानकारी देती है. इसके मुताबिक, आठ बड़े राज्यों में रहनेवाले 90 फीसदी से ज्यादा लोग मांसाहारी हैं. ये राज्य उत्तर-पूर्व के नहीं हैं. इनमें आंध्र प्रदेश (98.25), बिहार (92.45), झारखंड (96.75), केरल (97), ओड़िशा (97.35), तमिलनाडु (97.65), तेलंगाना (98.7) और बंगाल (98.55) शामिल हैं. ध्यान रहे, इसमें जम्मू-कश्मीर शामिल नहीं है. जम्मू-कश्मीर की लगभग 69 फीसदी आबादी ही मांसाहारी है. असम, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, उत्तराखंड ऐसे राज्य हैं, जहां 70 फीसदी से ज्यादा लोग मांसाहारी हैं.

बड़े राज्यों में एक भी ऐसा नहीं है, जहां 90 फीसदी आबादी शाकाहारी हो. हालांकि, 21 में से चार राज्य ऐसे हैं, जहां शाकाहारी लोगों की तादाद ज्यादा है. वे हैं- राजस्थान (74.9), हरियाणा (69.25), पंजाब (66.75) और गुजरात (60.95). यानी गुजरात में भी करीब 40 फीसदी लोग मांसाहारी हैं. वहीं मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, दिल्ली, और उत्तर प्रदेश ऐसे राज्य हैं, जहां शाकाहारियों की तादाद 35 से 45 फीसदी के बीच है. यहां आंकड़े यह भी बताते हैं कि शाकाहारियों में महिलाएं ज्यादा हैं (29.3), पुरुष कम (28.4).

ऐसा नहीं है कि एसआरएस की यह रिपोर्ट कोई अकेली है, जो इस मुल्क की बहुसंख्य आबादी के शाकाहारी होने की बात बताती है. एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआइ) ने नब्बे के दशक में एक बड़ा अध्ययन किया था. इस अध्ययन के मुताबिक, भारत में रहनेवाले 4,635 समुदायों में से लगभग 88 फीसदी मांसाहारी हैं. आबादी का ये लगभग 80 फीसदी हिस्सा हैं. विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) ने दस साल पहले ‘स्टेट ऑफ द नेशन सर्वे' किया था. इसकी रिपोर्ट के मुताबिक भी देश की करीब 70 फीसदी आबादी मांसाहारी है.

इन अध्ययनों की रिपोर्ट के आंकड़ों में थोड़ा बहुत फर्क हो सकता है. लेकिन इनके नतीजे एक जैसे हैं- मुल्क में मांस खानेवालों की तादाद शाकाहारियों की तुलना में काफी ज्यादा है. इससे यह नक्शा भी बहुत साफ होता है कि वस्तुत: शाकाहार जीवनशैली कहां और किनकी है. मांस के नाम पर हो रही हिंसा की राजनीति कहां, क्यों जोर पर है, यह भी दिखता है. इससे यह भी समझने में मदद मिलती है कि गोरक्षा के नाम पर मौजूदा तनाव के केंद्र कुछ राज्यों में मजबूत क्यों हैं.

जहां शाकाहारी कम हैं यानी मांसाहारी ज्यादा हैं, वहां ‘मांस का मजहब' तय किया जा रहा है, ताकि मांसाहारियों को ‘मांस के मजहब' के आधार पर बांटा जाये. मांसाहार में भी कौन किस चीज का मांस खाता है- यानी कहीं एक मांसाहारी, दूसरे मांसाहारी के ‘मजहब का मांस' तो नहीं खाता. ऐसे ही काम के लिए ‘रक्षकों' ने जगह-जगह मोरचा संभाल रखा है.

खान-पान, कपड़ा-लत्ता का रिश्ता संस्कृति से है. सांस्कृतिक परिवेश से है. इसका रिश्ता आर्थिक हालत से भी है. मांस खाने का स्वाद कहीं बाहर से आया हो, इतने बड़े आंकड़े से यह नहीं लगता है. मुल्क के एक कोने से दूसरे कोने तक खान-पान में मांस की मौजूदगी भी यही इशारा करती है. इसीलिए शाकाहार जीवनशैली अपनाने का आंदोलन तो दिखता है, मगर मांसाहार अपनाने के लिए कोई मुहिम नहीं दिखती है.

मांसाहार किसी एक-दो समुदायों या जातियों तक सीमित नहीं है. वहीं इसके उलट शाकाहार सीमित दायरे में है.यह सीमित समूह, ज्यादातर समाज का मजबूत तबका है. समाज के रीति-नीति पर उसकी मजबूत पकड़ है. वह अपनी रीति-नीति को ही समाज की असरदार संस्कृति बनाना चाहता है. इसलिए वह खान-पान की श्रेष्ठता का शास्त्र बनाता है. इसे ही सभ्यता व संस्कृति का शास्त्र बताता है. वह चाहता है, सब उसके मुताबिक ही ‘सभ्य और सुसंस्कृ‍त' हों. तनाव का एक केंद्र, यह भी है.

वैसे, हमारे देश की अधिकांश आबादी जीने के लिए खाती है. स्वाद के मौके उसके जीवन में कम आते हैं. उसके आसपास जो भी आसानी से मिलता है, वह उस पर जिंदगी गुजारती है. फिर वह चाहे चूहा-चींटी-सांप ही क्यों न हो. क्या खायें, क्या न खायें- इसे चुनने का मौका अब भी इस मुल्क की बड़ी आबादी के पास नहीं है. और अगर है भी, तो यह तय करने का हक किसने, किसे दिया है- कि कोई क्या खायेगा?

असल में खान-पान की श्रेष्ठता की राजनीति, लो‍कतांत्रिक मूल्यों को दरकिनार करने की राजनीति है. कोई क्या खायेगा- यह किसी व्यक्ति की निजी आजादी का भी मामला है. यह मुल्क के हर नागरिक के मौलिक अधिकार का भी मसला है. कोई किसी पर किसी की मर्जी के खिलाफ अपनी जीवनशैली नहीं थोप सकता. न ही किसी को यह हक बनता है कि वह अपनी जीवनशैली या खान-पान को सबसे बेहतरीन और दूसरे के खान-पान को नीच बताये.