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शिक्षक को मजबूर बनाती व्यवस्था-- मनीषा सिंह

हमारे समाज में शिक्षक काफी सम्मान का पात्र समझा जाता रहा है। देश की भावी पीढ़ी या भविष्य कहलाने वाले बच्चों और अंतत: समाज को शिक्षा व सही दिशा-निर्देश देने की शिक्षक की भूमिका में तो अब भी कोई बदलाव नहीं हुआ है, पर आधुनिक व्यवस्था में वह समाज के सबसे निरीह प्राणी के रूप में देखा जाने लगा है। इसका कारण सिर्फ यह नहीं है कि शिक्षक के रूप में कुछ लोगों ने समाज का सिर शर्म से झुकाने वाली काली करतूतें की हैं बल्कि यह भी है कि शिक्षक को चंद हजार रुपए के वेतन के बदले काम करने वाला ऐसा कर्मचारी मान लिया गया है जो सिर झुका कर व्यवस्था के सारे आदेश मान लेता है। निजी स्कूलों में वह बेहद मामूली वेतन पर काम करने को मजबूर है तो सरकारी विद्यालयों में उसे पठन-पाठन के अलावा व्यवस्था से जुड़े ऐसे-ऐसे कार्य करने को मजबूर किया जाता है जिनका शिक्षण से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं होता।

हाल में शिक्षकों की ऐसी दशा को लेकर उठे एक मामले में सर्वोच्च अदालत ने भी टिप्पणी की है। अदालत ने बिहार में नियोजित शिक्षकों को चपरासी से भी कम वेतन देने पर फटकार लगाई है और कहा है कि जो शिक्षक देश के भविष्य का निर्माण करने वाले माने जाते हैं, खुद उनका भविष्य इतना अंधकारमय क्यों रखा जा रहा है। अदालत ने इस पर हैरानी जताई कि बिहार में आखिर एक शिक्षक का वेतन 21 हजार रुपए प्रतिमाह क्यों है, जबकि चपरासी का वेतन 36 हजार रुपए है। यह सच में एक विडंबनापूर्ण स्थिति है कि सरकारी स्कूलों के अध्यापकों को भी इस तरह की वेतन विसंगति का सामना करना पड़ रहा है।

निजी स्कूलों में शिक्षक की दुर्दशा के बारे में तो जितना कहा जाए, कम है। देश में शायद ही ऐसा कोई निजी स्कूल होगा जो शिक्षक को पांच-सात रुपए का वेतन पकड़ा कर उससे पंद्रह-बीस हजार रुपए के हलफनामे पर दस्तखत नहीं कराता होगा। अब तो हिसाब-किताब में सरकार की सख्ती के बाद निजी स्कूलों के संचालक शिक्षकों के बैंक खाते में शिक्षा बोर्डों द्वारा निर्धारित वेतन डालते हैं जिसमें से आधी या ज्यादा रकम निकाल कर अगले दिन शिक्षकों को स्कूल प्रबंधन के पास जमा करानी होती है। जो शिक्षक इसकी शिकायत करता है या रकम जमा कराने में आनाकानी करता है, उसे तुरंत नौकरी से हटा दिया जाता है। क्या सरकार इसकी रोकथाम का कोई उपाय कर सकती है?

बहरहाल, जहां तक कम वेतन के बावजूद शिक्षक के कामकाज का सवाल है, तो ध्यान रहे कि अध्यापन के अलावा एक शिक्षक से अमूमन अपेक्षा होती है कि वह बच्चों में नैतिक बल पैदा करे, उन्हीं सही-गलत का फर्क बताए, देशप्रेम का पाठ पढ़ाए और अनुशासन का महत्त्व समझाए। इसमें कोई संदेह नहीं कि ये सभी एक आदर्श शिक्षक के लिए जरूरी कर्तव्य हैं, वह इनसे मुंह नहीं चुरा सकता है। पाठ्यक्रम पूरा कराना, समय पर परीक्षा लेना, कापियां जांचना और उचित मूल्यांकन कर अच्छे छात्रों को प्रोत्साहित करना और पिछड़ने वाले छात्रों की कमियां दूर कर उन्हें आगे बढ़ाना भी एक शिक्षक की ड्यूटी है। पर लंबे समय से सरकारी शिक्षक इनके अलावा भी कई ऐसे काम करते रहे हैं जिन्हें देश या समाज की सेवा की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। जैसे चुनावों से संबंधित कार्य करना, जनगणना सरीखे कार्यों में संलग्न होना। देश-प्रदेश में जब भी चुनाव होते हैं, प्रशासन को चुनाव ड्यूटी के लिए शिक्षक ही याद आते हैं। जनगणना जैसे जरूरी कार्यों में भी शिक्षकों की तैनाती होती है।

