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संसाधनों की कमी नहीं दूरगामी नीति का अभाव- रवि दत्त वाजपेयी

तीन माह से 3 साल के 70 } बच्चे रक्त-अल्पता से पीड़ित
अगले 20-30 वर्षों में भारत को अपनी अन्न सुरक्षा के लिए खेती के आधुनिक तरीकों, बेहतर सिंचाई-प्रबंधन, पर्यावरण के अनुकूल बीज-खाद-कीटाणुनाशक का उपयोग, उदार आर्थिक सहयोग और ग्रामीण क्षेत्रों में बेहतर सड़क, बिजली, भंडारण की सुविधाओं, आम लोगों की क्र य शक्ति बढ़ाने में भारी निवेश की आवश्यकता पड़ेगी. आज पढ़िए छठी कड़ी.
 
भारत को आर्थिक महाशक्ति घोषित करने को व्याकुल पैरोकारों से भारत के आर्थिक विकास की गति का नहीं बल्कि भारतीय बच्चों के विकास की गति के बारे में सवाल पूछना लाजिमी है. अन्न, फल, सब्जियों, दूध जैसे खाद्य पदार्थों के उत्पादन नये कीर्तिमान गढ़ते भारत में,  तीन माह से तीन साल की उम्र के 70 फीसदी  बच्चे और 65 फीसदी वयस्क महिलाएं एनीमिक या रक्त-अल्पता की बीमारी से पीड़ित क्यों है? दुनिया में भोजन की कमी से जूझ रहे जनसंख्या का एक चौथाई हिस्सा, करीब 21 करोड़ लोग भारत में कैसे हैं?  
      
भारत में भोजन सुरक्षा के दो पहलू है, पहला वर्त्तमान में आबादी के बड़े हिस्से को उपयुक्त मूल्य पर समुचित मात्र में पोषक भोजन उपलब्ध कराना और दूसरा भविष्य में तेजी से बढ़ती आबादी और घटती कृषि उत्पादकता के बीच आम लोगों को पर्याप्त खाद्यान्न की आपूर्ति सुनिश्चित करना.
 
यदि भारत में आज ही पर्याप्त आहार और शिशु-महिला कुपोषण की स्थिति पाकिस्तान, नेपाल और अनेक अफ्रीकी देशों से भी बदतर है तो भविष्य में तो यह समस्या और भी विकराल रूप में सामने आयेगी. क्या भारत इस खाद्यान्न आपदा से निबटने में सक्षम होगा?  भारत में कृषि व ग्रामीण अर्थव्यवस्था के प्रसिद्ध लेखक-पत्रकार-विचारक पी साईनाथ ने अपने एक लेख में भुखमरी समाप्त करने के सरकारी तरीके का एक नमूना पेश किया. 
 
महाराष्ट्र अकाल विलोपन अधिनियम, 1963 के जरिये राज्य सरकार ने ऐसा कानून बनाया जिसके अंतर्गत महाराष्ट्र में किसी भी स्थिति में अकाल घोषित नहीं किया जा सकता, राज्य सरकार ने अपने हर कानून में अकाल (फेमिन) शब्द को मिटा कर उसके स्थान पर अभाव (स्केयरसिटी) शब्द का प्रयोग शुरू किया. साईनाथ के अनुसार भोजन के एक अतिरिक्त निवाला जोड़े बगैर ही महाराष्ट्र सरकार ने अपनी सारी जनसंख्या को अकाल-मुक्त कर लिया. भोजन सुरक्षा अधिकार की सरकारी घोषणाओं को इस संदर्भ में देखना चाहिए लेकिन इसके बावजूद भी भारत की विशाल जनसंख्या को भोजन सुरक्षा देने की जवाबदेही और सामथ्र्य केवल सरकारी तंत्र के पास ही है.
मूलत: भोजन सुरक्षा के तीन अंग हैं- उत्पादन, वितरण और आपदा प्रबंधन.  उत्पादन के क्षेत्र में स्वतंत्रता के बाद खाद्य पदार्थों की आपूर्ति के लिए विदेशी सहायता पर आश्रित भारत हरित क्रांति के बाद दाल व तिलहन के अलावा अन्य खाद्यान्नों के उत्पादन में पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो चुका है.
 
वितरण अर्थात देश के प्रत्येक भौगोलिक क्षेत्र में, समाज के हर वर्ग को उनकी जरूरत के अनुसार ऐसी पोषक खाद्य सामग्री उपलब्ध करना जो सुरक्षित और उनके पारंपरिक खाद्य व्यवहार के अनुरूप हो. आपदा प्रबंधन अर्थात प्राकृतिक विपदाओं जैसे बाढ़, अकाल, चक्र वात आदि से निपटने के लिए उचित मात्र में और निरापद रूप से खाद्य-सामग्री के भंडारण व वितरण की व्यवस्था करना.
 
