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शिक्षक होने के मायने क्या? : सतीश झा

हाल ही की एक खबर पर बहुत कम लोगों का ध्यान गया, जबकि भारत के शैक्षिक भविष्य में दिलचस्पी रखने वाले हर व्यक्ति की रुचि उसमें होनी चाहिए। मानव संसाधन विकास मंत्री ने एक आश्चर्यजनक बयान दिया था। उन्होंने कहा था कि आज देश में पांच लाख से भी अधिक ‘शिक्षक’ नौकरी की तलाश में हैं।

यह बात सुनकर मैं सोच में पड़ गया कि सरकार में बैठे हमारे हुक्मरान क्या कभी कोई बात कहने से पहले यह सोचते भी हैं कि उसके क्या निहितार्थ हो सकते हैं? देश में शिक्षकों की स्थिति के बारे में विचार करें। इनमें से कितने ऐसे हैं, जिन्हें हम यह जिम्मेदारी सौंपना चाहेंगे कि वे हमारे बच्चों को पढ़ाएं? क्या उनके साथ कोई सार्थक विमर्श किया जा सकता है? क्या वे गुणवत्तापूर्ण मानकों के अनुरूप शिक्षित हैं भी? क्या वे कोई भी ऐसी चीज कर सकते हैं, जिस पर आप गर्व कर सकें? जो व्यक्ति खुद किसी चीज में सिद्धहस्त नहीं है, वह भला आपके बच्चों को कैसे पढ़ा सकता है?

यहां कुछ विशेष स्कूलों की बात नहीं हो रही है। अमेरिका में ब्लू रिबन स्कूल होते हैं, जो हमारे देश की ही तरह सरकारी स्कूल हैं और जहां छोटे बच्चे मुफ्त में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करते हैं, लेकिन इन स्कूलों की कक्षाओं में कभी-कभी हार्वर्ड से पीएचडी करने वाले किसी शिक्षक का पाया जाना आम है। इसके उलट भारत के गांवों के सरकारी स्कूल ज्यादा से ज्यादा इसी बात पर गर्व कर सकते हैं कि उनके पास हर कक्षा के लिए एक अलग कमरा है।

आमतौर पर तो भारतीय ग्रामीण स्कूलों में एक ही कमरे में चार कक्षाएं संचालित होती हैं। पढ़ने के लिए इतनी मात्रा में बच्चे ही नहीं आते कि एक से अधिक शिक्षक रखे जाएं। हमारे प्राथमिक शिक्षकों का स्तर आमतौर पर यही रहता है कि वे इस दर्जे के विद्यार्थियों को कुछ पढ़ा सकें, लेकिन वे अपने आसपास की दुनिया के बारे में ज्यादा नहीं जानते। वे ठीक तरह से अपने विचार भी नहीं रख सकते। वे देश के साक्षरता अभियान में जरूर मददगार साबित हो सकते हैं, लेकिन वास्तव में शिक्षा और साक्षरता दो अलग-अलग चीजें हैं।

एक बार मैं एक बड़े उद्योग घराने द्वारा प्रायोजित किसी स्कूल में गया तो मैंने पाया कि तीसरी क्लास के विद्यार्थियों को एक शिक्षिका ने सिखाया था कि अंग्रेजी के अक्षर ‘क्यू’ का उच्चारण ‘क्वे’ की तरह किया जाता है। मुझे बच्चों को समझाने में थोड़ा समय लगा कि ‘क्यू’ का उच्चरण ‘क्यू’ की तरह किया जाना चाहिए, ‘क्वे’ की तरह नहीं। इस बुनियादी भूल के लिए कौन दोषी है? क्या वह शिक्षिका, जिसने बच्चों को गलत उच्चारण सिखाया था? कौन जाने, वह बाकी अक्षरों का उच्चारण किस तरह करती होगी और उसने बच्चों को क्या सिखाया होगा। मजे की बात यह है कि उस शिक्षिका की बातों को गांव में अटल सत्य माना जाता था, क्योंकि वह गांव की सर्वाधिक ‘शिक्षित’ महिला थी।

हमारी शिक्षा की आज यह बुनियाद है। कल्पना करें कि यदि हम पांच लाख से अधिक और ऐसे शिक्षकों की नियुक्ति कर दें, जिनके पास बच्चों को पढ़ाने की ‘पात्रता’ है, तो हमारी शिक्षा की गुणवत्ता कैसी होगी। क्या इस बात की कोई संभावना होगी कि पांच लाख से अधिक ये संभावित शिक्षक मौजूदा शिक्षकों से अधिक योग्य होंगे या कहीं ऐसा तो नहीं कि उनकी योग्यता उन विद्यार्थियों से भी कम हो, जिन्हें पढ़ाने और शिक्षित करने के लिए उन्हें सक्षम समझा जा रहा है?

