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शिक्षा के साथ कौशल भी जरूरी-- शिवम भारद्वाज

वैश्वीकरण के दौर में शिक्षा को व्यक्तित्व और क्षमता के विकास के नजरिए से देखे जाने की जरूरत है, न कि केवल नौकरी के नजरिए से। अगर क्षमता है, योग्यता है तो अवसरों की कमी नहीं होगी, जरूरत होगी केवल सतत प्रयासों की। वर्तमान में शिक्षा को केवल नौकरी से जोड़ कर देखा जाने लगा है। पाठ्यक्रम में दाखिला और फिर उसके पूरा हो जाने पर अंकतालिका और उपाधि और फिर मोटी रकम वाली नौकरी। बस यही कुछ है जो आज के समय में विद्यार्थी और उनके अभिभावक दोनों देखते हैं। जब बात आती है बच्चे के दाखिले की, तो बच्चे व उसके अभिभावक दोनों का ही पहला सवाल होता है कि नौकरी कितने लाख के सालाना वेतन पर मिलेगी? आपके संस्थान में अधिकतम वेतन कितना मिला बच्चों को? कोई अभिभावक यह सवाल नहीं करता कि बच्चों का भविष्य कैसा होगा? पाठ्यक्रम पूरा करने पर बच्चा क्या कुछ समझ पाएगा और क्या कुछ कर पाएगा? उच्च शिक्षा हासिल कर अच्छी नौकरी मिल जाए, बस यही चाहत है जो आज के नौजवानों में दिखाई देती है। सब कुछ केवल रोजगार की संभावना और मोटे वेतन तक सिमट कर रह जाता है। यही कारण है कि इंजीनियरिंग व प्रबंधन सहित तमाम रोजगारपरक पाठ्यक्रमों में दाखिले को विद्यार्थी लालायित दिखाई देते हैं। हर साल बड़ी तादाद में इंजीनियरिंग और प्रबंधन के स्नातक डिग्री लेकर निकल रहे हैं। लेकिन एक बड़ी कमी जो दिखाई पड़ रही है, वह है अवसरों के सापेक्ष योग्य दावेदारों की। केवल अंकतालिका और उपाधि हाथ में आ जाने से ही कोई काबिल नहीं बन जाता। ज्ञान और कौशल के बीच तालमेल का अभाव आज बड़ी समस्या बन गया है। ऐसे में परिणाम यह निकलता है कि पढ़े-लिखे बेरोजगारों का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। आज हालत यह है कि ज्यादातर युवाओं को मनमाफिक नौकरी नहीं मिलती। लेकिन सामाजिक-पारिवारिक दबाव में कोई न कोई नौकरी तो करनी पड़ती है, जिसका उनके कौशल से कोई संबंध नहीं होता है। ऐसे में सवाल उठता है कि मजबूरीवश की जा रही इस नौकरी में युवा क्या अपने दायित्वों को पूर्ण ईमानदारी के साथ निभा पाएंगे? क्या ये नौकरियां उन्हें अपने लक्ष्य तक ले जाने में सहायक हो पाएंगी जो उन्होंने अपने भविष्य के लिए निर्धारित किया है?


वास्तव में ऐसी समस्याओं को दूर करने का एक अच्छा उपाय हो सकता है कि बच्चों को सही परामर्श दसवीं-बारहवीं क्लास में ही मिले, जिसमें उनकी रुचि और क्षमताओं को समझ कर योग्यतानुरूप पाठ्यक्रम में दाखिला दिलवाया जाए। इसके अलावा अभिभावकों को भी यह बात समझनी चाहिए कि कोई बच्चा किसी दूसरे बच्चे जैसा नहीं हो सकता। ऐसे में केवल किसी होड़ या सामाजिक प्रतिष्ठा जैसी बातों को ध्यान में न रख कर अपने बच्चे की क्षमतानुरूप और उसकी पसंद को ध्यान में रखते हुए उसके भविष्य के विकल्प को चुनने में मदद करें। बेहतर होगा कि अपनी मर्जी बच्चों पर न थोपें और न ही अपने किसी नाते-रिश्तेदार के बच्चों से उसकी तुलना करें। किसी ऐसे काम के लिए उस पर दबाव बनाना जिसमें उसकी रुचि नहीं है, बच्चे की उलझनों को बढ़ाने वाला साबित हो सकता है। बच्चे को गणित, जीव विज्ञान की पढ़ाई करनी है या फिर वाणिज्य विषय की, यह फैसला उसकी रुचि पर ही छोड़ दिया जाना चाहिए। हालांकि कई बार समस्या यह आती है कि बच्चे खुद तय नहीं कर पाते कि उन्हें किस क्षेत्र में जाना है। ऐसे में शिक्षकों का परामर्श महत्त्वपूर्ण होता है। मनोविज्ञानी भी बच्चों की अभिरुचि के बारे में बताने में मदद कर सकते हैं। लेकिन अभिभावकों को यह बात दिमाग से निकाल देनी चाहिए कि पड़ोसी का बच्चा डॉक्टर या इंजीनियर है तो मेरे बच्चे भी डॉक्टर या इंजीनियर ही बनें। अगर आप ऐसा सोचते हैं तो समझ लीजिए आप अपने और बच्चे दोनों के साथ अन्याय कर रहे हैं। न जाने कितने ही बच्चे अपने परिजनों के दबाव में आकर किसी खास विषय में ही पढ़ने का फैसला तो कर लेते हैं, लेकिन अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन या क्षमतानुसार प्रदर्शन नहीं कर पाते। इसकी वजह साफ है कि उस विषय में उनका मन ही नहीं लग रहा होता और सब कुछ दबाव में करना पड़ता है। बच्चे इतनी जटिलता और उलझन में फंस जाते हैं कि कोई फैसला तक नहीं कर पाते और फिर इस तरह के दबाव में वे गलत कदम तक उठा लेते हैं।

