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शिक्षा पर गंभीर सवाल- निरंजन कुमार

अरस्तू ने कहा था कि नेतृत्व के खराब कमरें और अदूरदर्शिता का खामियाजा बिना किसी गलती के भी आम जनता को भुगतना पड़ता है। आज यह बात पूरे भारत पर लागू होती दिख रही है-खासकर शिक्षा के क्षेत्र में। झारखंड का एक ताजा मामला इसका प्रमाण भी है।?सचमुच झारखंड में प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता के बावजूद विकास का अभाव, भ्रष्टाचार, माओवाद आदि के बीच झारखंड की सरकार और शासन-व्यवस्था ने राज्य का मजाक बना दिया है। हालात सिर्फ राजनीतिक परिक्षेत्र के खराब न होकर सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक क्षेत्रों तक के खराब हैं। झारखंड में इंटरमीडिएट के परीक्षाफल से उपजी परिस्थितियों ने पूरे देश के सामने शिक्षा प्रणाली को लेकर एक गंभीर सवाल खड़ा कर दिया है।

राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो सीबीएसई या अन्य राज्यों के बोर्डो के इंटरमीडिएट के रिजल्ट के बाद विद्यार्थी विभिन्न स्नातक पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेकर अपने स्वर्णिम भविष्य की तैयारी में जुट जाते हैं, लेकिन झारखंड में इंटरमीडिएट के परीक्षाफल के बाद आक्रोश और निराशा-हताशा का आलम छाया हुआ है। महज 41 प्रतिशत विद्यार्थी ही कामयाब हुए हैं। साइंस के मात्र 28 फीसदी छात्र सफल हुए। ऐसी ही स्थिति कॉमर्स की भी है। कला विषयों की हालत कुछ ज्यादा अच्छी नहीं है। बड़ी संख्या में अनेक विद्यार्थी ऐसे हैं, जो देश की विभिन्न इंजीनियरिंग व मेडिकल कॉलेजों की प्रवेश परीक्षा में अच्छे रैंक से उत्तीर्ण हुए हैं, लेकिन विडंबना देखिए कि इंटर की परीक्षा में फेल हो गए हैं। इन मेधावी विद्यार्थियों को विभिन्न विषयों में शून्य अंक तक दिए गए हैं। विद्यार्थी इतने बदहवास-निराश हो चले हैं कि दो ने आत्महत्या कर ली है। अन्य कई विद्यार्थियों ने भी इस तरह के प्रयास किए। अनेक अवसादग्रस्त हो गए हैं। इस समय पूरे देश में जहां छात्र अपने सुखद भविष्य के सपने देख रहे हैं, वहीं झारखंड के छात्र क्रमिक अनशन, भूख हड़ताल और आंदोलन पर उतरे हुए हैं। आक्रोश इतना ज्यादा है कि झारखंड इंटरमीडिएट शिक्षक एवं शिक्षकेतर कर्मचारी महासंघ व अखंड प्रदेश माध्यमिक शिक्षक संघ इस मामले में एक मंच पर मिलकर सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ने को कूद पड़े हैं, लेकिन शासन-प्रशासन की प्रतिक्रिया शुरू से ही अत्यंत ढीली-ढाली और निराशापूर्ण रही- खास तौर से मानव संसाधन विभाग और झारखंड एकेडमिक काउंसिल की, जो इन परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार है।

झारखंड सरकार की ही तरह झारखंड एकेडमिक काउंसिल में पूरी अव्यवस्था छाई हुई है। न मूल्यांकन प्रणाली निश्चित है और न ही परीक्षक। किस प्रणाली के आधार पर कॉपी की जांच हो रही है, शिक्षकों को नहीं पता है। प्रदेश की मैट्रिक व इंटर शिक्षा सीबीएसई सिलेबस पर आधारित है। मूल्यांकन पद्धति पुराने ढर्रे पर (बिहार वाली) ही चल रही है। हालांकि, बिहार में मूल्यांकन पद्धति में बदलाव हो चुका है। मूल्यांकन से पूर्व मुख्य परीक्षक व परीक्षकों को मार्किंग स्कीम या जांच कार्य को संपादित करने के बारे में जानकारी नहीं दी जाती है। प्रभाव रिजल्ट पर दिख रहा है। वर्ष 2010 का भी रिजल्ट खराब रहा था। विज्ञान में महज 30 प्रतिशत विद्यार्थी ही पास हो सके थे। रांची में कॉलेज के प्राचार्यो की एक बैठक में खराब रिजल्ट के लिए पूरी तरह जैक को जिम्मेदार ठहराया गया है और सभी कॉलेजों ने एक सुर में कहा कि जैक व कॉलेजों के बीच संवादहीनता है। दवाब में आकर सरकार और झारखंड एकेडमिक काउंसिल ने कुछ कदम उठाए हैं, लेकिन आधे अधूरे तरीके से। छात्र कॉपियों के पुनर्मूल्यांकन की मांग कर रहे थे, पर जैक ने शाही फरमान जारी कर दिया है कि किसी भी स्थिति में कॉपियों का पुनर्मूल्यांकन नहीं हो सकता है। केवल स्क्रूटनी हो सकती है। इस संबंध में छात्रों का कहना है कि गड़बड़ रिजल्ट देने के बाद इस प्रकार की बातें ठीक नहीं हैं। सचमुच पौने दो लाख छात्रों के भविष्य को लेकर सरकार और झारखंड एकेडमिक काउंसिल का रवैया जरा भी सहानुभूतिपूर्ण नहीं है।

