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शिक्षा के 'उद्योग' में फीस नियंत्रण की रस्म अदायगी!

देशभर में आए दिन सामने आने वाले विवादों-मुद्दों में कम ही ऐसा होता है, जिस पर सभी एकमत हों! अपवाद का ऐसा ही एक आधार है-निजी स्कूलों की बेलगाम फीस। सभी एकमत हैं कि फीस बहुत ज्यादा है और इस पर नियंत्रण होना ही चाहिए। निजी स्कूलों की स्थिति समझने के लिए सबसे पहले कुछ संदर्भ। वर्ष 2010-11 से 2015-16 के बीच 20 राज्यों के सरकारी स्कूलों में 1 करोड़ 30 लाख बच्चों ने स्कूल से किनारा कर लिया।


इसी दौर में निजी स्कूलों में 17 लाख नए विद्यार्थियों की बढ़त सामने आई, लेकिन एक अपवाद और भी है-केरल। बीते दो वर्षों में केरल के सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। 2014 में जो आंकड़ा 40.6 था, वह 2016 में 49.9 फीसदी हो गया। गुजरात में भी अच्छा प्रदर्शन करते हुए आंकड़े 79.2 से बढ़कर 82 प्रतिशत हो गए। यह बदलाव इसलिए आया कि दोनों राज्यों में सरकार ने शिक्षा के बुनियादी ढांचे में काफी सुधार किए, बच्चों की संख्या बढ़ाने के लिए अभियान चलाए, शिक्षक-अभिभावक जागरूकता की दिशा में भी काफी काम किए। अब दो और तथ्य। पहला - राजस्थान, ओडिशा, बिहार, उत्तरप्रदेश और हमारे मध्यप्रदेश में 75 से 80 फीसदी बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं।


दूसरा- देशभर में पश्चिम बंगाल में 279.5 फीसदी की सालाना दर से सबसे ज्यादा छोटे निजी स्कूल खुले, इसी मामले में मध्यप्रदेश 225 प्रतिशत के साथ देश में दूसरे स्थान पर है। चौंकाने वाले ये आंकड़े बता रहे हैं कि मध्य प्रदेश में निजी स्कूल जरूरत से ज्यादा समृद्ध हैं। इसकी वजह क्या हो सकती है? क्या सरकारी स्कूल इतने खस्ताहाल हैं कि अब वहां कोई जाना ही नहीं चाहता? या, निजी स्कूल प्रतिभा के पालन-पोषण में इतने दक्ष हो चुके हैं कि सभी अभिभावक बच्चों का भविष्य केवल निजी स्कूलों में ही सुरक्षित मान रहे हैं?


वजह कुछ भी हो, यह स्पष्ट है कि तेजी से फैल रहे इस उद्योग को लेकर काफी असंतोष है! यही वजह है कि मध्यप्रदेश में मनमानी फीस के मंसूबे मूर्त रूप ले रहे हैं! यही कारण है कि निजी स्कूलों का दबाव-समूह सियासी समीकरण से भी शक्तिशाली हो चुका है! नहीं तो कोई कारण नहीं कि मध्यप्रदेश में 9 साल के आश्वासन के बाद भी यह कानून नहीं बन पाया। सबसे पहले 2008 में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने फीस नियंत्रण की घोषणा की थी। इसके बाद 2010 में सरकार की तरफ से चार बार सार्वजनिक घोषणा भी हुई।


2012 में स्कूल शिक्षा मंत्री पारस जैन और 2015 में राज्यमंत्री दीपक जोशी ने कमेटी गठित करने की घोषणा की। 2016 में यह मुद्दा जब विधानसभा में उठा तो स्कूल शिक्षा मंत्री विजय शाह ने शीतकालीन सत्र में कानून बनाने का ऐलान किया। इसके बाद ड्राफ्ट तो बना, लेकिन अभी तक संशोधनों का दौर जारी है। अब इसे विधानसभा के अगले सत्र में लाने का प्रस्ताव है।


यदि मध्यप्रदेश से अलग बात करें तो दिल्ली, तमिलनाडु, हैदराबाद, कर्नाटक, महाराष्ट्र, राजस्थान और गुजरात सरकार फीस की सीमा तय कर चुकी है। हालांकि, संतोषजनक राहत अभी कहीं भी नहीं मिली है। इस मामले में लगभग 20 साल से संघर्ष कर रही ऑल इंडिया पैरेटंस एसोसिएशन ने मांग की कि हर राज्य में अलग-अलग कानून होने से हर मामला कोर्ट में जाकर फंस रहा है।


इसलिए, केंद्र सरकार पूरे देश में फीस को लेकर एक समान कानून बनाए। मांग के समर्थन में मुखरता से जुटे ऑल इंडिया पैरेंट्स एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक अग्रवाल का मानना है - फीस नियंत्रण के लिए किसी राज्य में पुख्ता योजना नहीं है। सभी ने कुछ खामियां छोड़ रखी हैं। दिल्ली सरकार ने नियम लागू कर दिए, लेकिन अभी तक अभिभावकों को बढ़ी फीस वापस नहीं मिली।


विश्वास कीजिए निजी स्कूलों पर फीस नियंत्रण होते ही सिर्फ पैसा कमाने के उद्देश्य से खोले गए आधे से ज्यादा स्कूल बंद हो जाएंगे। सरकार देशभर में केंद्रीय विद्यालय के स्तर के सरकारी स्कूल खोले। यहां मध्यम व निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों के बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले, तब प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए निजी स्कूल खुद ही फीस वृद्धि पर नियंत्रण कर लेंगे। क्या मानें, क्या मध्यप्रदेश में कोई सुधार संभव है? क्या सरकारी इच्छाशक्ति सच में चाहती है कि अभिभावक वाजिब कीमत देकर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का सपना देखें? या, विधानसभा में फिर एक रस्म निभाने की तैयारी की जा रही है!