परीक्षाओं के समय हम न जाने कितनी ही खबरों को पढ़ते-सुनते हैं कि परीक्षा खराब होने के कारण बच्चा घर छोड़ कर चला गया या आत्महत्या जैसा कदम उठा लिया। इसका एक बड़ा कारण होता है कि उस बच्चे पर अपने परिवार की अपेक्षाओं का इतना ज्यादा दबाव बन जाता है कि वह झेल ही नहीं पाता और गलत कदम उठाने को मजबूर होता है। यह तो था एक पक्ष जो नौकरी से संबंधित था। पर इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि ऐसा नहीं है कि नौकरी ही सब कुछ है। आज उद्यमिता का जमाना है। स्टार्टअप यानी छोटे और नए काम को बढ़ावा देने के लिए न केवल सरकार, अपितु निजी क्षेत्र भी यथोचित सहायता करता दिखाई दे रहा है। तमाम ऐसी योजनाएं हैं जो सरकार द्वारा रोजगार के नए अवसरों को बढ़ावा देने के लिए अमल में लाई गई हैं। अगर उचित मार्गदर्शन मिले और एक अच्छा विचार हो और स्व-उद्यम की ओर किसी विद्यार्थी की रुचि हो तो यह न केवल नौकरी के दबाव को कम करता है, बल्कि सामाजिक उत्थान में भी सहयोग प्रदान करता दिखाई देता है। चूंकि तमाम नए उद्यम किसी न किसी समस्या का समाधान ही प्रदान करते नजर आते हैं। सीधी-सी बात है कि अगर सब नौकरी ही करना चाहेंगे हो फिर नौकरी देने वाला कौन होगा? सरकारी नौकरी हर किसी को मिलने से रही। निजी क्षेत्र में अनिश्चितताओं के बादल कभी भी मंडराने लगते हैं। तो फिर ऐसे में एक हल यह भी है कि अपना व्यवसाय शुरू करने के प्रयास किए जाएं, जिससे आप न केवल अपना, बल्कि कई और लोगों का भी भला कर सकें। देश में इस समय वैसे भी मेक इन इंडिया और कौशल विकास पर जोर दिया जा रहा है जिससे स्वरोजगार के संदर्भ में अवसर अच्छे ही प्रतीत होते हैं।

जरूरत है, केवल अपने दिमाग में बैठे हुए अवरोधकों को हटाने की कि व्यापारी का बच्चा व्यापारी ही होगा या सर्विस सेक्टर वाले का बालक नौकरी ही करेगा। ऐसे अवरोधक दिमाग से निकालने होंगे। वित्त अथवा भूमि भी अवरोधक नहीं हैं। चूंकि इसके लिए भी विभिन्न सरकारी सुविधाएं उपलब्ध हैं, इसलिए जरूरत है एक अच्छी कारोबारी अवधारणा को अपने लिए चुनने की और प्रयास शुरू करने की। तमाम संस्थाएं, संस्थान और विश्वविद्यालय उद्यमशीलता के महत्त्व को समझते हुए इस ओर अब खासा ध्यान दे रहे हैं। यही कारण है कि बेहतरीन विचार और नजरिए के साथ नए उद्यम आते हुए दिखाई भी दे रहे हैं। ई-सप्ताह, ई-सम्मेलन और ई-प्रकोष्ठ जैसी गतिविधियों के माध्यम से विद्यार्थियों में उद्यमशीलता की भावना को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिसमें सरकारी और निजी क्षेत्र से भी सहयोग किया जा रहा है। सच यही है कि एक अच्छे रोजगार परामर्श से न केवल विद्यार्थियों की समस्याएं कम हो सकती हैं, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था और समाज को फायदा पहुंचाने वाले कार्यों की नींव भी रखी जा सकती है। स्वरोजगार न केवल बेरोजगारी की समस्या को कम कर सकता है, अपितु किसी भी देश के विकास में खासा सहायक होता है। इसलिए ऐसे में अब शिक्षा के संदर्भ में अपना नजरिया बदलने की सख्त जरूरत है।