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शिक्षा की चिंताजनक स्थिति-- आशुतोष चतुर्वेदी

किसी भी देश की आर्थिक और सामाजिक प्रगति उस देश की शिक्षा पर निर्भर करती है. शिक्षित समाज ही आगे बढ़ता है. अच्छी शिक्षा के बगैर बेहतर भविष्य की कल्पना नहीं की जा सकती. अगर देश की शिक्षा नीति अच्छी है, तो उस देश को आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता. अगर शिक्षा नीति अच्छी नहीं होगी, तो विकास की दौड़ में वह देश पीछे छूट जायेगा. राज्यों के संदर्भ में भी यह बात लागू होती है.


यही वजह है कि शिक्षा की वजह से हिंदी पट्टी के राज्यों के मुकाबले दक्षिण के राज्य हमसे आगे हैं. हम सब यह बात बखूबी जानते हैं, बावजूद इसके पिछले 70 वर्षों में हमने अपनी शिक्षा व्यवस्था की घोर अनदेखी की है.


हाल में झारखंड, बिहार और सीबीएसइ समेत अनेक बोर्डों के नतीजे आये हैं, लेकिन एक गंभीर बात उभरकर सामने आयी है कि इस बार विज्ञान में उत्तीर्ण होने वाले छात्रों का प्रतिशत बहुत कम है. बिहार में 12वीं की परीक्षा में विज्ञान में लगभग 45 फीसदी छात्र उत्तीर्ण हो पाये हैं. यही स्थिति झारखंड की है.


यहां भी 12वीं में विज्ञान पढ़ने वाले लगभग 48 फीसदी छात्र पास हो पाये हैं यानी बिहार और झारखंड दोनों राज्यों में विज्ञान पढ़ने वाले आधे से अधिक छात्र फेल हो गये हैं. यह चिंताजनक स्थिति है, क्योंकि देश के अधिकांश बच्चे विज्ञान पढ़ रहे हैं और इंजीनियर बनना चाहते हैं.


दूसरी ओर आइटी क्षेत्र की जानी-मानी कंपनी टेक महिंद्रा के सीइओ सीपी गुरनानी ने बहुत गंभीर बयान दिया है. उनका कहना था कि आइटी क्षेत्र के 94 फीसदी इंजीनियरिंग ग्रेजुएट बड़ी भारतीय आइटी कंपनियों के काबिल ही नहीं हैं. गुरनानी कहते हैं कि नयी तकनीक के क्षेत्र में प्रवेश करना भारतीय आइटी कंपनियों के लिए बड़ी चुनौती है, लेकिन जब इन सब बातों को देखते हुए नौकरी की बात आती है, तो बड़ी आइटी कंपनियां 94 फीसदी आइटी ग्रेजुएट भारतीयों को इसके योग्य नहीं पाती हैं.


गुरनानी का कहना हैं कि नासकॉम के अनुसार 2022 तक साइबर सुरक्षा में लगभग 60 लाख लोगों की जरूरत पड़ेगी, लेकिन हमारे पास दक्ष लोगों की कमी है. देश के लिए ये संकेत अच्छे नहीं हैं. देश में अब भी बहुत बड़ी संख्या में बच्चे इंजीनियरिंग की पढ़ाई करत रहे हैं. हालांकि पहले की तुलना में इसमें कमी आयी है.


इसकी एक वजह गली-कूचे में खुले इंजीनियरिंग कॉलेज तो हैं ही, इंजीनियरों की मांग में भारी कमी भी इसकी वजह है. तकनीकी शिक्षा की नियामक संस्था ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्न‍िकल एजुकेशन के अनुसार हाल में लगभग 200 इंजीनियरिंग कॉलेजों ने बंद करने के लिए आवेदन किया है. इन कॉलेजों के बंद हो जाने के बाद इंजीनियरिंग की तकरीबन 80 हजार सीटों में कमी आ जायेगी. ऐसा आकलन है कि पिछले चार वर्षों में इंजीनियरिंग कॉलेजों में तकरीबन 3.1 लाख सीटें कम हुईं हैं, क्योंकि इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले छात्रों की संख्या में लगातार कमी आ रही है.


एआइसीटीइ के अनुसार इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले हर साल लगभग 75 हजार छात्र कम हो रहे हैं. कुल मिलाकर, हालात यह बता रहे हैं कि शिक्षा व्यवस्था में व्यापक सुधार का वक्त आ गया है. आप गौर करें कि हमारे यहां हर साल एक कहानी दोहरायी जाती है कि किसी-न-किसी बोर्ड में कोई परचा लीक हो जाता है.


