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शिक्षा से सामाजिक सद्भाव-- जगमोहन सिंह राजपूत

यह हर राष्ट्र का पहला कर्तव्य है कि वह अपना भविष्य संवारने के लिए वर्तमान का लगातार वस्तुनिष्ठ विश्लेषण और तदनुरूप तैयारी करता रहे। लोकतंत्र में सर्वमान्य नीतियों का निर्माण बहुधा कठिन हो जाता है। फिर भी जब राष्ट्र की सुरक्षा खतरे में होती है तो सब मतभेद भुला दिए जाते हैं, उसी प्रकार भविष्य की पीढ़ी को सुचारु रूप से तैयार करने में भी राष्ट्रीय योजनाएं सभी की सहमति और सहयोग को लक्ष्य मान कर ही बननी चाहिए, क्योंकि तभी उनका क्रियान्वयन प्रभावशाली ढंग से हो सकेगा। बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण एक सक्षम और सार्वभौम राष्ट्र निर्माण के सबसे महत्त्वपूर्ण आधार हैं, इसलिए इन पर राष्ट्रीय नीतियां सर्वमान्य ढंग से विकसित होनी चाहिए।
 

1950 में संविधान का प्रारूप लागू होते समय देश के समक्ष अनेक बड़ी समस्याएं, संसाधनों की कमी के बाद भी दस वर्ष में चौदह साल तक के हर बच्चे को आठ वर्ष तक की स्कूल शिक्षा देने का प्रावधान अपने आप में एक अत्यंत साहसपूर्ण निर्णय था। चिंतन, विवेचन और विश्लेषण के बाद जब क्रियान्वयन की स्थिति आई, तो प्रशासनिक शिथिलता और कई अन्य कारणों से उस लक्ष्य तक पहुंचा नहीं जा सका। साक्षरता दर, विद्यालयों और विश्वविद्यालयों की उपलब्धता बढ़ी है, मगर उसका भी अपेक्षित प्रभाव दिखाई नहीं देता, क्योंकि हर तरफ गुणवत्ता और सार्थकता में भारी कमी आई है। ऐसी स्थिति में शिक्षा का मूल उद्देश्य प्राप्त कर पाना सुगम नहीं रहता है।

 


शिक्षित व्यक्ति से अपेक्षा की जाती है कि वह भारत की ‘विविधता की स्वीकार्यता' की संस्कृति को समझेगा और उसके प्रचार-प्रसार में सक्रिय सहयोग करेगा। इस तरह वह सामाजिक सद्भाव और पंथिक भाईचारे को भी मजबूत करेगा। आज जब सारे विश्व में प्रवसन, देशांतरण और स्थानांतरण तेजी से हो रहा है, सबसे बड़ी आवश्यकता है पारस्परिक सद्भाव बनाए रखने की, भाषा, नस्ल, सांस्कृतिक और पंथिक विविधताओं को खुले मन से स्वीकार करने और इनके साथ मिल कर सामाजिक सद्भाव की पुनर्रचना करने की। इसके लिए विश्व भर से लोग भारत की ओर देख रहे हैं, क्योंकि यहां का इतिहास भाईचारे से परिपूर्ण रहा है। फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो कुछ हिंसा, अविश्वास और घृणा के प्रसार से हो रहा है, उसके प्रभाव से भारत अछूता नहीं रह सकता है, अगर वह अपनी आंतरिक सामाजिक सद्भाव और पंथिक समादर को लगातार मजबूत नहीं बनाए रखता है। इसका वर्तमान संदर्भ में रास्ता एक ही है- शिक्षा द्वारा जागरूकता बढ़ाना और भाई-चारा स्थापित करना।

 

 


शिक्षा व्यवस्था, खासकर उसकी गुणवत्ता और जीवन में उपयोगिता को लेकर उठाए जाने वाले प्रश्न समय के साथ और जटिल तथा गंभीर होते जा रहे हैं। सामान्य अपेक्षा तो यही है कि स्कूल बच्चों की नैसर्गिक जिज्ञासा और सर्जनात्मकता का उनसे ही परिचय कराते हैं, उसे दिशा देते हैं, और हर व्यक्ति को अपने अंदर छिपे खजाने को खोल कर देखने की क्षमता विकसित करते हैं। उच्च शिक्षा स्कूलों में विकसित प्रतिभाओं को नया विस्तृत क्षितिज प्रदान कराती है, जहां युवाओं को जीवन और प्रकृति के रहस्यों की खोज करने के असीमित अवसर उपलब्ध हो सकते हैं। उन्हें अपनी रुचि के अनुसार कार्यक्षेत्र चुनने के अवसर भी यहां उपलब्ध होते हैं। मनुष्य की वैश्विक ज्ञान संपदा और कौशलों की प्रवीणता सदा से इन्हीं प्रयासों से समृद्ध होती रही है। इसी सोच और समझ के आधार पर नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला, जैसे अनेक विश्वविद्यालय भारत में निर्मित हुए और विश्व में आकर्षण के केंद्र बने।

 

 