1950-51 के बाद से लगातार भारत में अनाजों की उपलब्धता और खपत दोनों बढ़ी है तो एक देश के रूप में भारत की खाद्य सुरक्षा पहले से बहुत मजबूत होनी चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हुआ है. भारत में व्यापक भुखमरी का कारण देश में खाद्यान्न उत्पादन में कमी नहीं बल्कि बड़ी संख्या में लोगों को समुचित पोषक आहार पाने से वंचित रखना है. भारत में अधिकतर लोगों के भोजन में पोषक तत्वों जैसे दाल व प्रोटीनयुक्त खाद्य सामग्री के अभाव के चलते भोजन से आवश्यक मात्र में कैलोरी नहीं मिल रही है, जिसके कारण भारत में इतनी बड़ी जनसंख्या कुपोषण का शिकार है. 
 
खाद्य पदार्थों की ऊंची कीमतों के चलते भी भारत की बड़ी जनसंख्या को आवश्यक मात्र में खाद्य सामग्री खरीदना संभव नहीं है, वितरण के लिहाज से तो दूर-दराज के क्षेत्रों में सही प्रकार की खाद्य सामग्री भी उपलब्ध नहीं है. एक उदाहरण के तौर पर जहां 1951 में भारत में  दैनिक उपभोग के लिए प्रति व्यक्ति 60.7 ग्राम दाल उपलब्ध थी, आज यह मात्र केवल 35-37 ग्राम ही है, कम उपलब्धता और ऊंचे दाम पर बिकने वाली इस दाल को गलाना, हर भारतीय की पहुंच में नहीं है.
आपदा प्रबंधन और सुरिक्षत भंडारण के नाम पर भारत में एक षड्यंत्र चल रहा है, एक तरफ भारत में उपजे अनाज को बदहाली में रखकर बरबाद किया जाये और दूसरी तरफ बफर स्टॉक की कमी बता कर गेहूं जैसे अन्न को भी बेहद ऊंचे दामों पर विदेशों से आयात किया जा सके. एक अनुमान से दुनिया के अनेक देशों में कुपोषण के घटने की दर उनके आर्थिक विकास की दर के आधी के करीब थी; वहीं भारत में जब 1990-2005 में आर्थिक विकास की औसत दर 4.5 फीसदी थी तो कुपोषण घटने की दर मात्र 0.65 फीसदी रही है. भारत में आर्थिक विकास की यह रफ्तार भी कुपोषण कम करने में असफल रही है, इसका प्रमुख कारण भारत के आर्थिक विकास के ढांचे में सार्वजनिक उत्तरदायित्व का अभाव है, इसीलिए भारत की भोजन-सुरक्षा में सरकारी तंत्र की जवाबदेही आवश्यक है. 
 
भोजन सुरक्षा प्रयासों को सरकारी संसाधनों का अपव्यय बताना बुनियादी तौर पर गलत है क्योंकि भारत में कुपोषण का एक गंभीर आर्थिक पक्ष भी है. कुपोषित बच्चों के वयस्क होने तक जीवित रहने पर भी उनके स्वास्थ्य की गंभीर समस्याएं बनी रहती है और वे अपने काम में एक पूर्णत: स्वस्थ व्यक्ति की भांति योगदान नहीं कर पाते है, व्यक्तिगत उत्पादकता की कमी आर्थिक रूप से बहुत हानिकारक है.  इसी प्रकार जनसंख्या के एक भाग को पीढ़ी दर पीढ़ी कुपोषित रखने के गंभीर आर्थिक-सामाजिक परिमाण है.
 
भविष्य में अपनी बढ़ती आबादी के लिए जरूरी खाद्यान्न उत्पादन के लिए भारतीय कृषि कतई भी तैयार नहीं है. हरित क्र ांति के नुस्खे अब अपना कुप्रभाव दिखा रहे हैं, अतिशय रासायनिक खाद, अत्यधिक सिंचाई, आयातित बीजों और खाद्यान्नों के स्थान पर नकदी फसलों की पैदावार से भारत की कृषि उत्पादकता बहुत घट गयी है. अगले 20-30 वर्षों में भारत को अपनी अन्न सुरक्षा के लिए खेती के आधुनिक तरीकों, बेहतर सिंचाई-प्रबंधन, पर्यावरण के अनुकूल बीज-खाद-कीटाणुनाशक का उपयोग, उदार आर्थिक सहयोग और ग्रामीण क्षेत्रों में बेहतर सड़क, बिजली, भंडारण की सुविधाओं, आम लोगों की क्र य-शक्ति बढ़ाने में भारी निवेश की आवश्यकता पड़ेगी. भारत के पास इस निवेश के लिए आर्थिक संसाधनों की कमी नहीं है लेकिन भरसक दूरगामी नीतिगत निर्णय लेने वाले राजनीतिक-प्रशासनिक संसाधनों का अकाल है.