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सकारात्मकता का नतीजा, 50 लाख पेड़- सच्चिदानंद भारती

जब मैं यह लिख रहा हूं तो करीब 40 साल का काम आंखों में तैर रहा है। यह मेरे आसपास के 136 गांवों में फैला हुआ है। देवभूमि उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल और चमौली जिले के इन गांवों में हमने करीब 50 लाख पौधे रोपे। अब ये पहाड़ों पर आसमान चूमते हरे-भरे दरख्तों की शक्ल में सामने हैं, जिन्हें देखने देश-दुनिया के हजारों लोग आते हैं। मशहूर चिपको आंदोलन की प्रेरणा से उपजा यह एक ऐसा फल है, जिसे धरती ने अपनी सेवा के बदले प्रसादस्वरूप हम गांव वालों को लौटाया। मगर आज इन शानदार नतीजों के सामने आने की कहानी ये चार पंक्तियां लिखे जाने जितनी आसान नहीं थी।

हमारे यहां निस्वार्थ भाव से समाज के लिए शुरू किया गया कोई भी काम कई परीक्षाओं से होकर गुजरता है। आसपास मौजूद नकारात्मक लोग पहले शक करते हैं। भरोसा तो कतई नहीं करते। हौसला बढ़ाना तो बहुत दूर की बात है। एेसे लोगों की तादाद कम नहीं है। वे आपके खिलाफ खड़े होते हैं। परदे के पीछे कानाफूसी साजिश में बदलती हैं। ये सारी बाधाएं मेरे रास्ते में शुरू से ही रहीं। आज यकीन के साथ कहता हूं कि आप सिर्फ अपने काम में लगे रहें। यह मानकर चलें कि किसी भी बड़े मकसद में आपकी ऊर्जा का एक हिस्सा हर तरफ फैली नकारात्मकता से निपटने में लगेगा ही। आपके सकारात्मक प्रयासों में वह भी एक निवेश ही है। उसकी तैयारी होनी ही चाहिए। वर्ना बहुत मुमकिन है कि आप शुरुआती कोशिशों में ही हारकर लौट जाएं।

1973 में चिपको आंदोलन शुरू हुआ था। इसके प्रणेता चंडीप्रसाद भट्‌ट से मेरी मुलाकात एक साल बाद तब हुई जब मैं कॉलेज की पढ़ाई के लिए गोपेश्वर गया। भट्‌ट दिल्ली के किसी अखबार के लिए खबरें भी भेजते थे। मैंने कुछ लड़कों के साथ मिलकर युवा निर्माण समिति बनाई थी, जो हर हफ्ते कभी डीएम, कभी जज तो कभी डीएफओ को बुलाकर कॅरिअर के बारे में व्याख्यान आयोजित करती थी। एक आयोजन की सूचना लेकर मैं उनके पास पहुंचा। यह रचनात्मक काम देखकर वे बड़े खुश हुए। उनके बेटे भुवनेश से मेरी दोस्ती हो गई। उन्हीं दिनों एक खबर आई कि जोशी मठ धंस रहा है। दसौली ग्राम स्वराज्य मंडल ने वहां एक प्लांटेशन कैंप लगाने की घोषणा की। यह वही संस्था थी, जिसने चिपको आंदोलन शुरू किया। भट्‌ट इसी में काम करते थे। अपने सौ साथियों के साथ 45 दिन के उस कैंप ने मेरे भविष्य का फैसला कर दिया। सबक यह था कि अपने मूल काम के साथ कुछ अलग और कुछ नया काम आपको नए लोगों से जोड़ता है। आपकी दुनिया फैलती है।

