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शिक्षा को 'व्यापार' बनाने के खतरे - हरि जयसिंह

कहा जाता है कि विकास केवल स्वतंत्र और पारदर्शी माहौल में ही संभव है। शैक्षिक और अकादमिक जगत के लिए भी यह सच है। शैक्षिक जगत में स्वतंत्रता और पारदर्शिता को केवल तभी कायम रखा जा सकता है, जब महत्वपूर्ण पदों पर चयन और नियुक्तियों में केवल और केवल योग्यता का खयाल रखा जाए और किसी तरह का कोई पक्षपात न किया जाए। वास्तव में गुणवत्ता के मानदंड शैक्षिक प्रक्रिया के हर चरण पर लागू होने चाहिए और विद्यार्थियों के कैरियर का वह एक अनिवार्य अंग होने चाहिए। नोबेल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने हाल ही में इस संदर्भ में कुछ प्रासंगिक सवाल उठाए थे।

मध्य प्रदेश के व्यापमं घोटाले से इन सवालों को एक गहरा तात्कालिक संदर्भ मिलता है, क्योंकि यह हजारों मेधावी विद्यार्थियों के भविष्य से जुड़ा मामला है। चूंकि सीबीआई इस मामले की जांच कर रही है, लिहाजा मैं इस घोटाले से जुड़ी राजनीति और उससे प्रेरित आरोपों-प्रत्यारोपों के साथ ही इस घोटाले से संबद्ध लोगों की रहस्यमय मौतों पर तो कोई टिप्पणी नहीं करना चाहूंगा, लेकिन व्यापमं से जुड़े तथ्यों और उसके संभव होने की पद्धति पर जरूर कुछ कहना चाहूंगा।

सर्वोच्च अदालत ने इस मामले में पहले सीबीआई जांच के अनुरोध को निरस्त कर दिया था, लेकिन बाद में उसने न केवल इस मामले से जुड़ी नई याचिकाओं को स्वीकार किया, बल्कि सीबीआई को भी निर्देशित किया कि वह मध्य प्रदेश सरकार द्वारा गठित एसटीएफ के बजाय खुद इस मामले की जांच अपने हाथों में ले। सीबीआई अपना काम कर रही है और चूंकि उसे जल्द ही सर्वोच्च अदालत को अपनी रिपोर्ट सौंपना है, इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि वह मामले की तह तक पहुंचने में कामयाब हो सकेगी।

बहरहाल, अमर्त्य सेन ने एक साक्षात्कार में शिकायत भरे लहजे में कहा कि मोदी सरकार द्वारा अकादमिक संस्थाओं में नियुक्तियों आदि को लेकर जरूरत से ज्यादा हस्तक्षेप किया जा रहा है। निश्चित ही, वामपंथ की ओर झुकाव रखने वाले बुद्धिजीवी होने के नाते भगवा बिरादरी के प्रति अमर्त्य सेन के रुख के बारे में पहले से ही अंदाजा लगाया जा सकता है, फिर भी उन्होंने जो कुछ कहा, उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सेन ने नेशनल बुक ट्रस्ट और इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च में चेयरमैन पदों पर की गई नियुक्तियों पर सवाल उठाए। साथ ही आईआईटी और आईआईएम में उठाए गए कुछ कदमों पर भी उन्होंने चिंता जताई। पुणे के एफटीआईआई की कमान गजेंद्र चौहान को उनके कथित राजनीतिक झुकाव के चलते सौंपने की घटना को भी इसी से जोड़कर देखा जा सकता है।

राजनीतिक झुकाव होने में वैसे तो कुछ गलत नहीं है, बशर्ते उच्च पदों पर नियुक्तियों में गुणवत्ता के मानकों का ध्यान रखा जाए, खासतौर पर तब जब देश में प्रतिभा का कोई अकाल नहीं है। एफटीआईआई प्रमुख के पद पर नियुक्ति ही करना थी तो फिल्मी दुनिया में ही ऐसे कई प्रतिभाशाली लोग हैं, जो भाजपा की ओर झुकाव रखते हैं और इस पद के अधिक योग्य साबित हो सकते थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं को एक निष्पक्ष उदारवादी के रूप में प्रोजेक्ट करने के लिए निरंतर प्रयासरत रहे हैं, लेकिन इस तरह की घटनाएं इसमें उनकी मदद नहीं करने वाली।