इस बार सीबीएसइ की 12वीं की परीक्षा में पर्चा लीक हुआ और बच्चों को अर्थशास्त्र का इम्तिहान दोबारा देना पड़ा. पेपर लीक करने के पीछे कोई गैंग पूरी योजनाबद्ध तरीके से काम करता है और हमारी व्यवस्था उससे निबटने में नाकामयाब रहती है, लेकिन हम इससे सबक लेते नजर नहीं आते. अक्सर हम बोर्ड परीक्षाओं की अनियमितताओं पर रोकने में असफल हो जाते हैं. यह खबर न केवल बच्चों, बल्कि उनके माता-पिता के लिए भी तनाव पैदा करती है. ये परीक्षाएं कितनी अहम हैं कि इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बच्चों को परीक्षा दिलवाने के लिए माता-पिता अपने दफ्तरों से छुट्टी लेते हैं.


हम सब जानते हैं कि 10वीं और 12वीं की परीक्षाओं को लेकर बच्चे भारी तनाव में रहते हैं. कई बार यह तनाव दुखद हादसों को जन्म दे देता है, लेकिन हमारी व्यवस्था बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ करने वाले अपराधियों को कड़ी सजा नहीं दिलवा पाती. हमारे विभिन्न बोर्ड में कोई एकरूपता भी नहीं है. सीबीएसइ के छात्रों के नंबर देखिए. उन्हें कितनी उदारता से नंबर दिये जाते हैं.


टॉपर 500 में 499 नंबर ला रहे हैं. 90 फीसदी नंबर लाने वाले बच्चों की संख्या बड़ी है. विज्ञान को तो छोड़िए, आर्टस के बच्चे भी 100 में 100 नंबर लाते हैं. दूसरी ओर बिहार और झारखंड बोर्ड के नंबरों से उनकी तुलना करें, तो वे आसपास भी नहीं है. बिहार और झारखंड के शिक्षकों की कड़ाई से नंबर देने की आदत अभी तक छूटी नहीं है. नतीजा यह होता है दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों में जहां प्रवेश का एक बड़ा आधार नंबर होते हैं, वहां सीबीएसइ बोर्ड के बच्चों का बोलबाला रहता है.


हम सब यह बात जानते हैं कि बच्चों का पढ़ाना कोई आसान काम नहीं है. बच्चे, शिक्षक और अभिभावक शिक्षा की तीन महत्वपूर्ण कड़ी हैं. इनमें से एक भी कड़ी के ढीला पड़ने पर पूरी व्यवस्था गड़बड़ा जाती है.


हालांकि शिक्षक शिक्षा व्यवस्था की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कड़ी हैं. शिक्षा के बाजारीकरण के इस दौर में न तो शिक्षक पहले जैसे रहे और न ही छात्रों से उनका पहले जैसा रिश्ता रहा. पहले शिक्षक के प्रति न केवल विद्यार्थी, बल्कि समाज का भी आदर और कृतज्ञता का भाव रहता था.

अब तो ऐसे आरोप लगते हैं कि शिक्षक अपना काम ठीक तरह से नहीं करते. इसमें आंशिक सच्चाई भी है कि बड़ी संख्या में शिक्षकों ने दिल से अपना काम करना छोड़ दिया है. वे अपने दायित्व का निर्वाह नहीं कर रहे हैं. इसकी रोकथाम के उपाय करने होंगे, अध्यापकों को जवाबदेह बनाना होगा.


परीक्षा परिणामों को उनके परफॉर्मेंस और वेतनवृद्धि से जोड़ना होगा, पर यह भी सच है कि प्रशासन लगातार शिक्षकों का इस्तेमाल गैर शैक्षणिक कार्यों में करता है. प्रशासनिक अधिकारी शिक्षा और शिक्षकों को हेय दृष्टि से देखते हैं. यही नहीं, किसी भी देश के भविष्य निर्माता कहे जाने वाले शिक्षक का समाज ने भी सम्मान करना बंद कर दिया है. उन्हें दोयम दर्जे का स्थान दिया जाता है.


आप गौर करें तो पायेंगे कि टॉपर बच्चे पढ़ लिखकर डॉक्टर, इंजीनियर और प्रशासनिक अधिकारी तो बनना चाहते हैं, लेकिन कोई शिक्षक नहीं बनना चाहता. साथ ही, इस देश का यह दुर्भाग्य है कि शिक्षा कभी चुनावी मुद्दा नहीं बनती. इसी उपेक्षा ने हमारी शिक्षा को भारी नुकसान पहुंचाया है.