मैं अपने गांव लौटा। उजड़ते पहाड़ों और घटती हरियाली के जिन कारणों से चिपको आंदोलन शुरू हुआ था, वह मेरे अपने गांव उफरैंखाल और आसपास के गांवों में भी मौजूद थे। मुझे सरकारी स्कूल में टीचर की नौकरी मिल गई मगर पहाड़ों पर हरियाली का सपना मेरी आंखों में भट्‌ट ने रोप दिया था। वह काम मैंने अपने गांव में शुरू किया। किसी को यकीन ही नहीं आता था कि मैं बिना किसी बाहरी मदद के यह काम कर रहा हूं। भला कोई क्यों मुफ्त में दौड़धूप करेगा। कुछ लोगों को शक हुआ कि बाहर से पैसा लेता हूं। दुखद यह है कि नकारात्मक सोच रखने वाला यह पढ़ा-लिखा तबका था। गांव के सीधे-सादे लोग काम में हाथ बटाते, मगर पढ़े-लिखे लोग शक करते। वे कहते कि बाहर से इसे मदद मिलती है, हमसे श्रमदान की बातें करता है। मैं कभी मायूस जरूर होता मगर हताश कभी नहीं। धीरे-धीरे काम बढ़ा। आसपास के गांव के लोगों ने रुचि ली तो शक भरी निगाहें भी बढ़ती गईं। जब बाहर के लोगों को यहां आ रहे बदलावों की खबर मिली तो ईष्यालुओं की नई पौध सामने थी। उनकी तकलीफ यह थी कि श्रमदान तो गांव के लोग भी करते हैं, बाहर नाम इसका हो रहा है, जबकि मैंने कभी इस काम का प्रचार नहीं किया। गांव के हम चार लोग मिलकर काम करते रहे। उनके शक और ईष्या को कैसे प्यार और सहयोग में बदलूं, यह नहीं जानता था। बस खामोशी से काम में लगा रहा।

1999 में वह दिन आया जब सारी नकारात्मकता खुद ही तिरोहित हो गई। मेरे गांव में सूखारौला नाम की एक सूखी पहाड़ी नदी में बारह महीनों पानी बहने लगा। यह पहाड़ों में किए गए वाॅटर रिचार्जिंग के प्रयोगों का परिणाम था कि पहाड़ों से उतरी नमीं एक धारा में बह निकली। पहली बार इसका नामकरण सूखारौला से गाडगंगा हुआ। एक पहाड़ी नदी का नामकरण। वर्ल्ड बैंक की एक टीम के सदस्य यह काम देखने आए। टीम की प्रमुख वेंडा के साथ कई सरकारी अफसर भी थे। उन्हांेने कहा कि बिना पैसे के इतना बड़ा काम उन संस्थाओं को देखना चाहिए जो पैसे पर पलती हैं। फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघ चालक केएस सुदर्शन मेरे गांव आए। हमारे घर में ही दो दिन रुके। एनडीए की सरकार केंद्र में थी। उत्तराखंड में भी बीजेपी की सरकार थी। कई मंत्री रामनगर में डेरा डाले रहे। संघ सुप्रीमो क्या होते हैं, इलाके को पहली बार पता चला। मैंने अपनी जिंदगी में हर दल से दूरी बनाकर रखी थी। सुदर्शनजी ने देश भर में हमारे गांवों और हमारे प्रयासों की चर्चा की। ख्यात पर्यावरणविद अनुपम मिश्र जैसी हस्तियों ने सालों-साल आकर देखा। हमारा हौसला बढ़ाया। धीरे-धीरे लोगों को यकीन आया कि कुछ अच्छा हो रहा है।

बाहर से पैसा लेना तो दूर उलटा मैंने अपने तमाम पुरस्कारों का पैसा भी इसी काम में लगाया। इसकी भी चर्चा कहीं नहीं की। नकारात्मक ऊर्जा अपनी जगह बहती रही। मैं अपने आसपास उजड़े पहाड़ों को हरियाली के जेवर पहनाने की कोशिश पवित्र मन से करता रहा। धरती ने उस सेवा के बदले लाखों हरे-भरे पेड़ों का प्रसाद पहाड़ों की संतानों काे दिया। सिर्फ सकारात्मकता ही थी, जिसने मुझे टिकाए रखा। दो साल पहले मैंने स्कूल से वीआरएस ले लिया ताकि इन 136 गांवों में फैले पहाड़ी परिवार में घूमता रह सकूं। उन दरख्तों के नजदीक नियमित जा सकूं, जिन्हें रोपने का साक्षी रहा। शक और ईर्ष्या का वह दौर कब का खत्म हो चुका है। स्कूल के जो टीचर कभी मुझे हतोत्साहित करते थे, मेरे विदाई समारोह में एक सम्मान-पत्र मुझे भेंट करने आए। वह सम्मान-पत्र मेरे पूरे जीवन की सबसे बड़ी पूंजी है। मैं अपने काम से उनके मन बदल पाया था। आप सिर्फ सकारात्मक रहिए। आसपास की हर तरह की निगेटिविटी से दूर रहिए। उसका हिस्सा मत बनिए। समय का इंतजार कीजिए। मेरा दावा है कि आप मायूस नहीं होंगे।

सच्चिदानंद भारती
तीन दशकों में 700 हेक्टेयर हिमालय भूमि पर जंगल उगाने और 20,000 तालाब साकार करने वाले पर्यावरणविद