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शिक्षा में सजा नहीं, रचनात्मकता हो - अर्चना डालमिया

हमारे उपमहाद्वीप में दुनिया के लगभग 19 फीसदी बच्चे रहते हैं। देश की आबादी के एक-तिहाई से ज्यादा हिस्से की, करीब 44 करोड़ लोगों की उम्र 18 वर्ष से नीचे है। केंद्रीय महिला व बाल विकास मंत्रालय के अध्ययन के मुताबिक इस आबादी में से 40 फीसदी को देखभाल और संरक्षण की जरूरत है। इससे पता चलता है कि देश में बच्चों को किस हद तक शारीरिक दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है।

हाल ही में टीवी पर दिखाए गए सीसीटीवी फुटेज में कोलकाता के सॉल्ट लेक क्षेत्र में एक महिला तीन साल के बच्चे को निर्दयता से पीटती दिखाई दे रही थी। यह फुटेज तब वायरल हुआ जब उस ट्यूटर की सेवा लेने वाले बच्चे के माता-पिता ने उसके खिलाफ शिकायत दर्ज कराई।

पता चला है कि ट्यूटर बच्चे को अनुशासित करने के नाम पर पीटती थी जबकि बच्चे की मां पड़ोस के कमरे में मौजूद रहती थी। जब ट्यूटर से पूछताछ की गई तो उसने बलप्रयोग से इनकार करते हुए कहा कि बच्चा जरा अनुशासित होने में मुश्किल पेश कर रहा था। महिला ट्यूटर की करतूत का पता तो तब चला जब बच्चे की मां ने अपने फ्लैट में लगे सीसीटीवी कैमरे पर फुटेज देखे।

सीसीटीवी फुटेज में दिखाई दे रहा था कि उस भारी भरकम महिला ने पहले बच्चे को उठाकर बिस्तर पर फेंका और फिर दोनों हाथों से उसकी जबर्दस्त पिटाई करने लगी। जब बच्चे ने उससे बचने का प्रयास किया तो ट्यूटर ने उसके पेट और चेहरे पर पैरों से प्रहार किए। शुक्र है कि दोषी ट्यूटर को पकड़ लिया गया है। उम्मीद है कि उसे कानून के मुतािबक सजा मिलेगी।
इससे भी भयानक घटना तो बेंगलुरू में हुई जहां स्केटिंग इंस्ट्रक्टर को छह साल की बच्ची से दुष्कर्म के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। इंस्ट्रक्टर का इतिहास इसी प्रकार का रहा है। बच्ची की मां द्वारा अभियान चलाने के बाद इंस्ट्रक्टर की गिरफ्तारी हो सकी। यदि स्कूल इंस्ट्रक्टर की पृष्ठभूमि की जांच करने की जहमत उठाता तो इस अपराध को टाला जा सकता था। बच्ची की मां ने न सिर्फ पुलिस में शिकायत दर्ज कराई बल्कि उसने ऑनलाइन कैम्पेन शुरू कर दिया और एक हफ्ते में ही उसे डेढ़ लाख लोगों का प्रतिसाद मिला, जिन्होंने राज्य सरकार को सारे स्कूलों के लिए बच्चों की सुरक्षा के लिए बेहतर कदम उठाने का आदेश जारी करने पर मजबूर किया। इसके बाद राज्य के स्कूलों में तीन सूत्रीय रणनीति पर काम किया जा रहा है। एक, हर स्कूल के पूरे स्टाफ की पृष्ठभूमि की अच्छी तरह जांच की जाएगी। दूसरा, स्कूलों में सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएंगे और हर स्कूल में बाल संरक्षण समितियों की स्थापना। यह सोचककर कंपकंपी छूट जाती है कि हमारे बच्चों को स्कूलों में किस तरह के खतरों का सामना करना पड़ रहा है।

जब मैं स्कूल में पढ़ती थी तो अधिकतम सजा यह थी कि या तो पालकों को स्कूल में बुला लिया जाता था या क्लास के बाहर खड़ा कर दिया जाता था। हम में से ज्यादातर बच्चों को पूरी कक्षा के सामने शर्मिंदा होने के लिए इतना काफी था। हमारे स्कूल में बच्चों को शारीरिक सजा देने की मनाही थी और अनुशासन के लिए प्राय: सामाजिक सेवा का सहारा लिया जाता था। यदि चीटिंग करते पकड़े गए तो आपको अतिरिक्त समय देकर कक्षा के सबसे कमजोर बच्चे को पढ़ाना होता था। यदि कुछ चुराते हुए पकड़े गए तो अपने लंच में पूरी कक्षा को सहभागी बनाना होता था।

