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शिक्षा दो, अच्छे शिक्षक भी दो-- प्रमोद जोशी

दुनिया में शिक्षक दिवस पांच अक्तूबर को मनाया जाता है. लेकिन, भारत में यह उसके एक महीने पहले पांच सितंबर को मनाया जाता है. हमने पहले फैसला किया कि साल में एक दिन अध्यापक के नाम होना चाहिए. सन् 1962 में डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन राष्ट्रपति बने. उस साल उनके कुछ छात्र और मित्र पांच सितंबर को उनके जन्मदिन का समारोह मनाने के बाबत गये थे. इस पर डॉ राधाकृष्णन ने कहा, मेरा जन्मदिन ‘शिक्षक दिवस' के रूप में मनाओ तो बेहतर होगा. मैं शिक्षकों के योगदान की ओर समाज का ध्यान खींचना चाहता हूं. 

शिक्षक दिवस अंततः औपचारिकता बन गया और शिक्षक असहाय प्राणी. जैसे पचास और साठ के दशक की हिंदी फिल्मों के नाना पाल्सीकर होते थे. हम इस बात का प्रचार तो करते हैं कि शिक्षा से व्यक्ति का जीवन बदल सकता है, पर यह नहीं देखते कि गुणात्मक स्तर पर कैसी शिक्षा परोस रहे हैं. इन दिनों हम नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लेकर चर्चा कर रहे हैं. इस चर्चा में सारी बातें हैं, केवल शिक्षक की भूमिका गायब है. 

गांवों से मिल रही रिपोर्टें बताती हैं कि बच्चे शिक्षा का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं. इसके पीछे गरीबी, सामाजिक दशा और साधनों की कमी बड़े कारण हैं. पर सबसे बड़ा कारण है उचित शिक्षकों की कमी. हाल में एक हिंदी इलाके की रिपोर्ट थी कि सरकारी स्कूलों में मात्र 52 फीसदी शिक्षक ही जिम्मेवारी से ड्यूटी कर रहे हैं. ग्रामीण इलाकों में शिक्षकों ने छात्र-छात्राओं को पढ़ाने का जिम्मा अपनी जगह दूसरे व्यक्ति को सौंप रखा है. 

1994 के बाद से देश में जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम शुरू किया गया है. इसके अंतर्गत शिक्षा की लागत कम करने पर जोर है. सरकारी वेबसाइट के अनुसार, इसके तहत अंशकालिक शिक्षकों, शिक्षा-कर्मियों सहित लगभग 1,77,000 अध्यापकों की नियुक्ति की गयी. इस कार्यक्रम ने काफी पढ़े-लिखे नौजवानों को रोजगार दिया, पर ठेके पर अध्यापक रखने और पैरा टीचर्स की भरती से शिक्षा में गुणात्मक ह्रास आया है. शिक्षा का स्तर गिर गया है. गांव के स्कूलों का इस्तेमाल राजनीतिक कार्यों के लिए होता है, इस पर रोक का कोई तरीका नहीं सुझाया गया है. 

2002 और 2003 में विश्व बैंक के नेतृत्व में वैश्विक गैर-हाजिरी सर्वेक्षण (वर्ल्ड एब्सेंटिज्म सर्वे) के अंतर्गत छह देशों के सैंपल स्कूलों में अघोषित सर्वेक्षकों को भेजा गया. उनका बुनियादी निष्कर्ष था कि बांग्लादेश, इक्वाडोर, भारत, इंडोनेशिया, पेरू और युगांडा में अध्यापक औसतन पांच में से एक दिन गैर-हाजिर रहते हैं. भारत और युगांडा में यह अनुपात और ज्यादा है. भारत में अध्यापक यदि स्कूल में होते भी हैं, तो वे अक्सर चाय पीते, अखबार पढ़ते या अपने सहयोगियों से बात करते मिलते हैं. कुल मिला कर भारत के सार्वजनिक स्कूलों के 50 फीसदी अध्यापक उस वक्त क्लास में नहीं होते, जब उन्हें होना चाहिए. बच्चों के विद्यार्जन की उम्मीद कैसे की जाये?

ऐसा नहीं कि साधन नहीं हैं. केंद्र सरकार ने प्राथमिक शिक्षा के लिए धन इकट्ठा करने के वास्ते उप-कर लगा कर लैप्स न होनेवाला प्रारंभिक शिक्षा कोष तैयार कर लिया है. इस कोष से शिक्षा का आधार ढांचा खड़ा हुआ है, पर इसमें गुणवत्ता नहीं है. 

