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संघवाद पर लगी ताजा चोट--डॉ टीएम थॉमस इसाक

राजव्यवस्था का एक सामान्य सिद्धांत है कि वित्तीय संसाधनों का सबसे सही आवंटन सरकार का वह स्तर करता है, जो लाभुकों से सर्वाधिक निकटस्थ होता है, जबकि संसाधनों के बेहतरीन संग्रहण की अपेक्षा सरकार के उस स्तर से की जाती है, जो करदाताओं से सर्वाधिक सुदूर स्थित है.

इसलिए सभी सहयोगात्मक संघीय व्यवस्थाओं में कराधान की शक्ति सामान्यतः केंद्र सरकार के पास केंद्रित रहती है, जबकि व्यय का भार राज्यों पर रहता है. इस राजकोषीय असंतुलन को देखते हुए केंद्र से राज्यों को संसाधनों के स्थानांतरण हेतु समुचित संवैधानिक तंत्र का होना आवश्यक है.

संविधान के अनुच्छेद 280 के अंतर्गत प्रत्येक पांच वर्षों पर नियुक्त होनेवाला संघीय वित्त आयोग (एफसी) ही केंद्र व राज्यों के बीच संसाधनों के लंबवत (वर्टीकल) बंटवारे एवं राज्यों को हस्तांतरित संसाधनों के उनके बीच क्षैतिज वितरण की संस्तुति करता है.

यानी संसाधनों को साझा करना केंद्र की कृपा नहीं, वरन राज्यों का अधिकार है. पर एफसी का गठन और उनकी विचारणीय विषय सूची (टीओआर) तय करना केंद्र सरकार के अधिकार में है, जो संघवाद की भावना के विरुद्ध है.

नब्बे के दशक से ही एफसी राजकोषीय सुधारों के लिए राज्यों को प्रोत्साहित तथा बाध्य करने के माध्यम भी बन गये हैं, जिसे संविधान के अनुच्छेद 280(2(ग) द्वारा स्वस्थ वित्तीय व्यवहारों हेतु राज्यों के लिए अनुशंसाएं करने की जिम्मेदारी केंद्र पर दिये जाने के आधार पर उचित ठहराया जाता है.

ग्यारहवें एफसी से लेकर अब तक नियुक्त सभी एफसी राज्यों के लिए अनुदान वितरण एवं ऋण राहत पैकेजों को ‘राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन अधिनियम' (एफआरबीएमए), शून्य राजस्व घाटे (आरडी) और सकल राज्यीय घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) के तीन प्रतिशत अनुपात जैसे प्रावधानों को लागू करने से जोड़कर यह काम करते आ रहे हैं. वर्तमान 15वें एफसी के टीओआर से साफ हो जाता है कि आयोग की भूमिका में इस बार भी यह तत्व शामिल है.

एफआरबीएमए समीक्षा कमेटी, 2017 ने यह अनुशंसा की थी कि घाटे को निशाना बनाने की बजाय ऋण-जीएसडीपी अनुपात को 60 प्रतिशत के स्तर (केंद्र के लिए 40 और राज्यों के लिए 20 प्रतिशत) पर स्थिर कर दिया जाये तथा इसी के अनुरूप, आरडी-जीएसडीपी अनुपात को भी कम कर 2022-23 तक केंद्र के लिए 2.5 और राज्यों के लिए 1.7 प्रतिशत तक ले आया जाना चाहिए.

यह वर्तमान तीन प्रतिशत के स्तर से एक भारी कमी होगी. जब तक केंद्र एवं राज्यों के लिए राजस्व की स्थिति में उल्लेखनीय सुधार नहीं आता (जिसकी अभी कोई संभावना नहीं दिखती), व्ययों में खासी कमी लाकर ही ऐसा किया जा सकेगा.

टीओआर के इस स्वर से सहज ही यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वर्तमान एफसी भी राज्यों की राजकोषीय आजादी में आगे और कमी लाने का वाहक बन सकता है.

टीओआर एफसी से इस पर भी विचार करने को कहता है कि राजस्व घाटा अनुदान (आरडी ग्रांट) की व्यवस्था जारी रहनी चाहिए या नहीं. चौदहवें एफसी तक, करों के हस्तांतरण के पश्चात अनुच्छेद 275 के अंतर्गत दिये जानेवाले अनुदान को गैर योजना राजस्व घाटा अनुदान कहा जाता था, जो केंद्रीय हस्तांतरण का एक अहम हिस्सा और राज्य की संचित निधि में वृद्धि लाने का साधन था. चौदहवें एफसी ने योजना तथा गैर योजना राजस्व व्यय पर समग्र दृष्टि डाल राजस्व घाटा अनुदान की व्यवस्था की थी.

