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शिक्षा भी, मजदूरी भी-- कृष्ण कुमार

कहते हैं, शब्दों की अपनी दुनिया होती है। कवि और कहानीकार शब्दों के जरिए हमें किसी और दुनिया में ले जाते हैं। फिर कानून रचने वाले क्यों पीछे रहें? नए बाल मजदूरी कानून का प्रयास कुछ ऐसा ही है। यह कानून कहता है कि छह से चौदह वर्ष के बच्चे स्कूल से घर लौट कर किसी ‘पारिवारिक उद्यम' में हाथ बंटाएं तो इसे मजदूरी नहीं माना जाएगा। इस सुघड़ तर्क की आधारशिला पर यह कानून बाल मजदूरी पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का दावा करता है। इस दावे से सत्ता और मुख्य प्रतिपक्ष सहमत हैं, तभी यह कानून लोकसभा में आने से पहले राज्यसभा में आराम से पारित हो गया। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को इस कानून के शब्दों में कोई खेल नजर नहीं आया। सत्तापक्ष की हर बात में लक्षणा और व्यंजना ढूंढ़ने वाली कांग्रेस ने बाल श्रम संशोधन विधेयक में शुद्ध मन और सिर्फ अभिधा का प्रयोग किया और कुछ भी ऐसा नहीं पाया जिसमें संदेह, वंचना या षड्यंत्र हो। यहां तक कि विरोधाभास भी नहीं दिखा। पूरी एक सदी के इंतजार के बाद भारत के करोड़ों गरीब बच्चों को मिले शिक्षा के अधिकार में पानी मिला दिया गया।

छोटे बच्चों को शिक्षा का अधिकार दिलाने की कोशिश पहली बार 1911 में गोपाल कृष्ण गोखले ने की थी। उस समय की ‘इंपीरियल' विधान परिषद में गोखले के हाथों प्रस्तुत हुआ बिल छोटे लड़कों तक सीमित था, फिर भी पारित नहीं हो सका था। महाराजा दरभंगा जैसे भारतीय सदस्यों ने मुखर स्वर में पूछा था कि अगर गांव के सारे लड़के स्कूल में पढ़ने लगेंगे, तो हमारे खेतों में मजदूरी कौन करेगा? पूरे सौ साल बाद जब अनिवार्य शिक्षा का कानून संसद में पारित हुआ तो इस ऐतिहासिक घटना के पीछे सुप्रीम कोर्ट में चले कई मुकदमे, अनेक अनुसंधान और सैकड़ों जुझारू स्वैच्छिक संगठनों के अथक प्रयास से बनी राजनीतिक सहमति का जोर था। छह से चौदह वर्ष के हर बच्चे को शिक्षा का मूलभूत अधिकार दिलाने वाले कानून की एक बड़ी विशेषता यह थी कि इसके दायरे में छोटी लड़कियां शामिल थीं। संस्कृति का तकाजा है कि जन्म के साथ ही लड़की को घरेलू कामों में हाथ बंटाने का प्रशिक्षण दिया जाए।

सात-आठ साल की बच्ची घर की सफाई और खाना पकाने जैसे दैनिक कामों के अलावा उस उद्यम में भी सक्रिय रूप से प्रवेश पा चुकी होती है, जो जाति-व्यवस्था के हिसाब से परिवार में होता आया है। इस लड़की को स्कूल भेजने वाला और स्कूल में उसकी पढ़ाई को गुणवत्ता के मानकों में बांधने की कोशिश करने वाला कानून एक सपने जैसा था। इस सपने के साकार होने की राह सांस्कृतिक कांटों और सरकारी चट्टानों से भरी थी। तब नए बाल श्रम कानून के शब्दजाल में यह राह ठीक से दिखाई तक नहीं देगी। प्रारंभिक शिक्षा के सार्वजनीकरण का सपना कई दशक आगे खिसक गया है। विकास की परिचित शब्दावली में जिसे ‘आगे बढ़ना' कहते हैं, उसका ठीक उल्टा हुआ है। बच्चों के अधिकार उन्हें दिलाने की राष्ट्रीय मुहिम दो कदम आगे बढ़ी थी; अब वह चार कदम पीछे हट गई है। ऐसा भला क्यों हुआ? इस प्रश्न का उत्तर अवश्य खोजा जाना चाहिए। एक सुराग इस बात से मिलता है कि नया श्रम कानून राज्यसभा में, जहां सत्ताधारी दल का बहुमत नहीं है, आराम से पारित हो गया। कई स्वैच्छिक संगठनों ने विधेयक के खिलाफ आवाज उठाई थी। उनकी आवाज न सत्तापक्ष ने सुनी, न प्रतिपक्ष ने। इस बात से यह अर्थ निकालना कतई ज्यादती नहीं होगी कि समकालीन राजनीति में स्वैच्छिक या गैर-सरकारी संगठनों- जिन्हें अक्सर ‘सिविल सोसायटी' बताया जाता है- के दबाव में कोई खास दम नहीं है। होता तो बंधुआ मजदूर बच्चों के अधिकारों के लिए संघर्ष में नोबेल शांति पुरस्कार के हकदार बन चुके कैलाश सत्यार्थी की हैसियत से कुछ फर्क पड़ता। उन्होंने कहा है कि वे नए बाल श्रम कानून से निराश हैं।