मेरी एक सहेली ने बताया कि कैसे अपने बेटे के स्कूल के शुरुआती वर्षों में उसकी देखभाल के लिए उसे जॉब छोड़ने का कठिन फैसला करना पड़ा। बच्चों के शुरुआती वर्षों में चिंता तो रहती ही है। हालांकि, मौजूदा एकल परिवारों की आर्थिक स्थिति हमेशा ऐसी नहीं होती कि पति या पत्नी में से कोई जॉब छोड़कर बच्चों पर ध्यान दे सके। ज्यादातर मामलों में पति-पत्नी दोनों को ही नौकरी करनी पड़ती है। परिणाम यह होता है कि बच्चों को घर से बाहर प्ले-स्कूल, डे-केयर सेंटर में या ट्यूटर व आया के साथ काफी समय गुजारने पर मजबूर होना पड़ता है।

ऐसी स्थिति में स्कूल और इसके स्टाफ के लिए यह जरूरी है कि वे यह सुनिश्चित करें कि बच्चों को शारीरिक सजा न दी जाए। इसके साथ हर टीचर के इतिहास व पृष्ठभूमि की अच्छी तरह से जानकारी ली जाए। ‘छड़ी पड़े छम-छम, विद्या आए धम-धम' जैसी उक्तियां शायद 1970 और 1980 के दशकों में लोकप्रिय थीं। हालांकि, हाल ही में बाल मनोविज्ञान पर कई अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों में यह जाहिर हुआ है कि बच्चों के साथ मानवीय और रचनात्मक तरीके से संप्रेषण करने से वे बेहतर ढंग से सीखते हैं। अध्ययन से यह भी सामने आया है कि बचपन में पिटाई झेलने वाले पालकों के अपने बच्चों के साथ भी वैसा ही व्यवहार करने की आशंका रहती है। दुर्भाग्य से यदि वे टीचर या इंस्ट्रक्टर जैसी भूमिका में हों तो इस बात की ज्यादा आशंका रहती है कि वे बच्चों को वही शारीरिक व मानसिक यंत्रणा देंगे, जिनसे वे खुद गुजरे होते हैं। सीधी बात है कि या तो वे अपने साथ हुई घटनाओं का बदला ले रहे होते हैं या अपनी दमित भावनाओं को व्यक्त कर रहे होते हैं।

अमेरिकन साइकोलॉजीकल एसोसिएशन ने 1975 में ही स्कूलों, किशोर गृहों, नर्सरी और ऐसी सारी सरकारी व निजी संस्थाओं में जहां बच्चों को शििक्षत-प्रशिक्षित किया जाता है या उनकी देखभाल की जाती है, शारीरिक सजा देने का विरोध किया था। हालांकि, भारत में जहां हम अब भी बाल श्रम की समस्या से निपट रहे हैं, स्कूलों में शारीरिक सजा पर कोई स्पष्ट राय नहीं बन सकी है। केंद्रीय महिला व बाल विकास मंत्रालय की बच्चों से दुर्व्यवहार पर 2007 की रिपोर्ट में बताया गया था कि स्कूल जाने वाले तीन में से दो बच्चों से शारीरिक दुर्व्यवहार होता है। पहले जहां इनमें छात्रों का प्रतिशत ज्यादा था, अब दुर्व्यवहार के शिकार बच्चों में 65 फीसदी छात्राएं हैं। अनुशासन के नाम पर मासूम बच्चों से किया जाने वाला यह अपराध देश के हर जिले में आम है।

किसी बच्चे की पिटाई करने या उसे सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा होने पर मजबूर करने से बमुश्किल ही कोई असली अनुशासन स्थापित हो पाता है। इतिहास बताता है कि महात्मा गांधी जैसे अहिंसा के पुजारी ने औपनिवेशिक अत्याचारियों को देश छोड़ने पर मजबूर किया और अहिंसा व करुणा जैसे मूल्यों के प्रवर्तक भगवान बुद्ध सबसे प्रभावी शिक्षक साबित हुए हैं जिन्होंने हत्यारे अंगुलीमाल को अहिंसक भिक्षुक में बदल दिया और उन्हीं की शिक्षाओं से कलिंग युद्ध में भयंकर खून-खराबा करने वाला सम्राट अशोक अहिंसा के मार्ग पर चला। वयस्क यदि इन विभूतियों से कुछ सीख लें तो अच्छा होगा।
अर्चना डालमिया
सेक्रेटरी,एआईसीसी