शिक्षा के लिए काम कर रही संस्था ‘प्रथम' की ओर से हुए 2015 के दसवें ‘असर' सर्वे के अनुसार, शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीइ) लागू होने के बाद स्कूलों की संख्या और उनमें दाखिले में भारी वृद्धि हुई है, पर पढ़ाई-लिखाई की गुणवत्ता गिरी है. सरकारी स्कूलों पर आम जनता का विश्वास घट रहा है. 

विशेषज्ञ मानते हैं कि सीखने में कमी का मुख्य कारण शिक्षकों की योग्यता और उत्साह में कमी और उनके पढ़ाने का तरीका है. 
शिक्षा का प्रसार तभी होगा, जब सामान्य व्यक्ति के जीवन में बदलाव देखेंगे. हरित क्रांति के दौरान, सफल किसान बनने के लिए तकनीकी जानकारी और शिक्षा की कीमत बढ़ी थी. हाल में लड़कियों की रोजगार संभावनाओं में नाटकीय बदलाव आने से भी शिक्षा ने सामाजिक क्रांति को जन्म दिया. यह क्रांति तेज हो सकती है, बशर्ते शिक्षकों की भूमिका बढ़े. दुर्भाग्य से स्थिति खराब है, खासतौर से सरकारी स्कूलों में. 

भारत में ही नहीं, पूरे दक्षिण एशिया और लैटिन अमेरिका में सस्ते प्राइवेट स्कूलों की हैरतअंगेज बाढ़ आयी है. ये स्कूल साधनहीन होते हैं. किसी के घर में दो-एक कमरों में खुल जाते हैं. तमाम खामियों के बावजूद ये फैल रहे हैं. वर्ल्ड एब्सेंटिज्म सर्वे से पता लगा कि भारत के उन गांवों में प्राइवेट स्कूल होने की संभावना ज्यादा है, जहां सरकारी स्कूल की दशा खराब है. स्कूल में उपस्थिति के मामले में सरकारी अध्यापक के मुकाबले प्राइवेट स्कूल में अध्यापक के मिलने की संभावना ज्यादा है. प्राइवेट स्कूलों में पढ़नेवाले बच्चों का प्रदर्शन भी बेहतर होता है. 

प्राइवेट स्कूल भी घटिया हैं, पर जब हम सरकारी स्कूल में होनेवाले हस्तक्षेपों को देखते हैं, तब अंतर का पता लगता है. प्राइवेट शिक्षक कम वेतन पाते हैं, पर उनका मुख्य काम पढ़ाना है. ऐसा नहीं कि सरकारी शिक्षक पढ़ाना नहीं चाहते. अभिजित बनर्जी और एस्थर ड्यूफ्लो ने अपनी किताब ‘पुअर इकोनॉमिक्स' में उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले का उदाहरण दिया है. 

वहां ‘प्रथम' के कार्यकर्ताओं ने गांव-गांव जाकर बच्चों का परीक्षण किया. फिर उन्हीं गांवों से युवकों को तैयार किया, जो कॉलेज-छात्र थे. उन्होंने शाम को कक्षाएं लगायीं. 

इस कार्यक्रम के पूरा होने पर सभी प्रतिभागी बच्चे, जो पहले पढ़ नहीं पाते थे, पढ़ने लगे. इसका मतलब है उन्हें पढ़ानेवालों में कमी थी. इसी तरह बिहार में ‘प्रथम' ने सुधारात्मक समर कैंपों की शृंखला आयोजित की. इनमें सरकारी विद्यालयों के अध्यापकों को पढ़ाने के लिए आमंत्रित किया गया. इस मूल्यांकन के परिणाम भी आश्चर्यजनक थे. बदनाम सरकारी अध्यापकों ने वास्तव में अच्छा पढ़ाया. यानी वे पढ़ा सकते हैं. यह पता लगाने की जरूरत है कि वे पढ़ाते क्यों नहीं.

यदि वॉलंटियर इतना बड़ा बदलाव ला सकते हैं, तब सरकारी स्कूल इन तरीकों को अपने यहां क्यों लागू नहीं करते? शायद अभिभावक अभी शिक्षा के और हम शिक्षक के महत्व को समझ नहीं पाये हैं. जरूरत इस बात की भी है कि अभिभावक सरकारों पर दबाव डालें कि शिक्षा का अधिकार दिया है, तो शिक्षा भी दो और अच्छे शिक्षक भी.