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संविधान की रक्षा के लिए न्यायिक सक्रियता जरूरी- जस्टिस आर एस सोढ़ी

इस साल सुप्रीम कोर्ट ने भ्रष्टाचार और चुनाव सुधार की दिशा में कई अहम फैसले सुनाये. इन फैसलों के दूरगामी असर होंगे. हालांकि सुप्रीम कोर्ट के इन फैसलों से एक बार फिर न्यायिक सक्रियता का सवाल उठा और कई लोगों ने न्यायपालिका को लक्ष्मण रेखा न लांघने की सलाह भी दी. लेकिन मेरा स्पष्ट मानना है कि जब शासन व्यवस्था जनहित की जिम्मेवारी नहीं निभाती है, तो एक शून्य उभरता है. विधायिका और कार्यपालिका ने इस शून्य का निर्माण किया है. जब शून्य पैदा होगा, तो इसे भरने के लिए कोई न कोई जगह लेगा. जनप्रतिनिधि और नौकरशाह अपनी जिम्मेदारियों का सही तरीके से निर्वहन नहीं कर पा रहे हैं. ऐसे में लोगों की उम्मीद न्यायपालिका पर टिक जाती है. ऐसी धारणा है कि जब अदालत जन सरोकारों को लेकर हस्तक्षेप करने लगे, तो मान लेना चाहिए कि विधायिका और कार्यपालिका कमजोर हो रही है. इसी कमजोरी के कारण न्यायपालिका को सक्रिय भूमिका निभानी पड़ रही है. देश में भ्रष्टाचार बढ़ा है और कार्यपालिका इसे रोक पाने में नाकाम साबित हो रही है. इससे लोगों का भरोसा टूट रहा है. इसलिए न्यायालयों को हस्तक्षेप करना पड़ा है.

न्यायिक हस्तक्षेप के कारण ही टू जी से लेकर कोयला आवंटन की जांच मुमकिन हो सकी. अगर विधायिका पहले ही सही कदम उठाती तो अदालतों को हस्तक्षेप नहीं करना पड़ता. उसी प्रकार, काफी अरसे से राजनीति के अपराधीकरण पर रोक लगाने को लेकर चरचा और बहस होती रही. लेकिन इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया, उलटे जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) की आड़ लेकर सजा होने के बावजूद वे बचे रहते थे. संविधान में इसके अलावा कोई दूसरा ऐसा कोई कानून नहीं था, जिसमें राजनेता के दोषी करार दिये जाने के बावजूद कुर्सी बची रहे. जब कोई सजायाफ्ता व्यक्ति सरकारी पद हासिल नहीं कर सकता है, तो जनप्रतिनिधि कैसे अपने पद पर बने रह सकते हैं. यह कानून समानता के अधिकार का उल्लंघन था. लेकिन इस कानून को बनाये रखा गया. संविधान की रक्षा करना सुप्रीम कोर्ट का काम है. ऐसे में इस कानून को न्याय के नैसर्गिक सिद्धांत को बचाये रखने के लिए निरस्त करना पड़ा. यह काम विधायिका को करना चाहिए था.

विधायिका का काम कानून बनाना है, लेकिन यह संविधान सम्मत होना चाहिए और इसकी समीक्षा का अधिकार अदालत को है. विधायिका की ओर से सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने की कोशिश की गयी, लेकिन जनदबाव में सरकार ने फैसला वापस ले लिया. अगर सरकार इसमें सफल भी हो जाती तो कोई व्यक्ति इसे अदालत में चुनौती दे सकता था. यदि राजनेता अपने हितों के लिए कानून बनायेंगे, तो न्यायपालिका का कर्तव्य है कि हस्तक्षेप करे. अगर कानून संविधान सम्मत नहीं होगा या कोई नीति कानून सम्मत नहीं होगी तो अदालत का हस्तक्षेप करना जायज है. जन प्रतिनिधित्व कानून भी इसी दायरे में आता था.

उसी तरह चुनाव सुधार के लिए भी कार्यपालिका ने कोई ठोस पहल नहीं की. पर्यावरण संरक्षण से लेकर लोगों के मानवाधिकार की रक्षा करना कार्यपालिका का काम है. लेकिन कार्यपालिका की अनदेखी के चलते ही अदालतों को हस्तक्षेप करने पर मजबूर होना पड़ा. ऐसी स्थिति तभी आती है जब विधायिका और कार्यपालिका अपने दायित्वों का पालन करने में विफल रहती है. भले ही सरकार यह कहे कि नीति-निर्माण का काम सरकार का है और इसमें अदालतों को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, लेकिन नीति-निर्माण जनहित और संविधान से परे नहीं हो सकते हैं. संविधान की रक्षा का दायित्व न्यायपालिका का है, न कि सरकार का. न्यायिक सक्रियता के कारण ही कई घोटाले उजागर हुए और प्रभावशाली लोगों को जेल जाना पड़ा. इससे लोगों का न्याय के प्रति भरोसा बढ़ा. लोगों को लगता है कि बिना न्यायपालिका के हस्तक्षेप ये घोटाले सामने नहीं आ पाते. यही कारण है कि आज कई बड़े मामले अदालत की निगरानी में चल रहे हैं. यह सक्रियता का सवाल नहीं है, बल्कि इस पर गौर करने का है कि सभी अंग अपने दायित्वों का सही तरीके से निर्वाह करें. सक्रियता का यह मतलब नहीं है कि अदालत ही सरकार चलाये. लोकतंत्र के लिए यह अच्छी बात नहीं है. लेकिन कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका को अपने दायरे में रहते हुए जिम्मेदारी पूर्वक काम करना चाहिए.

एक बात स्पष्ट है कि न्यायिक सक्रियता के कारण जनहित से जुड़े कई अहम काम हुए हैं, लेकिन न्यायपालिका को लोगों को त्वरित न्याय दिलाने के लिए भी कदम उठाना चाहिए.

 

(बातचीत : विनय तिवारी)