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श्रम और दक्षता का संतुलन-- मणीन्द्र नाथ ठाकुर

यह नई खोजों का समय है। भविष्य में वही समाज या देश आगे बढ़ेगा, जो नई वैज्ञानिक और सामाजिक खोजों में आगे रहेगा। दुनिया में इस समय तीन देश प्रतिस्पर्धा में हैं: चीन, भारत और अमेरिका। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने हाल में ‘ब्रेन प्रोजेक्ट' की शुरुआत करते हुए जिक्र किया कि इंटरनेट के बाद अगली क्रांति मनुष्य के दिमाग की तकनीकी को समझने की होगी और अमेरिका को ये खोजें चीन और भारत से पहले कर लेनी हैं।
पर भारत की स्थिति इस क्षेत्र में क्या है, यह समझने के लिए इतना काफी है कि जब भारत ‘मेक इन इंडिया' का नारा दे रहा है, तो चीन ‘इनोवेट इन चाइना' का आह्वान कर रहा है। एक स्तर पर ये नारे हो सकते हैं, पर वास्तव में ये जनमानस के सोच को बदलने की प्रक्रिया का अंग हैं। वैसे ‘मेक इन इंडिया' के लिए भी श्रम और सृजनशीलता के बीच के संबंध को समझना जरूरी है, लेकिन अगर भारत ‘इनोवेट इन इंडिया' की बात सोचता है, तो यहां की शिक्षा के दर्शन पर विमर्श की जरूरत होगी।
मनुष्य में प्रकृति प्रदत्त असीम क्षमता है, जिसे हिंदी में ‘प्रत्युत्पन्न मतित्व' और अंगरेजी में ‘रेफ्लेक्सिविटी' कहते हैं। मनुष्य अपनी ज्ञानेंद्रियों द्वारा प्राप्त सूचनाओं को जमा करता और जरूरत पड़ने पर उसके विश्लेषण से बाहरी और भीतरी दुनिया को समझने का प्रयास करता और इसी समझ के आधार पर अपना निर्णय करता है। मनुष्य हर बार सामने आई समस्या पर नए तरीके से सोच सकता है। हर मनुष्य अलग-अलग तरीकों से सोच सकता है। सोच पाने की इसी क्षमता को ‘प्रत्युत्पन्न मतित्व' कहते हैं। यही वजह है कि लाख प्रयासों के बावजूद वैज्ञानिक कृत्रिम बौद्धिकता को मनुष्य की क्षमता के बराबर नहीं बना पाए हैं।
अभी हाल में हुए प्रयोगों ने बताया है कि इस प्रक्रिया में असीम ऊर्जा की जरूरत होती है। यही मनुष्य को मशीन से अलग करता है। इसके अलावा प्रकृति के साथ अपने श्रम को जोड़ने से मनुष्य को प्रकृति के नियमों की समझ अपने आप हो जाती है। वह एक तरह से प्रयोगरत रहता है। हजारों वर्षों तक मनुष्य के पास ज्ञान प्राप्त करने का यही साधन था।
ब्रेन के वैज्ञानिकों का मानना है कि प्रत्युत्पन्न मतित्व का सीधा संबंध शारीरिक श्रम से है। मनुष्य जब अपने हाथ से काम करता है तो उसका दिमाग लगातार सक्रिय रहता है और सोचता रहता है कि उस काम को कैसे कम ऊर्जा खर्च कर किया जाए। इसी प्रयास में नए आविष्कार होते हैं। इसलिए प्रत्युत्पन्न मतित्व, श्रम और सृजनशीलता एक ही प्रक्रिया के अंग हैं। इसलिए अगर हम अपने युवाओं से सृजनशील होने की उम्मीद करते हैं, तो उनके प्रत्युत्पन्न मतित्व की क्षमता के विकास पर ध्यान देना पड़ेगा और इसके लिए उन्हें शारीरिक श्रम में लगाना होगा। श्रम को जीवन का अंग बनाना होगा।
इस बात की समझ गांधी जैसे चिंतकों को थी। इसीलिए गांधी ने ‘नई तालीम' में शिक्षा को श्रम से जोड़ने की बात की। विद्यालयों को केवल पुस्तक आधारित बनाने के बजाय उन्हें दैनिक जीवन और उत्पादन से जोड़ने के पीछे शायद यही मकसद रहा होगा कि श्रम और प्रकृति के संयोग के क्रम में मानव मस्तिष्क ज्यादा प्रत्युत्पन्नमति होगा और समाज में उपयुक्त सृजनात्मक सोच विकसित कर पाएगा।