आज यही स्थिति कैंब्रिज, आॅक्सफोर्ड, हार्वर्ड, स्टेनफोर्ड जैसे शिक्षा के विश्व प्रसिद्ध संस्थानों की है। भारत के संस्थान इस श्रेणी में स्थान नहीं बना पाए हैं। कारण अनेक हैं। शायद देश अपनी शिक्षा संस्थाओं की आवश्यकताओं की पूर्ति और उनकी समस्याओं का समाधान ढूंढ़ नहीं पा रहा है। इस सबके बावजूद अपेक्षा तो यही की जाती है कि इन ज्ञान केंद्रों से हर समस्या का समाधान निकलेगा। अपेक्षाओं और समस्याओं के बीच की दूरी कम करने का एक ही सर्वमान्य रास्ता है: संवाद। जब इस संवाद में गैर-शैक्षणिक कारणों से व्यवधान पड़ता है, तो इससे देश के सीमित संसाधनों का अपव्यय और युवाओं की सर्जनात्मक ऊर्जा तथा समय का घोर अपव्यय होता है। यही नहीं, भारत की विविधता के अनेक पक्षों के प्रति जो सम्मान और समझ संवेदनशील आयु में पैदा होनी चाहिए, वह वैमनस्य जनित आक्रोश में खो जाती है। चर्चा, परिचर्चा और संवाद मनुष्य के बौद्धिक विकास के लिए अत्यंत आवश्यक हैं, इनकी अनुपस्थिति या व्यवधान के दूरगामी परिणाम अब हर तरफ दिखने लगे हैं।

 

 


भारत में ज्ञान साधना की विधा सदा से ‘प्रश्न-प्रतिप्रश्न-परिप्रश्न' पर आधारित रही है। इसे सही दिशा में समृद्ध करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। देश से संबंधित सभी समस्याओं और आवश्यकताओं पर विश्वविद्यालयों में प्रश्न उठाए ही जाने चाहिए, चर्चा होनी चाहिए, समाधान ढूंढ़े जाने चाहिए। जब ऐसा होगा तो वैचारिक मतभेद भी उभरेंगे, मगर उन पर सामंजस्य और समरसता बनाए रखने के लिए सहिष्णुता के कौशल सीखने का अभ्यास यहीं करना होगा।

 

 


आज हमें हर तरफ से यही सुनाई देता है कि विश्वविद्यालयों में सब कुछ, या यों कहें कि कुछ भी, ठीकठाक नहीं है! यह देश के लिए चिंता का विषय है। आज परिवर्तन संचार तकनीकी से आच्छादित भले दिखाई देता हो, उसका गहरा प्रभाव आर्थिक, सामाजिक, पंथिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक पक्षों पर भी तेजी से पड़ रहा है। यह परिवर्तन की गति ही इस शताब्दी की विशेषता है। यूरोप में जैसे-जैसे अन्य सभ्यताओं से अपनी संस्कृति, धर्म और भाषा को लेकर बड़ी संख्या में अन्य देशों के लोग पहुंच रहे हैं, वैसे-वैसे वहां अविश्वास, आक्रोश और जातीय हिंसा भी बढ़ रही है। शिक्षित, विकसित और संपन्न समाज भी नई परिस्थितियों के साथ समन्वय स्थापित करने में अपने को सक्षम नहीं पा रहे हैं।

 

 


विडंबना है कि जितना ज्ञान, समझ, संसाधन, तकनीक और दूरियां मिटाने के संसाधन इस समय मनुष्य के पास उपलब्ध हैं, उतने पहले कभी नहीं थे, पर जितनी हिंसा, युद्ध, अविश्वास, शोषण इस समय हो रहा है उतना पहले कभी नहीं था। प्रकृति और मनुष्य के बीच के संवेदनशील संबंधों की डोर को बचाए रखने की जिम्मेवारी मनुष्य की है, मगर मनुष्य ही इसे लगातार कमजोर करता जा रहा है! निश्चय ही शिक्षा वह समझ नहीं पैदा कर पाई है जो सद्भावना बनाए रखने के लिए आवश्यक है। इसलिए शिक्षा की विषयवस्तु और विधा को समानुकूल परिवर्तित होते ही रहना पड़ेगा।

 

 


आज कहा जाता है कि हम विश्व-गांव के निवासी हैं, सब एक-दूसरे के पड़ोस में आ गए हैं, पर यह भुला दिया जाता है कि हम ‘पड़ोसी' नहीं बन पाए हैं। सब पड़ोस में आ गए हैं, मगर पड़ोसी का धर्म निभाना भूल गए हैं। एक-दूसरे के साथ रहने के कौशल- ‘लर्निंग टू लिव टुगेदर' का विकास अत्यंत आवश्यक है। इसका आधार बनता था संयुक्त परिवार की व्यवस्था से, जो अब छिन्न-भिन्न होती जा रही है। उसके प्रभाव परंपरागत संबंधों पर भी तेजी से पड़-बढ़ रहे हैं। भारत में भी वैश्वीकरण, निजीकरण और व्यापारीकरण के प्रभाव अब हर तरफ दिखाई देते हैं।

 

 


विकास की अवधारणा हर देश को अपने ज्ञान-स्रोतों, अपनी संस्कृति और संसाधनों के अनुरूप निर्मित करनी होती है। मगर भारत में हम लगभग हर पक्ष में पश्चिम की नकल करते हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था भी इस जाल से निकल नहीं पाई है। कुल मिला कर शिक्षा को नीतिगत और क्रियान्वन के स्तर पर इतना सशक्त बनाना होगा कि वह न केवल व्यक्तित्व विकास करे, बल्कि उसमें अन्य के प्रति सद्भाव और विविधता के प्रति आदर और सम्मान के मूल्य को भी विशेष रूप से प्रतिष्ठित करे। यही सबसे बड़ी चुनौती है।