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संपत्ति में स्त्री के हिस्से की हकीकत-- प्रदीप श्रीवास्तव

महिलाओं को निजी संपत्ति में हिस्सा देने की बहस काफी पुरानी है। हमारे देश में स्वतंत्रता संग्राम के साथ ही यह बहस तेज हो गई थी। ब्रिटिश राज और उससे आजादी के बाद समय-समय पर कानून बनाए गए हैं, जो महिलाओं को निजी संपत्ति का अधिकार तो देते हैं, लेकिन समाज में पुरुष प्रधान सोच के कारण कानून पंगु बना रहा। वर्तमान समय में फैक्टरी, कार्यालय, खेत या घर- हर जगह महिलाएं समान रूप से श्रम कर रही हैं। इसके बावजूद सामाजिक तौर पर निजी संपत्ति के बंटवारे के समय उनकी अनदेखी की जाती है। इस बारे में कानून महज दिखावा साबित होते हैं। पूंजीवाद महिलाओं को समानता का हक तो देता है, लेकिन घर की चौहद्दी के अंदर। वह महिलाओं को श्रम के तौर पर बाजार और फैक्टरी तक लाता है, लेकिन उनके श्रम को सामाजिक श्रम का हिस्सा मानने से हिचकता है। इसीलिए पूरी दुनिया में मानव श्रम की गणना की जाती है तो महिलाओं की अनदेखी की जाती है। इनमें महिलाओं द्वारा घरेलू काम या बच्चों की परवरिश के लिए किए जाने वाले श्रम की गणना नहीं होती है। वर्तमान व्यवस्था भी किसी न किसी रूप में विभिन्न प्रचार माध्यमों से इस गैरबराबरी को बनाए रखना चाहती है।

 


 
महिलाओं को जब संपत्ति में हिस्सा देने की बारी आई तो नीति-निर्माताओं ने महिला संपत्ति की उल्टी-सीधी व्याख्या करनी शुरू कर दी। कभी विवाहित महिला द्वारा बचाए गए पैसे-जेवर आदि को स्त्री की निजी संपत्ति के रूप में माना गया, कभी शादी के बाद पति की संपत्ति को महिला की निजी संपत्ति मान लिया गया। लेकिन वक्त बदलने के साथ ही महिलाएं समान अधिकार को लेकर पहले से ज्यादा जागरूक होने लगी हैं, जिस कारण संपत्ति अधिकार कानून के व्यावहारिक पक्ष पर बहस तेज हुई है। प्राचीन काल से मध्यकाल तक की सांस्कृतिक अवस्थाओं में महिलाओं की स्थिति ऐसी बनी कि वे संपत्ति और दूसरे अधिकारों के मामले में लगातार हाशिये पर चली गर्इं। लेकिन आधुनिक भारत में महिला अधिकार आंदोलनों का भारतीय समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा। आजादी की लड़ाई के दौरान सभी प्रभावशाली नेताओं ने महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिए जाने की वकालत की। उस समय के नेताओं ने महसूस किया कि आर्थिक आजादी महिलाओं को संपत्ति में हक देने की लड़ाई से पूरी तरह से घुली-मिली है। सैद्धांतिक तौर पर प्रकृति भी महिलाओं और पुरुषों में कोई भेद नहीं करती है और न ही प्रारंभिक समाज में ऐसा था। लेकिन विभिन्न सामाजिक संरचना, भौगौलिक, राजनीतिक और आर्थिक कारणों से विश्व के अलग-अलग देशों में महिलाओं की सामाजिक स्थिति में काफी अंतर है। कहीं 
महिलाओं को ज्यादा अधिकार हैं, तो कहीं कम। आज भी जनजातीय समाजों में महिलाओं को बराबरी के अधिकार हैं जो उनको संपत्ति रखने का भी अधिकार देते हैं।

 

 



 
जबकि हमारे देश में व्यावहारिक रूप से महिलाओं को पुरुषों से कम अधिकार मिले हैं। इसमें भी संपत्ति रखने के मामले में महिलाओं की स्थिति सबसे ज्यादा खराब है। हालत यह है कि अभी तक महिलाओं और पुरुषों की संपत्ति के अधिकार को लेकर कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। अगर हम बंगाल, गुजरात, बिहार या उत्तर प्रदेश में महिलाओं की संख्या और संपत्ति में उनके हिस्से की जानकारी प्राप्त करना चाहें तो भूसे में सूई ढूंढ़ने जैसा होगा। अनेक संगठन महिलाओं के हक की आवाज तो उठाते हैं, लेकिन उनके आंदोलन और मुद्दे आपस में एक दूसरे से अलग-अलग हैं। संयुक्त राष्ट्र की शाखा यूएन-वूमेन ने ‘नेशनल फाउंडेशन आॅफ इंडिया' और ‘गर्ल्स काउंट' के साथ मिल कर सोशल मीडिया पर काफी जोर-शोर से यह मुद्दा उठाया है, जिसे समर्थन मिलना शुरू हो गया है। यों भारत जैसे देश में महिलाओं की सामाजिक हैसियत क्या रही है, यह किसी से छिपा नहीं है। जन्म लेने से लेकर मृत्यु तक महिलाओं को पुरुषों की दया पर जिंदा रहना पड़ता है। अतार्किक और पितृसत्तात्मक सोच के बोझ तले स्त्रियों की पूरी जिंदगी गुजर जाती है। यह तथ्य है कि संपत्ति सहित जमीन और मकान पर महिलाओं का मालिकाना हक होने से उनके साथ भेदभाव कम होते हैं।