यही मनोदशा उन तमाम बौद्धिकों की है, जो अपने सामाजिक सरोकारों के लिए जाने जाते हैं। एक अखबार ढूंढ़ना मुश्किल है, जिसके संपादकीय या संपादकीय पृष्ठ पर छपे लेख में नए कानून का स्वागत हुआ हो। हर तरफ निराशा, आश्चर्य और आलोचना के स्वर सुनाई दे रहे हैं। इन्हें सुन कर मानना पड़ेगा कि कानून बनाने वाले हमारे प्रतिनिधि उस विमर्श से अलग-थलग पड़ गए हैं, जो समाज की वैचारिक दुनिया से उपजता है। इस विमर्श की जिम्मेदारी बनती है कि वह बाल श्रम कानून में लाए गए आश्चर्यजनक बदलाव के कारणों का विश्लेषण करे और समाज के आर्थिक-शैक्षिक ढांचे में आ रहे गहन परिवर्तनों को पहचाने। नए कानून की रचना में इन परिवर्तनों का डर और दबाव तलाशा जा सकता है।

बाल मजदूरी पर आया यह नया कानून 1986 में बने कानून का स्थान लेगा। उस कानून में बच्चों को जिन खतरनाक कामों से पूर्णत: बाहर रखने का प्रावधान था, उनमें सोलह किस्म के उद्यम या पेशे और पैंसठ उत्पादक प्रक्रियाएं शामिल थीं। नए कानून में पूर्णत: प्रतिबंधित उद्यमों की संख्या घटा कर तीन और खतरनाक मानी गई उत्पादन प्रक्रियाओं की संख्या कुल उनतीस कर दी गई है। बीड़ी बनाने और चूड़ी उद्योग से जुड़े काम अब खतरनाक नहीं रहे। अगर ये परिवार के स्तर पर घर में किए जा रहे हैं, तो माता-पिता इन कामों में स्कूल से लौटे बच्चों को शामिल कर सकते हैं। ये सिर्फ दो उदाहरण हैं। चमड़ा और दरी उद्योग में विविध काम और कूड़ा बीनने- जिसमें अब कंप्यूटर और मोबाइल फोन का बारीक धातु-कणों वाला कचरा शामिल है- जैसी गतिविधियों का आर्थिक ही नहीं, सामाजिक आधार और चरित्र भी है। यह चरित्र इन जैसे अनेक कामों को जातिप्रथा ने दिया है। इन्हें ‘घरेलू उद्यम' की संज्ञा देकर बच्चों के लिए वैध ठहरा देना शब्दों की बाजीगरी भर है। स्कूल से लौट कर आए बच्चे इन कामों में हिस्सा बंटाएंगे तो परिवार की उत्पादकता और आमदनी बढ़ेगी और बच्चे मां-बाप का हुनर सीखेंगे, यह तर्क खोखला और विकराल है। आंबेडकर आज जीवित होते तो जरूर इस तर्क को अंधेरा फैलाने का साधन बताते। प्रशासनिक अंधेर का वाहन तो वह बनेगा ही। घरेलू उद्योगों को दी गई छूट की आड़ में बच्चों के श्रम का शोषण करने वाले ठेकेदार पनपेंगे। वे जब सस्ती दिहाड़ी देकर उत्पादन बढ़ाते हैं, तो उनसे चीजें खरीदने वाले छोटे उद्योगपति और व्यापारी, जिनमें निर्यातक शामिल हैं, खुश हो जाते हैं। इन खिलाड़ियों की समग्र राजनीतिक ताकत को कम करके आंकना भूल होगी।

