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संसद में महिलाओं की हिस्सेदारी- सुषमा वर्मा

भाजपा और कांग्रेस महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने और लोकसभा व विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण की चाहे जितनी वकालत करें, उनकी कथनी और करनी में फर्क बरकरार है. महिलाओं के सशक्तीकरण तथा बराबरी की बात करनेवाले दलों की असलियत टिकट वितरण के समय सामने आ जाती है.

यह भी देखने में आता है कि प्रमुख महिला प्रत्याशी के खिलाफ अकसर महिला को ही मैदान में उतारते है. ऐसे में एक ही महिला चुनाव जीत पाती है. इस तरह बहुत सी प्रतिभावान महिलाएं संसद या विधानसभाओं में पहुंचने से वंचित रह जाती हैं. जिन्हें टिकट मिलता है, वे भी ज्यादातर राजनीतिक पारिवारों से आती हैं. उनके पीछे पिता या पति का हाथ होता है. टिकट बांटते समय हर दल उस प्रत्याशी की जीत की संभावना टटोलता है.

इन सबके बीच भारत के संसदीय लोकतंत्र में महिलाओं की स्थिति कितनी कमजोर है, इसका पता दुनियाभर की संसदों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर इंटर-पार्लियामेंट्री यूनियन के ताजा अध्ययन से चलता है. रिपोर्ट के अनुसार यूरोप, अमेरिका और दुनिया के अन्य विकसित देशों की संसदों में महिला जनप्रतिनिधियों की संख्या के मुकाबले हम कहीं नहीं ठहरते. हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान, चीन, नेपाल, बांग्लादेश और अफगानिस्तान भी हमसे कहीं आगे हैं. सब-सहारा के कुछ अति पिछड़े देशों की संसदों में भी महिलाओं की हिस्सेदारी भारत से ज्यादा है.

विश्वभर की संसदों में महिलाओं की संख्या के आधार पर हुए सर्वे में भारत 103वें स्थान पर है, जबकि नेपाल 35वें, अफगानिस्तान 39वें, चीन 53वें, पाकिस्तान 64वें, इंग्लैंड 56वें, अमेरिका 72वें स्थान पर हैं. बांग्लादेश में हर पांच में से एक सांसद महिला है. यहां तक कि सीरिया, रवांडा, नाइजीरिया और सोमालिया आदि की संसदों में भी महिलाओं की हिस्सेदारी भारत से है. फिलहाल भारतीय संसद के दोनों सदनों में 12 प्रतिशत महिलाएं (96) हैं. लोकसभा में 65 और राज्यसभा में 31.

नेपाल की संसद में कुल 176 सीट हैं और वहां हर तीसरी सीट पर महिला सांसद विराजमान है. अफगानिस्तान के दोनों सदनों में कुल 28 फीसदी महिला (97) हैं, जबकि चीन में निचले सदन में कुल 699 सांसदों में से 24 प्रतिशत महिला हैं. पाकिस्तान में 84 महिलाएं सांसद हैं. इनमें से 21 प्रतिशत निचले और 17 प्रतिशत उच्च सदन में हैं. इंग्लैंड में हाउस ऑफ कॉमन्स और हाउस ऑफ लॉर्डस में यह आंकड़ा क्रमश: 23 और 24 फीसदी है. अमेरिका के निचले सदन में 20 प्रतिशत महिलाएं हैं, जबकि उच्च सदन में केवल 20 सांसद हैं. सबसे खराब स्थिति वनुआतू की है, जहां संसद में एक भी महिला नहीं है.

इस संदर्भ में दस साल पहले, 1995 में हुए इंटर-पार्लियामेंट्री यूनियन के सर्वे में यूरोपीय देशों का प्रभुत्व था. तब प्रथम दस स्थान पर उनका कब्जा था, लेकिन 2015 की स्थिति में काफी बदलाव आया है. पहले दस में चार देश अब सब-सहारा अफ्रीका के हैं. ऐसे में स्वाभाविक सवाल है कि जब बीस साल में सब-सहारा, अफ्रीकी देशों की स्थिति बदल सकती है, तो भारत में ऐसा क्यों नहीं हुआ? क्या कारण है कि स्वतंत्रता आंदोलन और आजादी के आरंभिक वर्षो में महिलाओं की जो महत्वपूर्ण भूमिका थी, बाद के वर्षो में उसमें प्रगति नहीं हुई?

पिछले सौ-डेढ़ सौ साल का इतिहास खंगालने पर हिंदुस्तानी औरतों की बहादुरी के अनेक किस्से मिल जाते हैं. महात्मा गांधी के आह्वान पर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ हजारों महिलाएं कुरबानी देने घर से निकल आयी थीं. लेकिन, आजादी के इतने बरस बाद भी राजनीति में महिलाओं की भागीदारी की बात कागजी ही नजर आती है. हालांकि, देश के संविधान में पुरुषों और महिलाओं को समान अधिकार प्राप्त हैं, लेकिन हकीकत में वे हर मोर्चे पर गैर बराबरी का दंश ङोलती हैं. 1952 में जब देश की आबादी आज से एक तिहाई से भी कम थी, तब 22 महिलाएं लोकसभा चुनाव जीती थीं. आज जनसंख्या का आंकड़ा सवा अरब पार कर गया है, फिर भी वर्तमान (16वीं) लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व महज 11.23 प्रतिशत (65) है, जो अब तक का सर्वश्रेष्ठ आंकड़ा है!

अब इसका एकमात्र उपाय महिला आरक्षण विधेयक है. संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देनेवाला विधेयक लंबे समय से लटका पड़ा है. यदि यह कानून लागू हो जाये, तो लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या स्वत: 179 हो जायेगी. इस विधेयक की राह में बरसों से रोड़े अटकाये जा रहे हैं. गौरतलब है कि बीते 63 बरस में हमारी संसद में महिला सांसदों की संख्या मात्र 39 बढ़ी है. यदि वृद्धि की रफ्तार यही रही, तो 179 के आंकड़े को छूने में करीब ढाई सौ साल लग जायेंगे और तब तक हम अन्य देशों से बहुत पीछे खिसक जायेंगे.