अकादमिक स्वतंत्रता और उत्तरदायित्व के सवाल को इससे बड़े पैमाने पर परखा जाना चाहिए। व्यापमं जैसे घोटालों के मार्फत नियुक्ति की प्रक्रिया का अवमूल्यन और राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते की गई अनुचित नियुक्तियां, दोनों ही गुणवत्ता आधारित शैक्षिक तंत्र के लिए घातक हैं। यह अकारण नहीं है कि भाजपा की नेत्री और केंद्रीय मंत्री होने के बावजूद उमा भारती ने व्यापमं घोटाले को लालू यादव के चारा घोटाले से भी बड़ा बताया है। व्यापमं घोटाले के ब्योरे चौंका देने वाले हैं। बताया जाता है कि इसके तहत पीएमटी की परीक्षा देने वाले योग्य उम्मीदवारों को अपात्र करार दे दिया गया और सिफारिश या आर्थिक लेनदेन के आधार पर अयोग्य उम्मीदवारों को न केवल उत्तीर्ण करार दे दिया, बल्कि उन्हें मेरिट में भी जगह मिल गई। एसटीएफ को तो अपनी जांच में ऐसे नाम भी मिले, जो पीएमटी की परीक्षा में शामिल भी नहीं हुए थे, इसके बावजूद अस्पतालों में डॉक्टर बनकर सेवाएं दे रहे हैं।

इस भयावह घोटाले को सरकारी खजाने नहीं, बल्कि लाखों विद्यार्थियों के भविष्य की कीमत पर अंजाम दिया गया है, जिन्होंने अपने इम्तिहानों के लिए मन लगाकर मेहनत से पढ़ाई की होगी। खुद मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने राज्य की विधानसभा में स्वीकार किया कि वर्ष 2007 से अब तक राज्य सरकार द्वारा की गई एक लाख 47 हजार नियुक्तियों में से कम से कम एक हजार मामले जालसाजी और गलत पहचान के पाए गए हैं। फिर ऐसे अनेक सीधे-सादे विद्यार्थियों और अभिभावकों की गिरफ्तारियों का सवाल भी है, जिन्हें कि आरोपी के बजाय अभियोजन में गवाह होना चाहिए था।

हैरत की बात है कि व्यापमं घोटाले को कितने बड़े पैमाने पर कितने सुनियोजित तरीके से अंजाम दिया गया था। व्यापमं यानी व्यावसायिक परीक्षा मंडल के दायरे को धीरे-धीरे बढ़ाया जाता रहा और पीएमटी के बाद पीईटी को भी उसमें शामिल कर लिया गया। वर्ष 2007 के बाद कुछ सरकारी विभागों, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों और अर्धशासी संस्थाओं में नियुक्तियों की जिम्मेदारी भी व्यापमं को सौंप दी गई, जबकि यह काम मूलत: राज्य लोकसेवा आयोग का था। निश्चित ही, यह सब सुविचारित तरीके से किया गया और मोटी कमाई करने और कथित वीआईपी लोगों को उपकृत करने का एक माध्यम बन गया। आश्चर्य नहीं कि मालदार कमाई का जरिया माने जाने वाले महकमे जैसे पुलिस, शिक्षा, परिवहन, नागरिक आपूर्ति आदि भी व्यापमं के सुपुर्द कर दिए गए थे। यानी कि इस महाघोटाले में घपले के भीतर घपले थे। अब यह सीबीआई की जिम्मेदारी है कि वह ईमानदारी से जांच करते हुए मामले की तमाम परतें उजागर करे।

अगर इस मामले की जांच कर रहे दिल्ली के टीवी पत्रकार अक्षय सिंह की रहस्यपूर्ण परिस्थितियों में मौत नहीं हुई होती और अगले दो दिनों में दो और मौतें न होतीं तो यह मामला राष्ट्रीय सुर्खियों में नहीं आ पाता। आज भी नम्रता डामोर की मौत सरीखे ऐसे कई सवाल इस घोटाले से जुड़े हैं, जिनका जवाब दिया जाना अभी शेष है।

आजादी के बाद से ही यह देश का दुर्भाग्य रहा है कि हमारे यहां दूसरों की कीमत पर अपना हित साधने की प्रवृत्ति हावी रही है। यह लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है। व्यापमं जैसे घोटाले इसी प्रवृत्ति को प्रदर्शित करते हैं, जहां रसूखदार लोग युवाओं के भविष्य का सौदा करने में सफल होते हैं। जब तक हमारे समाज के सक्षम और संपन्न् वर्गों के लोग असहाय नागरिकों, पिछड़ों और आदिवासियों के हितों की अनदेखी करते रहेंगे, हम कभी भी सामाजिक मानकों पर आगे बढ़ने का दावा नहीं कर सकते।

(लेखक द ट्रिब्यून प्रकाशन समूह के पूर्व एडिटर-इन-चीफ हैं। ये उनके निजी विचार हैं)