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संज्ञेय अपराध में प्राथमिकी दर्ज करना अनिवार्य- न्यायालय

उच्चतम न्यायालय ने आज व्यवस्था दी कि संज्ञेय अपराध में पुलिस के लिए प्राथमिकी दर्ज करना अनिवार्य है और ऐसे अपराध के लिए शिकायत मिलने पर मामला दर्ज नहीं करने वाले अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए।

प्रधान न्यायाधीश पी सदाशिवम की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा कि यदि पुलिस को प्राथमिकी दर्ज करने में अपने विवेकाधिकार का इस्तेमाल करने की अनुमति दी गई तो इसके सार्वजनिक व्यवस्था पर गंभीर परिणाम हो सकते हैं और पीड़ितों के अधिकारों पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है।

संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति डा बी एस चौहान, न्यायमूर्ति रंजना प्रकाश देसाई, न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति एस ए बोबडे शामिल हैं।

संविधान पीठ ने कहा कि किसी मामले के तथ्यों के आधार पर वैवाहिक विवाद, वाणिज्यिक अपराध, मेडिकल लापरवाही और भ्रष्टाचार के मामलों में प्रारंभिक जांच की अनुमति दी जा सकती है।

संविधान पीठ ने कहा, ‘‘हम व्यवस्था देते हैं कि यदि सूचना में संज्ञेय अपराध का पता चलता है तो दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 के तहत प्राथमिकी दर्ज करना अनिवार्य है और ऐसी स्थिति में किसी प्रारंभिक जांच की अनुमति नहीं हैं।’’

संविधान पीठ ने कहा, ‘‘यदि संज्ञेय अपराध का पता चलता है तो पुलिस अधिकारी मामला दर्ज करने की अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। यदि पुलिस अधिकारी को दी गयी सूचना में संज्ञेय अपराध का पता चलता है और फिर भी वह प्राथमिकी दर्ज नहीं करता है तो ऐसे अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए।’’

न्यायालय ने कहा कि सूचना के तार्किकता या विश्वसनीयता मामला दर्ज करने के लिये कोई अनिवार्य शर्त नहीं है।

दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों का जिक्र करते हुए न्यायालय ने कहा कि कानून में इस संबंध में कोई अस्पष्टता नहीं है कि प्राथमिकी दर्ज करना अनिवार्य है।

न्यायालय ने कहा कि इसलिए विधायिका की मंशा स्पष्ट है कि प्रत्येक संज्ञेय अपराध के लिए तत्परता से कानूनी प्रावधानों के अनुसार जांच की जानी चाहिए। कानूनी स्थिति यह होने के कारण किसी

संज्ञेय अपराध के बारे में सूचना मिलने पर प्राथमिकी दर्ज करने या नहीं करने के लिए पुलिस के पास कोई विकल्प नहीं बचता है।

संविधान पीठ ने 96 पेज के फैसले में कहा कि यदि प्राथमिकी दर्ज करने के मामले में पुलिस को किसी तरह का विवेकाधिकार या विकल्प मुहैया कराया गया तो सामाजिक व्यवस्था की स्थिति पर इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं और पीड़ितों के अधिकारों पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है।

न्यायालय ने कहा कि यदि पुलिस अधिकारी को मिली सूचना में किसी संज्ञेय अपराध का पता नहीं चलता है तो प्रारंभिक जांच सिर्फ यह पता लगाने के लिए की जा सकती है कि क्या किसी संज्ञेय अपराध का खुलासा होता है या नहीं। न्यायालय ने कहा कि इस जांच का दायर सूचना की सत्यता की पुष्टि करना नहीं बल्कि यह जानकारी प्राप्त करने के लिए है कि क्या इससे किसी संज्ञेय अपराध का पता चलता है।

न्यायालय ने कहा कि जिन मामलों में प्रारंभिक जांच शिकायत बंद करने पर खत्म होती है तो उसकी एक प्रति एक सप्ताह के भीतर प्रथम सूचना देने वाले व्यक्ति को दी जानी चाहिए और शिकायत बंद करने की वजह भी बतानी चाहिए।

संविधान पीठ ने कहा कि प्रारंभिक जांच उन मामलों में की जानी चाहिए जिनमें आपराधिक कार्यवाही शुरू करने में अनावश्यक विलंब हुआ हो लेकिन यह जांच समयबद्ध होनी चाहिए और सात दिन से अधिक इसमें नहीं लगने चाहिए।

न्यायालय ने विभिन्न राज्य सरकारों की इन दलीलों को अस्वीकार कर दिया कि प्राथमिकी दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच जरूरी है क्योंकि कई बार निरर्थक शिकायतें दायर की जाती हैं और इसी आधार पर लोगों के मौलिक अधिकार का हनन करके उनकी गिरफ्तारी भी हो सकती है।

संविधान पीठ ने कहा कि प्राथमिकी दर्ज करना अनिवार्य है जबकि प्राथमिकी दर्ज करने के साथ ही व्यक्ति को गिरफ्तार करना अनिवार्य नहीं है। वास्तव में प्राथमिकी दर्ज करना और आरोपी व्यक्ति को गिरफ्तार करना कानून के तहत अलग अलग मामले हैं और गिरफ्तारी के खिलाफ कई बचाव के उपाय भी हैं।

(भाषा)