 

 



 
जिन देशों में महिलाएं आर्थिक रूप से ज्यादा सशक्त हैं, वहां भेदभाव में कमी आई है। हमारे देश में धर्म सुधार और महिला अधिकार आंदोलनों के कारण अंग्रेजों ने प्रॉपर्टी एक्ट 1937 तैयार किया, जिसमें हिंदू धर्म में विधवा महिलाओं को संपत्ति में अधिकार दिया गया। यह आधे-अधूरे ढंग से तैयार किया गया। इस कानून के अनुसार अगर पति ने अपनी कोई वसीयत नहीं तैयार की है तो पुत्र को विरासत में मिली संपत्ति की आधी हकदार विधवा भी होती थी। 1933 में कर्नाटक सरकार ने हिंदू कानून में महिला को संपत्ति में अधिकार के अधिनियम को भी जोड़ा। हालांकि महिलाओं को संपत्ति के कुछ सीमित अधिकार ही दिए गए, लेकिन यह पहली बार कानूनी तौर पर महिलाओं को संपत्ति में अधिकार देने की लिखित व्याख्या करता है। इस कानून के तहत वह संपत्ति को बेच, वसीयत या दान नहीं कर सकती थी। लेकिन वह स्त्री धन के तौर पर जुटाई गई संपत्ति को बेच सकती थी। इसमें भी जेवर, कीमती परिधान, प्राप्त उपहार आदि शामिल थे। आजादी के बाद 1956 में हिंदू सेक्सेशन एक्ट की धारा-14 महिलाओं को संपत्ति में पूरा अधिकार देती है। चल और अचल संपत्ति पर भी।

 

 



 
हिंदू उत्तराधिकार कानून 2005 में हुए बदलाव से अब बेटियों को भी संपत्ति में बेटों के बराबर संपत्ति का हकदार बना दिया गया है। इस नियम के तहत अब माता-पिता की संपत्ति की रजिस्ट्री, बेचना, पट्टे पर देना या ट्रांसफर करना बेटी के हस्ताक्षर के बिना संभव नहीं है। इस मामले में या तो बेटी संपत्ति में से अपना हिस्सा लेती है या फिर यह घोषित करती है कि वह अपना हिस्सा अपने भाई को देना चाहती है। तभी संपत्ति की रजिस्ट्री या खरीद-बिक्री संभव हो सकती है। बेटी चाहे अविवाहित हो या विवाहित दोनों को ही समान रूप से अपने पिता की जमीन-जायदाद का हिस्सा लेने का हक प्रदान किया गया है।चूंकि देश में महिलाओं के संपत्ति अधिकार को लेकर बहुत कम चर्चा हुई है, जिस कारण से शोध और सर्वे का कार्य भी नाममात्र का ही है। 2013 में दिसंबर में इंटरनेशनल लैंड कोलिशन, रूरल डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट और यूएन वूमेन ने हिंदू सेक्सेशन सुधार अधिनियम 2005 को लागू करने के बाद की स्थिति पर अपनी रिपोर्ट पेश की। इसमें आंध्र प्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश जैसे कृषि आधारित राज्यों में ग्रामीण क्षेत्रों में जमीन हस्तांतरण को लेकर अध्ययन किया गया। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी जमीन संपत्ति का सबसे बड़ा माध्यम है।

 

 



 
गांवों में परिवार या व्यक्ति की हैसियत जमीन के आधार पर ही आंकी जाती है। रिपोर्ट बताती है कि पुरुष प्रधान समाज में कानून को लागू करने वाला हर वर्ग इससे अनजान है। महिलाएं खुद भी पुरुष प्रधान सोच से ग्रस्त हैं। वे जमीन अपने बेटों को तो देती हैं, लेकिन बेटियों को देने से हिचकती हैं। दरअसल, महिलाओं का मानना होेता है कि बेटी पराए घर चली जाएगी, ऐसे में संपत्ति बंट जाने से सामाजिक संबंध भी छिन्न-भिन्न हो जाएंगे। यहां तक कि प्रशासनिक और न्यायपालिका में भी हर स्तर पर महिला को संपत्ति का अधिकार देने के कानून या नियम के मामले में उदासीनता बरती जाती है। इस रिपोर्ट को भारत सरकार को सौंप दिया गया, ताकि वह महिला संपत्ति कानून को प्रभावी तरीके से लागू करने की कार्ययोजना बना सके। इसमें निष्कर्ष निकाला गया कि संपत्ति में अपना हक लेने के लिए महिलाओं को अपनी मानसिकता बदलनी होगी। साथ ही महिला अधिकार के सवालों को संपत्ति अधिकार के मुद्दे से जोड़ना होगा।