यहां यह समझ लिया जाए कि स्क्रूटनी में कॉपियों का पुनर्मूल्यांकन नहीं होता सिर्फ किसी प्रश्न में अगर अंक न दिए गए हों तो अंक दे दिए जाते हैं, जबकि पुनर्मूल्यांकन में पूरी जांच फिर से होती है। जब सीबीएसई के पैटर्न पर नया सिलेबस बना तो उसी पद्धति पर चरणबद्ध मार्किंग और मार्किंग स्कीम के तहत कॉपियों की जांच होनी चाहिए। चरणबद्ध मार्किंग में प्रश्नों के उत्तर को चार या पांच चरणों में बांट दिया जाता है। प्रत्येक चरण के लिए अंकों का निर्धारण होता है। अगर छात्र एक चरण में भी सही उत्तर देता है तो उसे अंक मिलता है, केवल अंतिम उत्तर न मिलने और अन्य भाग के सही रहने पर छात्रों को 80 फीसदी अंक तक दिए जाते हैं। यह अपने आपमें एक सही और संतुलित पद्धति भी है, लेकिन वहां के मानव संसाधन विभाग और जैक ने इसको पूर्णरूपेण लागू करने में कोई तत्परता नहीं दिखाई और कोई जिम्मेदारी स्वीकार करने के बजाय उलटे शिक्षकों और छात्रों को ही दोषी ठहराया।

झारखंड का मूल निवासी होने के नाते मैंने इस संदर्भ में जैक के अध्यक्ष से फोन पर बात की कि विद्यार्थियों के साथ अन्याय नहीं होना चाहिए। मैंने सुझाव दिया कि स्क्रूटनी की बजाय कॉपियों का पुनर्मूल्यांकन ही सही हल है, लेकिन उन्होंने इस सुझाव को सिरे से खारिज करते हुए कहा कि झारखंड के कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है और पूरे देश में ऐसा कहीं नहीं होता। यह कहकर उन्होंने फोन पटक दिया। यहां यह बताना जरूरी है कि कॉपियों का पुनर्मूल्यांकन गैरकानूनी और असामान्य स्थिति नहीं है। दिल्ली विश्वविद्यालय में ही कॉपियों का पुनर्मूल्यांकन होता रहता है। अमेरिका के अनेक विश्वविद्यालयों में प्राध्यापन के दौरान पुनर्मूल्यांकन तो छोड़िए हमें विद्यार्थियों को कॉपियां तक दिखानी पड़ती थीं। एक अभूतपूर्व स्थिति से निपटने के लिए झारखंड में पुनर्मूल्यांकन के लिए अगर कानून और नियमों में संशोधन करना पडे़ तो इससे पीछे नहीं हटना चाहिए। आखिर ऐसा करने से कौन-सा आसमान टूट पड़ेगा। हमारे संविधान में संशोधन लगातार होते रहते हैं। अरस्तू के समय में लोकतंत्र नहीं था, लेकिन आज के लोकतांत्रिक समय में सरकार और अधिकारी क्या आम जनता के हित में कभी सोचेंगे? कम से कम शिक्षा के क्षेत्र में तो हमारे नीति-नियंताओं को नियम-कायदों और परंपराओं की आड़ लेना समाप्त करने के लिए?आगे आना ही चाहिए।

[निरंजन कुमार: लेखक दिल्ली विवि में एसोसिएट प्रोफेसर हैं]