प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री अनिल सद्गोपाल की अध्यक्षता में एनसीइआरटी की एक समिति ने अपनी रिपोर्ट में इस बात पर विशद विचार किया है। इस रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा के साथ काम को जोड़ना बच्चों को समाज से जोड़ने जैसा है। ऐसा माना गया है कि इससे उन्हें श्रम के प्रति श्रद्धा तो होगी ही, अनुभूतिजन्य ज्ञान भी मिलेगा और समाज के दुख-दर्द से वे अवगत हो पाएंगे। श्रम की प्रक्रिया में बालमन में प्रकृति के प्रति कौतूहल भी जागेगा, जिसकी जरूरत ज्ञान के लिए है।
शिक्षा की यह समझ ज्ञान की भारतीय परंपरा के अनुकूल है। क्रियामार्गी और प्रयोगधर्मी होना अन्वेषण की पहली शर्त है और यह तभी संभव है जब शिक्षा को काम के साथ जोड़ा जाए। यह जितना सामाजिक ज्ञान के लिए सच है, उतना ही वैज्ञानिक ज्ञान के लिए भी। आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में इस बात को बिलकुल नकार दिया गया है। स्वतंत्रता के बाद सरकारी विद्यालयों की जो कल्पना की गई, उस पर गांधी का प्रभाव था। विद्यालय की सफाई और बागवानी शिक्षा के अनिवार्य अंग थे। रस्सियां बनाना, तकली से धागा बनाना आदि परीक्षा का हिस्सा हुआ करते थे। पर अहिस्ता-अहिस्ता ये बातें खत्म हो गर्इं।
भारत में आधुनिक शिक्षा के मॉडल पर औपनिवेशिक प्रभाव है। इस मॉडल में अन्वेषण की क्षमता के विकास की संभावना कम है, क्योंकि जीवन, अनुभव और ज्ञान के बीच का संबंध खत्म हो गया है। जीवन के अनुभव को ज्ञान मानने की परंपरा इसमें नहीं है। ज्ञान को बाहरी वस्तु के रूप में देखा जाता है और इसे प्राप्त करने की एक व्यवस्था है, जिसका संचालन राज्य और बाजार द्वारा होता है। जीवन और अनुभव से ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया के बदले उन्हें उपलब्ध ज्ञान में प्रशिक्षण देना महत्त्वपूर्ण है। बच्चों का खोजी मन इससे धीरे-धीरे कुंद हो जाता है। फिर अर्थव्यवस्था की जरूरत के हिसाब से मनुष्य को एक श्रमिक के रूप में परिणत कर दिया जाता है और मानव को संसाधन की तरह देखा जाने लगता है। शिक्षा मंत्रालय भी मानव संसाधन मंत्रालय बन जाता है।
श्रम के साथ शिक्षा को जोड़ना खोजी मस्तिष्क के विकास के लिए जरूरी है या फिर छात्रों को जीवन यापन के लिए कुछ इल्म सिखाने के लिए। ताकि उसे जरूरत पड़ने पर अर्थोपार्जन कर आगे की पढ़ाई में सहायता मिल सके। लेकिन देश की युवा जनसंख्या को विश्व पूंजी के लिए प्रशिक्षित श्रमिक में परिणत कर देना इस समाज के प्रति अपराध होगा। आने वाले समय में वही समाज आगे जा पाएगा, जो नई खोज कर सके और आने वाली बौद्धिक क्रांति का जनक बन सके।