एक वक्त था, जब देश स्नातक स्तर की डिग्री रखने वाले लोग कम थे। तब शिक्षकों को जनगणना अथवा चुनाव ड्यूटी में लगाने का तर्क समझ में आता था, क्योंकि आंकड़े दर्ज करने जैसे काम का शिक्षक ही उचित ढंग से निर्वाह कर सकते थे। पर अब तो देश में ऐसे पढ़े-लिखे बेरोजगारों की कमी नहीं है जो ऐसे सभी काम बखूबी कर सकें। इसके बावजूद चुनाव और जनगणना के काम में शिक्षकों को लगाने की परिपाटी नहीं बदली है। इधर, एक और जटिल काम शिक्षकों के माथे मढ़ दिया गया है। ज्यादातर स्कूली शिक्षकों से अपेक्षा की जा रही है कि वे बच्चों को परोसे जाने वाले भोजन यानी मिड-डे मील की निगरानी करें और उसे चख कर भी देखें कि वह भोजन खाने-योग्य है या नहीं। बच्चों को परोसे जाने वाले भोजन की गुणवत्ता की जांच-परख हो, यह तो एक जरूरी काम है, पर इस काम को शिक्षक ही करें, यह एक हास्यास्पद बात है।

ऐसी व्यवस्था का क्या नतीजा निकल सकता है, इसकी एक बानगी कुछ साल पहले दिल्ली में नगर निगम के एक प्राथमिक बाल विद्यालय में देखने को मिली थी, जहां प्रधानाचार्य व मिड-डे मील प्रभारी समेत तीन लोग भोजन चखने के बाद बीमार हो गए थे। हालांकि इस व्यवस्था का यह लाभ तो अवश्य हुआ कि बच्चे वह भोजन करने से बच गए जिससे उनकी स्थिति भी बिगड़ सकती थी, पर यह कैसा नियम है कि प्रधानाचार्य और शिक्षक ही उस भोजन की जांच करें। शायद यही कारण है कि बिहार समेत कई राज्यों के शिक्षकों ने मिड-डे मील की जांच करने की जिम्मेदारी लेने से न सिर्फ इनकार कर दिया था बल्कि इस व्यवस्था के विरोध में आंदोलन भी छेड़ा था।

चुनाव ड्यूटी, जनगणना जैसे कार्यों के बाद अब मिड-डे मील या आयरन की गोली खिलाने जैसे कार्यों में शिक्षक को नियुक्त करने वाली व्यवस्था क्या यह देख पा रही है कि इन कार्यों में संलग्नता के कारण शिक्षक अपने मूल कार्य यानी अध्ययन-अध्यापन से विमुख हो रहे हैं। विद्यालय आकर उन्हें जो समय बच्चों को पढ़ाने में लगाना चाहिए, वह मिड-डे मील की माकूल व्यवस्था बनाने और आयरन गोली खिलाने जैसे स्वास्थ्य-रक्षा अभियानों में ही व्यतीत हो जाता है। इस पर विडंबना यह है कि अपना सारा निर्धारित काम छोड़ कर गैर-शिक्षण प्रवृत्ति के ये सारे काम करने के बावजूद यदि कोई हादसा हो जाता है, तो उसका ठीकरा भी शिक्षकों पर फोड़ा जा सकता है।

फिलहाल हालात ये हैं कि स्कूल आने के बाद शिक्षक का आधे से ज्यादा समय तो उन कार्यों में व्यतीत हो जाता है जिनका पढ़ाई-लिखाई से कोई लेना-देना नहीं है। कई स्कूलों में तो बच्चों को ड्रेस बांटने, कॉपी-किताबें वितरित करने और छात्रवृत्ति का हिसाब-किताब रखने आदि काम भी करने पड़ते हैं। एक शिक्षक के कामकाजी घंटों का आधा समय तो पढ़ाई-लिखाई से बाहर की चीजों में ही जाया हो जाता है।

शिक्षकों को बीएड-एमएड जैसे पेशेवर पाठ्यक्रमों के जरिए पठन-पाठन का जो प्रशिक्षण मिलता है, उसमें यह बात कहीं शामिल नहीं है कि शिक्षक बनने के बाद उन्हें चुनाव ड्यूटी के अलावा मिड-डे मील की व्यवस्था बनाने और परोसे जाने वाले भोजन की जांच में भी संलग्न होना पड़ेगा। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कुछ समय पहले कहा था कि बच्चों के लिए मिड-डे मील की व्यवस्था करना एक गैरशिक्षण कार्य है और इसमें शिक्षकों को लगाना उचित नहीं है। इसलिए जरूरी है कि सरकार व प्रशासन शिक्षकों के असली दायित्वों के प्रति गंभीर हों और उनके वेतन से जुड़ी विसंगतियों को दूर किया जाए। मिड-डे मील और बच्चों को आयरन की गोली खिलाने जैसे कामों का जिम्मा यदि ग्राम पंचायतों और स्कूल प्रशासन की संयुक्त समितियों पर डाला जाए, तो बेहतर होगा।