अब, जबकि वेतन आयोग की अनुशंसाओं, जीएसटी क्रियान्वयन की समस्याओं, सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्रों के लिए व्यय की जरूरतों तथा उदय बांडों पर ब्याज देनदारियों की वजह से निकट भविष्य में ही राज्यों की वित्तीय स्थिति पर काफी दबाव पड़नेवाला है, तो वर्तमान टीओआर के क्रियान्वयन उनके लिए और भी परेशानी का सबब बन जायेगा.

टीओआर का अनुच्छेद 7(9) ‘लोकलुभावन कदमों पर नियंत्रण या उसकी कमी' के विषय पर है. यह अस्पष्ट है और इसकी अनेक व्याख्याएं हो सकती हैं.

इसके द्वारा एफसी को यह अधिकार मिल जायेगा कि वह लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकारों को घोषणापत्रों में जनता से किये वादों के क्रियान्वयन से भी रोक सके और इसके अंतर्गत कल्याण पेंशन से लेकर खाद्य सब्सिडी तक हर कदम को निशाना बनाया जा सकता है. यह लोकतांत्रिक राज्यव्यवस्था पर एक और प्रहार है.

चिंता का अगला बिंदु कर हस्तांतरण हेतु 1971 की आबादी को आधार मानने से इनकार (टीओआर 8) है. जिन राज्यों ने अपनी जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित किया है, जिनमें दक्षिण के लगभग सभी राज्य समेत गोवा, ओड़िशा, असम, हिमाचल, पंजाब तथा बंगाल भी शामिल हैं, उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा और उन्हें यह घाटा इस अनुपात में होगा कि इस उद्देश्य के लिए 2011 की जनसंख्या को कितनी अहमियत दी जाती है. इन राज्यों ने यहां तक पहुंचने हेतु बहुत व्यय किये हैं और उन्हें इसके नतीजे में राजस्व घाटे का भार भी उठाना पड़ेगा.

केरल जैसे राज्य जनसंख्या के विस्थापन दर तक पहुंच चुके हैं और अब वे नये श्रमबल का लाभ उठाने के रूप में जनसांख्यिकीय लाभ बटोरने की स्थिति में भी नहीं रह गये हैं. कर हस्तांतरण फॉर्मूला में उनके इस घाटे की भरपाई को ध्यान में रखना जरूरी है, वरना यह प्रावधान मानव विकास हासिल करने की दिशा में राज्यों को हतोत्साहित करनेवाला बन बैठेगा.

एफसी का निगरानी एजेंसी बन जाना उसकी संवैधानिक भूमिका के अनुरूप नहीं है. चूंकि एफसी एक सतत बना रहनेवाला निकाय नहीं है, अतः उसके द्वारा अनुशंसित कोई भी निगरानी तंत्र केंद्रीय अधिकारियों द्वारा राज्य सरकारों की निगरानी का साधन बन जायेगा.

टीओआर 6(4) संघवाद के बुनियादी ढांचे को चुनौती देता हुआ 14वें एफसी की अनुशंसाओं और न्यू इंडिया-2022 समेत राष्ट्रीय विकास कार्यक्रमों को लेकर केंद्र के आगामी व्ययभारके प्रभावों की भी चर्चा करता है. सहयोगात्मक संघवाद में राज्यों तथा स्थानीय निकायों के बीच आम सहमति की दृष्टि होनी चाहिए.

मापने योग्य परिणामों हेतु राज्यों को एक अधिक बड़ा शर्तरहित अनुदान का आवंटन केंद्र द्वारा अपने स्रोतों से सशर्त अनुदान देने से बेहतर होगा.

जैसा इस टीओआर से स्पष्ट होता है, इसमें सहयोगात्मक संघवाद की सारी बातें भुला दी गयी हैं. यदि संघीय व्यवस्था में राज्यों को अपने जायज हक बरकरार रखने हैं, तो 15वें वित्त आयोग को दिये जानेवाले अपने स्मारपत्रों में उन्हें इन मुद्दों पर अपना नजरिया प्रभावी ढंग से रखना होगा.
(अनुवाद: विजय नंदन)