इसलिए श्रम से शिक्षा को जोड़ने के इस पेच को समझ लेना जरूरी है। बच्चों को अगर शुरू से घर और विद्यालय में काम करने की आदत डाली जाए तो उनमें श्रम के प्रति सम्मान और काम करने वालों के प्रति आदर तो होगा ही, इसका प्रभाव उसकी बौद्धिक क्षमता पर भी पड़ेगा। विज्ञान के छात्रों के लिए प्रयोगशाला का काम एक सहज प्रक्रिया का अंग होगा। समाजशास्त्रियों को समाज को समझने में सहायता मिलेगी। लेकिन अगर उन्हें केवल प्रशिक्षित श्रमिक बनाने का प्रयास किया गया तो न वे प्रयोगधर्मी होंगे और न ही सामाजिक।
भारतीय नीतिकारों ने जिस तरह ‘मेक इन इंडिया' को सफल बानने के लिए विश्वविद्यालयों को श्रमिक प्रशिक्षण केंद्र बनाने का फैसला किया है, हमारे समाज के लिए खतरनाक भी हो सकता है। उनका तर्क है कि इससे उन्हें नौकरियां मिल सकती हैं। लेकिन ये नौकरियां ठीक उसी तरह की होंगी, जैसी मैकाले की शिक्षा ने औपनिवेशिक काल में हमें दी थीं। समय आ गया है कि शिक्षा पर खर्च बढ़ा कर हम भारत को पूंजी के लिए सस्ते श्रम का श्रोत न बना कर एक अन्वेषी समाज बनाएं। ओबामा को जिस भारत में अगली क्रांति होने का डर है, उसे साकार बना दें।
इसके लिए हमारे पास हर तरह की क्षमता है और तकनीक भी। अगर शिक्षा में कुछ बदलाव लाना ही है, तो गांधी और महर्षि अरविंद के शिक्षा दर्शनों से कुछ लाभ लें। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान और उसके बाद भारत में शिक्षा के क्षेत्र में बड़े प्रयोग हुए थे, उनसे सीखने की जरूरत होगी। एक तरफ तो मॉडर्न स्कूल, सिंधिया स्कूल, दून स्कूल का मॉडल था, जिनमें भारतीय उच्च वर्ग के बच्चे पढ़ते थे और उनमें जल्दी ही श्रम को शिक्षा से जोड़ना हेय माना जाने लगा। दूसरी तरफ सामान्य सरकारी विद्यालय थे, जिनमें श्रम को महत्त्व तो दिया गया, लेकिन संसाधन पर्याप्त नहीं दिए गए।
इन दोनों के बीच एक और सफल प्रयोग हुआ। जवाहरलाल नेहरू और बिहार के कुछ मनीषियों ने प्रायोगिक तौर पर रांची के करीब नेतरहाट में एक विद्यालय खोला। इसमें प्रतियोगिता परीक्षा के द्वारा सामान्य परिवारों और यहां तक कि अति गरीब परिवारों के बच्चों को लाया गया। गांधी की नई तालीम और नेहरू की आधुनिक शिक्षा के बीच की कोई व्यवस्था बनाई गई। श्रम को यथेष्ठ महत्त्व मिला और बौद्धिकता को भी आदर्श माना गया। प्रचुर मात्रा में आर्थिक सहायता दी गई। बिहार जैसे राज्य में आम परिवारों से चयनित बच्चों में एक समाजवादी मानसिकता के साथ, जातिवादी सोच से मुक्त, अन्वेषी प्रवृत्ति की नई पौध तैयार हो सकी।
इस विद्यालय के लगभग पांच हजार से ज्यादा छात्र भारत और दुनिया भर के अलग-अलग हिस्सों में वैज्ञानिक, शिक्षक, पत्रकार, डॉक्टर, इंजीनियर और अन्य आधुनिकतम पेशे में हैं। इस विद्यालय के ज्यादातर शिक्षकों और छात्रों का मानना है कि श्रम के साथ शिक्षा को जोड़ने का प्रयोग ही इस विद्यालय की सबसे बड़ी देन है, क्योंकि इसका बड़ा प्रभाव उनके जीवन पर पड़ा है। इसने उनके जीवन दर्शन और पेशेवर जिंदगी को प्रभावित किया है।
कुल मिला कर अगर भारत अपनी युवा पीढ़ी का लाभ पाना चाहता है, तो श्रम और शिक्षा को जोड़ने का सबक उसे यहां हुए अनेक प्रयोगों से लेने की जरूरत है। भारत को तकनीकी में प्रशिक्षित सस्ते श्रम के बदले अन्वेषी, लोकोन्मुखी मानव सभ्यता के रूप में दुनिया के सामने रखने की जरूरत होगी।