देश के मानव संसाधन विकास मंत्री का कहना था कि शिक्षा का अधिकार केवल तभी सार्थक होगा, जब शिक्षा की गुणवत्ता सुधरेगी। जब यह कानून पास किया गया था, तब उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं कही थी। उन्हें केवल इतना ही करना था कि वे विधेयक में शिक्षकों की गुणवत्ता के कुछ बुनियादी मानदंडों का भी समावेश करते, लेकिन वास्तव में शिक्षा की गुणवत्ता एक ऐसी चीज है, जिस पर भारत में पहले नहीं, बाद में विचार किया जाता है। तब यह होता है कि हमारे पास गुणवत्ता के कोई निर्धारित मानक नहीं होते। ऐसे में कल्पना करें कि यदि इन लाखों शिक्षकों को रातोंरात नियुक्त कर दिया जाता है तो बच्चे भला उनसे क्या सीखेंगे? वे उन गुणवत्ताओं में अपना योगदान किस तरह देंगे, जिनकी तरफ मंत्री महोदय इशारा कर रहे हैं? और यह नई प्रणाली हमारी मौजूदा प्रणाली से किस तरह भिन्न होगी, जो कि पिछले छह दशकों से चली आ रही है।

कोई भी व्यक्ति रातोंरात शिक्षक नहीं बन जाता। यह वर्षो की प्रक्रिया होती है। एक अच्छा शिक्षक बनने के लिए बहुत परिश्रम करना पड़ता है, लेकिन उसके लिए सबसे जरूरी तो यही है कि खुद उसकी शिक्षा-दीक्षा अच्छी हुई हो। यदि हम 65 सालों में अच्छे शिक्षक नहीं तैयार कर पाए तो क्या गारंटी है कि आने वाले सालों में हम ऐसा कर पाएंगे? भारत के लिए जरूरत इस बात की है कि पहले उन बातों पर ही गहन मंथन किया जाए, जिन पर सबसे पहले बात की जानी चाहिए, लेकिन होता है इसके उलट। हमारे हुक्मरानों द्वारा जिस तरह न्यस्त स्वार्थो के मद्देनजर निर्णय लिए जाते हैं, उससे उनके निर्णय लोकहित के मसलों पर एक खुले विमर्श का कारण नहीं बन पाते।

समस्या को वेबसाइट पर डाल देने भर से कुछ नहीं होगा। उल्टे इससे नीति-निर्माण की प्रणाली ‘लोकहित’ से और दूर होती चली जाएगी। वास्तव में हमें ऐसे लोगों के एक कैडर की जरूरत है, जो आने वाले कल को ध्यान में रखते हुए नीतियां बना सकें। नीतियों को एक खुले विमर्श की प्रक्रिया से गुजारना भी नेतृत्व का दायित्व होना चाहिए। हर दृष्टिकोण से सुविचारित नीतियां, जो जनहित पर केंद्रित हों, एक बेहतर भविष्य के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं।

हम एक राष्ट्र के रूप में अपनी मेधा का समुचित दोहन नहीं कर सके हैं। आज भारत का दुनिया में वह मुकाम नहीं है, जो होना चाहिए था। नोबेल पुरस्कार जीतने वाले भारतीय अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं। सेलफोन ने जिस तरह दूरसंचार जगत को बदलकर रख दिया, हमें उसी तरह के परिवर्तनों की जरूरत है। टेलीकॉम के क्षेत्र में हमने वैश्विक समाधानों को अंगीकार किया था। हमें इससे सबक लेना चाहिए। अदूरदर्शी नीतियों में यहां-वहां पैबंद लगाकर काम चलाने के बजाय हमें अपनी दृष्टि का दायरा विस्तृत करना होगा। तभी हम एक देश के रूप में उस मुकाम तक पहुंच पाएंगे, जहां हम पहुंचने के योग्य हैं।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ओएलपीसी इंडिया फाउंडेशन के चेयरमैन हैं।