बाल मजदूरी के एक जीवित नरक को अपनी आंखों से देखने का अवसर मुझे लगभग बारह साल पहले मिला था। चूड़ी उद्योग के केंद्र फिरोजाबाद में तब तक काफी सुधार हो चुका था। कांच पिघलाने वाली भट्ठियों के इर्दगिर्द कोई बालक नहीं बचा था और भट्ठियां स्वयं कुछ सुधर गई थीं। स्वैच्छिक संगठनों और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के दबाव ने फिरोजाबाद को मानवीयता के दायरे में खींच लाने के लिए जीतोड़ प्रयत्न किए थे। इधर-उधर ‘विस्थापित बाल-श्रमिक' पाठशालाएं खुली हुई थीं, जिनके जरिए सर्वशिक्षा अभियान मजदूर मां-बाप के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा देने की कोशिश कर रहा था। दोपहर में मुझे कुछ ऐसे घरों में ले जाया गया, जहां पास के कारखानों से ढुल कर आई कांच की लंबी कुंडलियों को हौले से चटका कर चूड़ियां निकाली जाती थीं, फिर उनके खुले सिरों को मोमबत्ती की लौ में कुछ क्षण रख कर पिघलाया जाता था, ताकि वे जोड़े जा सकें। यह काम नंगे फर्श पर बैठे छोटे-छोटे बच्चे कर रहे थे। एक हजार चूड़ी जोड़ने के बीस रुपए पाकर वे अपने घरों की आमदनी में इजाफा करते थे। संभव है, इधर के दस-बारह वर्षों में वे स्कूल में टिकने लगे हों। अब नए कानून की छाया में वे स्कूल से लौट कर देर रात तक चूड़ियां जोड़ेंगे और अगली सुबह फिर हंसते-गाते स्कूल जा सकेंगे। यही है इस नए बाल-श्रम संशोधन विधेयक 2016 की जबर्दस्त कल्पना।

चूड़ी उद्योग अब खतरनाक नहीं रहा। चौदह साल से कम के बच्चे उससे जुड़े छोटे-छोटे घरेलू उद्योगों में स्कूल से लौट कर काम करने के लिए स्वतंत्र हैं। इस उद्योग की ज्यादा प्रकट भूमिकाओं में किशोर आयु के बच्चे मुझे बारह साल पहले भी दिखे थे, अब चौदह साल से ऊपर के बच्चों के लिए मजदूरी करने का रास्ता साफ हो गया है। ‘चूड़ी बाजार में लड़की' में मैंने इस उद्योग के कई चित्र खींचे, जो गरीबी की निर्मम मार सहते बचपन की झलक देते हैं। छह वर्ष पहले जब शिक्षा के अधिकार का कानून लागू हुआ तो यह अहसास होने लगा कि अंतत: समाज के उत्पीड़न-तंत्र में स्कूल का दखल होने जा रहा है। इस कानून के लागू होने के बाद उपजे जोश में चर्चा होने लगी कि अब दसवीं तक की शिक्षा भी अधिकार की श्रेणी में लाई जाएगी। लड़कियों की शिक्षा भी राष्ट्रीय स्तर के नारों का विषय बनी, तो शिक्षा के प्रसार में लगे कई संगठनों को आशा बंधी कि सरकारी और सामाजिक कोशिश आपस में जुड़ेंगी। ये संभावनाएं अब क्षीण पड़ गई हैं। एक तरफ नए बाल श्रम कानून ने बच्चों से मजदूरी कराने के वैध रास्ते खोेल दिए हैं, दूसरी तरफ छठी कक्षा से वार्षिक परीक्षा और ‘पास-फेल' की व्यवस्था को वापस लाने का प्रस्ताव जोर पकड़ रहा है। शिक्षा की नई नीति बनाने के लिए जारी किए गए दस्तावेजों में इस प्रस्ताव का जिक्र है। कुपोषण और निर्धनता में जीते बच्चे पांचवीं तक पहुंच भी जाएं तो छठी-सातवीं में अटक जाएंगे। उनके शिक्षक और अभिभावक मान लेंगे कि ये बच्चे दो-दो पैसे कमा कर लाने लगें तो क्या बुरा है।