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शिक्षा और परीक्षा--- मनोज निगम

परीक्षा के दिनों में इसका खौफ जिस तरह शुरू हो जाता है, शिक्षण तंत्र से बाहर निकल कर ही समझ में आता है कि हमने कहां गड़बड़ की, शिक्षक कैसे थे, उनका हमारे ऊपर क्या प्रभाव पड़ता था, व्यवस्थाएं कैसी हैं। यह सब समझ में आता है जब पढ़ाई के बाद जीवन की परीक्षा होती है। पहली बार स्कूल गया तो वहां की शिक्षिका की याद अब तक बरकरार है। पढ़ाती थीं और लंच में अच्छी-अच्छी चीजें भी खिलाती थीं। उन दिनों मिड-डे मील जैसी कोई योजना नहीं थी। लगता था कि खाना भी स्कूल का ही एक हिस्सा है। एक दिन जब स्कूल पहुंचा तो मालूम हुआ कि बच्चों को स्कूल से ड्रेस मिल रही है। मुझे नहीं मिली तो जोर-जोर से रोने लगा। शिक्षिका पर बहुत गुस्सा आया कि बाकी बच्चों को तो इतनी अच्छी ड्रेस मिली, मुझे नहीं। बाद में मालूम हुआ कि वह सिर्फ अनुसूचित जाति और जनजाति के बच्चों के लिए थी। तीसरी कक्षा में सागर के लाल स्कूल में दाखिला लिया। पहली बार स्कूल गया तो लगभग साठ-सत्तर बच्चों के सबसे पीछे बैठने की जगह मिली। मास्टर जी सुलेख लिखवा रहे थे। मैं भी लिखने बैठ गया। इतनी भीड़ में जो सुनाई देता, वही लिखता रहा। यह क्रम कुछ दिनों तक चला। एक दिन मास्टर साहब ने बड़े भाई को बुलवा लिया और बताया कि बाकी सब तो ठीक है, मगर हर वाक्य के बाद ये ‘उढरम' जाने क्यों लिखता है। हम तो नहीं समझ सके, आप ही पता कीजिए। भाई ने पूछा तो बता दिया कि जो मास्टर साब बोलते हैं, वही तो लिखता हूं। खोजने पर मालूम हुआ कि मास्टर साहब हर लाईन के बारे में पूर्ण विराम कहते थे। भीड़ में जो सुनाई देता वही लिखते थे। उसके बाद उन्होंने पूर्ण विराम के बारे में बताया और कक्षा में आगे बैठाना शुरू किया।


अभी तक तो सभी अच्छे शिक्षक मिले। सातवीं कक्षा में भोपाल वापसी हुई। साथ के बच्चों ने बताया कि त्रिपाठी जी से बच कर रहना बहुत खतरनाक है। वे अंग्रेजी पढ़ाते थे। एक बार होमवर्क नहीं किया तो उनके हत्थे चढ़ गया। साथ में तीन लड़के और थे। हेडमास्टर साहब के कमरे में ले जाकर चारों को खड़ा कर दिया। थोड़ी देर में वापस आए तो उनके हाथ में काला-सा डंडा था।फिर क्या...! हाथों पर सटा-सट सटा-सट! आंसू लगातार बह रहे थे, आंखें भींच ली। इतने में कांच टूटने की आवाज आई। देखा कि उन्होंने गुस्से में हाथ ज्यादा ऊपर कर दिया था, तो ऊपर की ट्यूबलाइट चकनाचूर। हम सभी पर टुकड़े बिखर गए। वे भी थोड़ा डर तो गए ही होंगे! हमको छोड़ दिया और उसके बाद उनसे कभी मार नहीं पड़ी। अगली कक्षा में संस्कृत शुरू हो गई। एक मास्टर साहब पढ़ाते थे। श्लोक याद नहीं होने पर ऐसी सजाएं देते थे, जिनके बारे में कभी सुना नहीं। जैसे अंगुलियों में पेंसिल फंसा कर धीरे-धीरे दबाव बढ़ाना, जब तक कि चीख न निकल जाए। लड़कियों के बाल खींच कर झिंझोड़ना, श्लोक याद करने वाले बच्चों से चांटे खिलवाना।


अब तक तो शिक्षकों से प्यार का या फिर मार का ही वास्ता पड़ा, पढ़ाने का तो होता ही था।एक शरीफ साहब मिले। छह फीट से अधिक ऊंचाई वाले वे हमको ‘महामानव' की तरह दिखते थे। कक्षा में बच्चों से बात करते करते हुए गालियां भी दे देते थे। नौवीं कक्षा में बच्चों को बाहर की हवा लगनी शुरू ही हो जाती है। साथ के बच्चों को चुपके से सिगरेट पीते, कक्षा छोड़ कर फिल्म देखते, बाहर घूमते मैंने भी देखा था और यह शरीफ साहब ने भी देखा था। पकड़े गए बच्चों को कभी मारा, कभी डांटा, कभी प्यार से भी समझाया- ‘क्यों मां-बाप का पैसा बर्बाद करते हो... किस तरह तुम्हारे मां-बाप पैसा इकट्टा कर तुम्हें पढ़ाते-लिखाते हैं और तुम लोग...! अरे पढ़-लिख कर अच्छे इंसान बनो, अपने मां-बाप का नाम रोशन करो।' फिर प्यार भी बहुत करते थे।मालूम नहीं कि बच्चों पर उनकी बातों का कितना असर हुआ, लेकिन मेरे दिलो-दिमाग पर उनकी एक-एक बात घर कर गई। आज भी याद आता है उनका चेहरा। मेंहदी लगे बाल और दाढ़ी, पान चबाता उनका मुंह, उनकी गालियां और उनका स्नेह। अब भी उनकी याद आती हैं तो आंखें नम हो जाती हैं। इसके बाद भी कई शिक्षक मिले, जिन्होंने जो शिक्षा दी वह हमारे कोर्स में नहीं थी। शिक्षा दी समाज में रहने के तौर-तरीकों की और इंसान बनने की। कुछ इस तरह भी थे कि ट्यूशन की दुकान चलाई, कुछ ने नकल कराई, कुछ ने टाईम ही काटा। कुछ ने प्रोत्साहित किया, दिशा दी और कुछ खुद ही दिशाहीन हो गए। परीक्षा का मौसम आते ही याद आ जाती है स्कूलों की, जागती रातों की, तमाम शिक्षकों की, परिणामों की और परिणाम के बाद होने वाले उदास या फिर उल्लास भरे लम्हों की ‘उढरम'!